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पांच दोहे - लक्ष्मण लडीवाला

एकाकीपन साँझ का, मन विचलित करजाय 
इस पड़ाव पर उम्र के , बनता कौन सहाय |

 
सुन्दर हर पल वह घडी,अनुपम सा उपहार 
साँस साँस की हर लड़ी,करती जैसे प्यार |

 

होठ छुअन अहसास ही, मुग्ध मुझे करजाय,

संयम त्यागा स्वपन में, चंचल मन भटकाय |

 

बहका बहका दिख रहा, खुद का ही व्यवहार

जैसे सब कुछ ख़त्म है, मन मेरा लाचार | 

 

मेरे जीवन में बसे, रूप  धरा  श्रृंगार,

पोर पोर में बह रही, बनी सतत रसधार |

 

-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला

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Comment

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Comment by Neeraj Nishchal on July 4, 2013 at 2:56pm

आदरणीय लक्ष्मण जी आपकी रचनाओं की जो सबसे
अच्छी बात रहती है वो यही है की कल्पना तो होती ही
नही वास्तविकता ही रहती है .........
बहुत ही सुन्दर .....

कृपया ध्यान दे...

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