तार-तार विश्वास, मगर जीवन चलता है.. .
भूमि भले हो रेह, पुलक टूसा खिलता है ;
जुगनू-तितली-फूल, किरन हँसती सिन्दुरिया,
ले आया नव वर्ष, चहकती फिर से चिड़िया.. .
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-सौरभ
Comment
अन्वेषा जी, आपने रचना को पसंद किया, इस हेतु आपका आभार
jeevan chalta hai...bus yahi to yathath hai....
Nav warsh ki shubkamnaye..
आदरणीय अम्बरीषजी, आपको भी नये साल की हार्दिक शुभकामनाएँ.! आप सपरिवार सानन्द, स्वस्थ तथा संतुष्ट रहें. विश्वास है, चिड़िया पूरे साल और तदनुसार आने वाले समय में सदा-सदा उत्साह में रहे.. . :-))))
भाई नादिर खानजी, आपको भी प्रस्तुत छंद के माध्यम से नव वर्ष की अनेकानेक शुभकामनाएँ. नये साल आप सपरिवार सानन्द रहें.
चिड़िया अब उत्साह में, छाया नया प्रकाश.
पूरे होंगें स्वप्न सब, सम्मुख है आकाश.
सम्मुख है आकाश, नापनी हर ऊँचाई.
ठिठुराए नव वर्ष, कांपती उड़े बधाई.
कुहरा है भरपूर, परों पर जमती खड़िया.
फिर भी भरे उड़ान, चहकती प्यारी चिड़िया..
आदरणीय सौरभ जी, हम सभी के लिए नव वर्ष २०१३ मंगलमय हो !
सुंदर छंद के साथ नए साल का स्वागत बहुत खूब अदरणीय सौरभ जी .
सीमाजी, विषय ’मैं अब क्या कहूँ’ का नहीं बल्कि ’कैसे कहूँ’ का है. और मैं इस चर्चा को यहाँ अवश्य ही विराम देना चाहूँगा. लेकिन कुछ प्रश्न अवश्य उभर आये हैं और एक अच्छी प्रतीत होती हुई चर्चा एक गलत थ्रेड पर विस्तार पाती जा रही है.
आपको जानकारी है (सवैया पर मेरी समस्त पोस्टिंग के दौरान आपसे हुई फोन पर अपनी बातचीत) किंतु संभवतः आपको अभी याद न हो, कि, आप द्वारा उद्धृत पुस्तक जगन्नाथ प्रसाद भानु कवि रचित छंद प्रभाकर मेरे पास उपलब्ध है. इसके बावज़ूद मैंने तुक हेतु परिपाटी की बात कहते हुए ऐसा कुछ कहा है तो उसका कोई न कोई आशय रहा होगा. लेकिन बात कहीं की ओर घूम गयी दीखती है.
दूसरे, मेरे कहे में गलत को प्रश्रय देने या जबर्दस्ती सही ठहराने की मंशा किसी को कैसे समझ में आ सकती है, या, समझ में आ गयी ? मैंने ’जो जैसा है, वो वैसा है’ के रूप में उदाहरण प्रस्तुत किये थे. क्या आपको कत्तई नहीं लगा कि मैं ऐसे किसी प्रयोग को गलत ही कहूँगा जहाँ छंद की तुक चंग से मिलायी गयी हो !?
मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे पोस्ट (टिप्पणियों) को, विशेषकर पिछली टिप्पणी को, आपने अवश्य ही पूरे मनोयोग से पढ़ा होगा. मैं यह भी मान कर चल रहा हूँ कि आपने इस संदर्भ में मेरे द्वारा तथ्यों को साझा होता हुआ ही समझ रही हैं, न कि आपको मैं अपनी बात को सही साबित करने की कुचेष्टा करता दीख रहा होऊँगा. ऐसा मेरा मानना है. क्या मैं अपको विश्वास में ले पाया हूँ ?
//आपने कहा अपने उत्कर्ष और स्पर्श का प्रयोग देखा है(जो शायद मेरी ही एक नव वर्ष की कविता की ओर संकेत है )//
जी नहीं, आदरणीया. एकदम नहीं.
मुझे आपके नवगीत का कोई संदर्भ मेरे दिमाग़ में नहीं था. यह एक संयोग मात्र है कि आपने अपने नवगीत में जो शब्द लिए थे वे मेरे उदाहरण से मेल खा गये. वस्तुतः मेरे दिमाग़ में ’रश्मिरथी’ या ’भारत-भारती’ थीं.
//शास्त्रीय छंदों से इतर रचनाओं में यदि phoneticsको follow किया जाये तो मैं उसे गलत नहीं मानती ...परन्तु छंदों में मैं इसका प्रयोग ठीक नहीं समझती //
मैंने इसी थ्रेड में तुलसीदास का नाम लिया था. उनका नाम लिया जाना क्या ऐसे ही किसी संदर्भ का कारण नहीं रहा होगा ? किन्तु, सनातनी या शास्त्रीयता के बावज़ूद ष और ख को लेकर मेरी बात आधुनिक य आज के अनुसार उच्चारण (?) के तहत नकार समझ ली गयी.
