व्यंग्य रचना:
दीवाली : कुछ शब्द चित्र:
संजीव 'सलिल'
*
माँ-बाप को
ठेंगा दिखायें.
सास-ससुर पर
बलि-बलि जायें.
अधिकारी को
तेल लगायें.
गृह-लक्ष्मी के
चरण दबायें.
दिवाली मनाएँ..
*
लक्ष्मी पूजन के
महापर्व को
सार्थक बनायें.
ससुरे से मांगें
नगद-नारायण.
न मिले लक्ष्मी
तो गृह-लक्ष्मी को
होलिका बनायें.
दूसरी को खोजकर,
दीवाली मनायें..
*
बहुमत न मिले
तो खरीदें.
नैतिकता को
लगायें पलीते.
कुर्सी पर
येन-केन-प्रकारेण
डट जाए.
झूम-झूमकर
दीवाली मनायें..
*
बोरी में भरकर
धन ले जाएँ.
मुट्ठी में समान
खरीदकर लायें.
मँहगाई मैया की
जट-जयकार गुंजायें
दीवाली मनायें..
*
बेरोजगारों के लिये
बिना पूंजी का धंधा,
न कोई उतार-चढ़ाव,
न कभी पड़ता मंदा.
समूह बनायें,
चंदा जुटायें,
बेईमानी का माल
ईमानदारी से पचायें.
दीवाली मनायें..
*
लक्ष्मीपतियों और
लक्ष्मीपुत्रों की
दासों उँगलियाँ घी में
और सिर कढ़ाई में.
शारदासुतों की बदहाली,
शब्दपुत्रों की फटेहाली,
निकल रहा है दीवाला,
मना रहे हैं दीवाली..
*
राजनीति और प्रशासन,
अनाचार और दुशासन.
साध रहे स्वार्थ,
तजकर परमार्थ.
सच के मुँह पर ताला.
बहुत मजबूत
अलीगढ़वाला.
माना रहे दीवाली,
देश का दीवाला..
*
ईमानदार की जेब
हमेशा खाली.
कैसे मनाये होली?
ख़ाक मनाये दीवाली..
*
अंतहीन शोषण,
स्वार्थों का पोषण,
पीर, व्यथा, दर्द दुःख,
कथ्य कहें या आमुख?
लालच की लंका में
कैद संयम की सीता.
दिशाहीन धोबी सा
जनमत हिरनी भीता.
अफसरों के करतब देख
बजा रहा है ताली.
हो रहे धमाके
तुम कहते हो दीवाली??
*
अरमानों की मिठाई,
सपनों के वस्त्र,
ख़्वाबों में खिलौने
आम लोग त्रस्त.
पाते ही चुक गई
तनखा हरजाई.
मुँह फाड़े मँहगाई
जैसे सुरसा आई.
फिर भी ना हारेंगे.
कोशिश से हौसलों की
आरती उतारेंगे.
दिया एक जलाएंगे
दिवाली मनाएंगे..
*
Acharya Sanjiv Salil
Comment
अच्छी है !
आदरणीय आचार्य जी ! आज के इस कठिन दौर में दीवाली जैसे विषय पर पर इस सशक्त व अनमोल व्यंग्य रचना के लिए आपको साधुवाद ! सादर:
अच्छी रचना इसमें सामायिक मुद्दों को शामिल करने का निराला अंदाज़ वाह वाह बहुत khoob दीप पर्व की hardik बधाई आचार्यवर !!...
दीवाली मात्र पर्व नहीं हमारे समाज का प्रमुख उत्सव भी है सो बेजोड़ त्यौहार है. आचार्य सलिलजी ने इसके सामाजिक पक्ष को उजागर करने की कोशिश की. और हताशा भरे महौल में आम आदमी के लिये इसका मनाना कितना दुष्कर होता जा रहा है इस ओर इशारा किया है. किन्तु, मेरी समझ से आचार्य जी की प्रतिष्ठा और गहन अध्ययन के अनुरूप इस रचना को और अभी कसा जाना था.
इस रचना के प्रारूप से मानसिक पिपासा चूँकि बहुत कुछ अतृप्त ही रह गयी है, एक पाठक के तौर पर हम कवि से कुछ और बेहतर के लिये सादर निवेदन कर सकते हैं.
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