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मत खेलो प्रकृति से....

लो झेलो अब गर्मी
भयानक-विकराल और
शायद असह्य भी..है न ?!!
देखो अब प्रकृति का क्रोध
तनी हुई भृकुटि और प्रकोप...

विज्ञान के मद में चूर
ऐशो आराम की लालच में
भूल बैठे थे कि है कोई सत्ता
तुमसे ऊपर भी,
है एक शक्ति - है एक नियंत्रण
तुम्हारे ऊपर भी...

एसी चाहिये-फ्रिज चाहिये
हर कदम पर गाड़ी चाहिये
लेकिन इन सबकी अति से
होने वाली हानि पर कौन सोचे
किसके पास है समय ?!!!

वैज्ञानिक कर रहे हैं शोध
पर किसके लिये
उद्योग जगत के लाभ के लिये
क्योंकि यहीं से आता है धन
उनके लिये - उनके शोध के लिये...

बढ़ रहा है प्रदूषण - बढ़ने दो
हो रहे हैं ओजोन परत में छेद - होने दो
बढ़ रहा है धरती का तापमान - बढ़ने दो
पिघल रही हैं अंटार्कटिका और
हिमालय की बर्फ - पिघलने दो
बढ़ रहा है सागरीय जलस्तर - बढ़ने दो...

जब कोई इसके लिये प्रायोजक आयेगा
तब इसपर सोचा जायेगा
जब खतरा सिर पर मंडरायेगा
तब इसपर सोचा जायेगा...

अभी तो केवल बोलबाला है
विज्ञान की उपलब्धियों का
बजार में होती नित नयी वृद्धियों का
भूमि और सोने के आकाश छूते भावों का
शेयर बाजार के प्रतिदिन नये दावों का
और मनुष्य को अपाहिज बना देने पर तुली
अनेकानेक सुख - सुविधाओं का...

खूब करो गर्व कि -
खोज लिया है हमने मंगल ग्रह पर
मानव जीवन के संभावित तथ्यों को,
ढूंढ लिया है हमने 'गॉड पार्टिकल' के रूप में
ईश्वर के तमाम रहस्यों को,
कर रहे हैं हम विज्ञान के बल पर
सार्वभौमिक और चौतरफा विकास,
मना रहे हैं हम नये अविष्कारों का
प्रतिदिन खूब उत्सव व हर्षोल्लास....

लेकिन याद रहे -
केवल एकाध प्रतिशत ही जान पाये हो
इस अथाह अंतरिक्ष - अनंत आकाश का,
मत खेलो प्रकृति से - मत खोलो द्वार
अपनी बरबादी - अपने विनाश का....

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by अरुण कुमार निगम on May 30, 2013 at 8:05pm

इंसान खुद को सर्वशक्तिमान मान कर प्रकृति से नित नए खिलवाड़ कर रहा है. दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं. मौसम अनियमित होने लगे हैं.आपने अपनी रचना के माध्यम से सटीक चेतावनी दी है....

अपना घर खुद फूँक कर, चला चाँद की ओर
मंगल-जीवन ढूँढ्ता , क्यों दिल मांगे 'मोर'
क्यों दिल मांगे 'मोर',कौन सी यहाँ कमी है
पंच-तत्व उपलब्ध , यहीं पर  धूप-नमी है.
यहीं  बसा ले  स्वर्ग , यहीं पूरा कर सपना
चला चाँद की ओर, फूँक कर घर खुद अपना !
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 30, 2013 at 6:38pm

प्रकृति के विरुद्ध मानव अपने स्वार्थ में जोकुछ कर रहा है, वह सब उसी के गले की फांस बनता जा रहा है और 

वह तिल तिल विनाश की ओर बढ़ रहा है, इसका अहसास आपने अपनी रचना के माध्यम से बखूबी कराया हैं

हार्दिक बधाई श्री विशाल चर्चित जी 

Comment by विजय मिश्र on May 30, 2013 at 1:29pm
सुन्दर शव्दों में यह स्पष्ट चेतावनी और वर्जना बहुत ही सामयिक और सावधान करनेवाली है . दृश्य साफ उभरे हैं . बधाई विशालजी
Comment by Vindu Babu on May 29, 2013 at 3:31pm
बिल्कुल यथार्थ का चित्र प्रस्तुत किया है आपने आपने आदरणीय चर्चित जी!
अब क्या किया इस अंधी दौड़ के लिए, पर इसे नकारा भी कैसे जा सकता!
सादर
Comment by coontee mukerji on May 29, 2013 at 3:06pm

आज के वैज्ञानिक युग की महादशा का कड़वा सत्य  .........लेकिन विशाल जी , इंसान तो हमेशा से पलायनवदी रहा है ....देखें  तो मंगल ग्रह

पर प्रवास बनने की तैयारी हो चुकी है .बुकिंग भी होने लगी है..........सादर / कुंती.

Comment by Priyanka singh on May 29, 2013 at 12:31am

सुन्दर रचना ....बधाई सर 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 28, 2013 at 9:02pm

आ0 विशाल भाई जी, ........’ लेकिन याद रहे .
केवल एकाध प्रतिशत ही जान पाये हो
इस अथाह अंतरिक्ष . अनंत आकाश का,
मत खेलो प्रकृति से . मत खोलो द्वार
अपनी बरबादी . अपने विनाश ।’........... सावधान!!! बहुत सुन्दर रचना। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,

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