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कविता - जीव - गणित

कविता -  जीव - गणित
घाट
घाट की सीढियां
सीढ़ियों पर काबिज़ भिक्षुक
हाथ में खनकते बर्तन
हर आने  जाने वाले के लिए
दुआ देती जुबानें
इनकी तस्वीरें
हजारों में बिकती होंगी तुम्हारे देश में
इनकी झुर्रियों में दिखती होंगी तुम्हे
छायांकन की अपार संभावनाएं
पर ये बिलकुल नहीं बिकते हमारे देश में
हाँ ये सच है हमारे देश में बिकती है
हर मजबूर  देह
शौक और लिप्सा के बाज़ार में
इसी लिए अचरज न करना
अगर घाट का भिक्षुक या साधू
तुम्हारे कैमरे को देख हाथ पसार दे
सौ का नोट मांगे
तोल मोल कर दस बीस में मान भी जाए
और ख़ुशी ख़ुशी दे पोज़
अपने दुःख में डूबे चेहरे का
अब तो मानोगे न
कि मुद्रा मुद्रा देख  अक्सर बदल जाया करती है
और बदल जाती है लोगों की मुद्राएँ
तब जब हम बहुत उम्मीद से दस्तक देते हैं उनकी दहलीज़ पर
दहलीज जो  बंधी होती है कुछ समीकरणों  में
और जीव - गणितीय समीकरणों के स्वार्थ  का
कोई देश नहीं होता
कोई सीमा नहीं होती
वे बंधे होते हैं नियमों और उनके सटीक विस्तार में |
 
                  -  अभिनव अरुण   [050911]
 
 
 
 
 

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Comment by Abhinav Arun on September 6, 2011 at 1:54pm
हार्दिक आभार श्री कैलाश जी ,आदरणीया मोनिका जी एवं श्री सतीश जी --रचना आपको पसंद आई और आपने टिप्पणी की बहुत बहुत धन्यवाद !! 
Comment by Kailash C Sharma on September 6, 2011 at 1:49pm

कि मुद्रा मुद्रा देख  अक्सर बदल जाया करती है
और बदल जाती है लोगों की मुद्राएँ
.....बहुत सुंदर भावपूर्ण, मर्मस्पर्शी और सटीक अभिव्यक्ति...बधाई  

Comment by mohinichordia on September 6, 2011 at 11:54am

की मुद्रा देख ,मुद्रा बदल जाया करती है ......सही कहा है अभिनव जी 

Comment by satish mapatpuri on September 6, 2011 at 1:12am

हाँ ये सच है हमारे देश में बिकती है 
हर मजबूर  देह
शौक और लिप्सा के बाज़ार में
बेहतरीन ख़याल अरुण जी, दाद कबूल करें.

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