सीमाजी, ओबीओ भी देश के उन गिने-चुने मंचों में से है जहाँ शास्त्रीय छंदों को आज की भाषा की मुख्यधारा में लाने का सद्-प्रयास किया जा रहा है. यह तो आप भी जानती हैं. जो इन तथ्यों को नहीं जानते उनको मैं अपने ढंग से समझा लूँगा, लेकिन आपसे इतना अवश्य ही पूछना है कि इस परिप्रेक्ष्य में आधुनिक हिन्दी में शास्त्रीय छंदों के उदाहरण कहाँ से लिये जायँ ? या, शास्त्रीय छंदों में उन्हीं तुलसी बाबा द्वारा प्रयुक्त पतंग और भृंग की तुक को मेरे जैसा व्यक्ति फिर कैसे अनुमोदित करे ? लेकिन ऐसे उदाहरण तो हैं न ? यह भृंग शब्दानुसार और उच्चारण के अनुसार भ्रंग कत्तई नहीं है जो पतंग के साथ तुक में बिना संदेह आ जाता.
//दूसरी बात मुझे जैसे ही इस गलती को इंगित कराया गया था मैंने उसे हटा लिया था (कई दिन पहले ही)//
आप किस प्रस्तुति की बात कर रही हैं, सीमाजी, यह मुझे स्पष्ट नहीं हुआ है. और, आपकी उक्त गलती (?) को किसने इंगित किया ? ऐसी कोई व्यवस्था अभी तक नहीं है जहाँ ष और श के तुक में किसी गलती को इंगित करे. व्यक्तिगत मान्यताएँ चाहे कोई जो बना ले या गढ़ ले. व्यक्तिगत मान्यताएँ स्वीकार्य हुई तो अवश्य मान्य हो कर नियम बना करती हैं. लेकिन उसमें सर्वस्वीकार्यता की बात सर्वोपरि होती है.
यह अवश्य है कि हम आगे से पद्य-संस्कार में स्वयं को संयमित करते हुए कुछ विशेष करना शुरु करें. लेकिन यह तो आगे की बातें हैं. अभी ऐसी प्रहारवत चर्चा क्यों करना, गोया, तुक को लेकर दो तरह के मंतव्य साहित्य क्षेत्र में चल रहे हैं ?
तुक पर एक स्वस्थ प्रतीत होती हुई चर्चा तो हुई लेकिन जिस ढंग से और जैसे अलहदे थ्रेड पर होनी थी, वह नहीं हो पायी.
सादर
शास्त्रीय छंदों से इतर रचनाओं में यदि phonetics को follow किया जाये तो मैं उसे गलत नहीं मानती ... परन्तु छंदों में मैं इसका प्रयोग ठीक नहीं समझती
आपने कहा अपने उत्कर्ष और स्पर्श का प्रयोग देखा है (जो शायद मेरी ही एक नव वर्ष की कविता की ओर संकेत है ) तो पहली बात तो यह की वो कोई छन्द नहीं है... दूसरी बात मुझे जैसे ही इस गलती को इंगित कराया गया था मैंने उसे हटा लिया था (कई दिन पहले ही) आगे उसे ष के तुक के साथ ही प्रस्तुत करूंगी | पूर्णिमा जी का मैं स्वयं बहुत सम्मान करती हूँ परन्तु उनके इस तुक को मैं सम्मान नहीं दे सकती... अगर यह तुक दोहे के अतिरिक्त और कहीं होता तो भी ग और द phonetics के लिहाज़ से भी गलत हैं |
यहाँ यह बात नहीं करना चाहूंगी की किन किन रचनाकारों ने ऐसा किया है मेरी बात सिर्फ सही या गलत पर आधारित है
तुक पर एक स्वस्थ चर्चा का माहौल बना ये देख कर संतुष्टि हुयी
//यह न कहूँगा कि हम किन्हीं स्वनामधन्य या किन्हीं विशेष के कहे का मात्र अनुकरण करें.//
लगता है, आदरणीय, आप अपना नाम भर देख पाये मेरी उसी टिप्पणी में. उपरोक्त पंक्ति नहीं देख पाये. ’गलत’ को किसने ’सही’ कहा है, आदरणीय ? वैसे, आपका मुखर होना रुचा मुझे. आप का आशय, किन्तु, अब, मुझे बिखरा हुआ लग रहा है. अच्छा हो, हम अपनी-अपनी तार्किकता को अब इस संदर्भ में विराम दें. सारी बातें उजागर हो गयी हैं. अब सभी समझ-जान रहे होंगे कि सही क्या है और गलत कितना है.
आदरणीय, आपकी इन संदर्भों में प्रतिक्रिया ही नहीं, अब आपकी प्रस्तुति और आपके संप्रेषण की भी इस मंच को चाह है. विश्वास है कृतार्थ करेंगे. आपका स्वागत है.
आपका नव वर्ष मंगलमय हो... जोकि इस प्रस्तुति का आशय है
क्षमा चाहूँगा सौरभ जी की आप ने मुझसे संबोधित होकर ये बात नहीं कही है मगर फिर भी मैं अपनी टिपण्णी दे रहा हूँ ...
पूर्णिमा वर्मन जी एक बड़ी लेखिका हैं ..फिर भी अगर उन्होंने छंद और चंग को तुकान्त समझा है तो आपत्ति उठाना लाजिमी है ... कलाकार कितन अभी बाद हो कला से ऊपर कभी नहीं हो सकता .. हाँ आप गलत को गलत कह कर लिख सकते हैं मगर गलत को सही साबित करना कला नहीं है ..
ऐसी गलतियाँ बहुत बड़े बड़े शायर कवी और लेखक कभी न कभी करते रहे हैं , चूँकि इनका प्रतिशत बहुत कम होता है इस लिए ऐसे मुद्दों को उठाना ठीक नहीं होता क्यूंकि मुद्दा ज़रुरत से ज्यादा बहस का बायस हो जाता है ...
तो एक्सेप्शन को उदाहरण बना लेना ठीक नहीं ..
क्या आप बताएँगे की पूर्णिमा जी ने ऐसा कितनी बार किया है?
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