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काश
कि उसी वक्त देख लेता
पलट कर पन्ने
उस किताब के ,
जो तुमने वापस कर दी
भीगी आँखों के साथ !
और मैंने उसे इंकार समझा
अपने प्रणय निवेदन का !
.
और जब आज
हम दोनों ने थाम रखे है
दो अलग अलग सिरे
जिंदगी के !
तो अनायास ही
हाथों में आई वो किताब !
थरथरा गया अस्तित्व !
जैसे कोई रेल गुज़री हो
किसी पुराने पुल से !
बिखर गए किताब के पन्ने !
और पन्नों के बीच
एक सुख चुका गुलाब
जो मैंने नही रखा था !
.
काश
कि उसी वक्त देख लेता
पलट कर पन्ने
उस किताब के !


....................... अरुन श्री !

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Comment

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Comment by Rohit Sharma on April 17, 2012 at 8:12pm

yahi to saaritabahiyon ki jad hai, kanya apni bat kode me kahti hai aur ham hain ki us kode sa mahir nahi ho pate.....

 

Comment by Abhinav Arun on April 17, 2012 at 1:14pm

हाथों में आई वो किताब ! थरथरा गया अस्तित्व ! जैसे कोई रेल गुज़री हो किसी पुराने पुल से !

क्या कहने bahut खूब " वो किसी रेल सी गुज़रती है , और मैं पुल सा थरथराता हूँ "" badhai इस रचना पर !!


Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 17, 2012 at 12:16pm

सुन्दर भाव प्रस्तुत किये अरुण जी! बधाईयां आपके लिए... :))

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