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बर्ताव
बर्ताव का अर्थ -- स्पर्श !
मुलायम नहीं..
गुदाज़ लोथड़ों में
लगातार धँसते जाने की बेरहम ज़िद्दी आदत

तीन-तीन अंधे पहरों में से
कुछेक लम्हें ले लेने भर से
बात बनी ही कहाँ है कभी ?


चाहिये-चाहिये-चाहिये.. और और और चाहिये
सुन्न पड़ जाने की अशक्तता तक
बस चाहिये

आगे,
देर गयी रात 

उन तीन पहरों की कई-कई आँधियों के बाद 
लोथड़े की
तेज़धार चाकू की निर्दयी नोंक
खरबूजा-खरबूजा खेलती है
सुन्न पड़े के साथ
बेमतलब सी भोर होने तक.

*******************************

-सौरभ

(मौलिक और अप्रकाशित)

 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 4:42pm

आदरणीय अरुण भाईसाहब, आपकी बधाई और बड़ाई .. . जय हो.. जय हो...   :-))))

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 4:38pm

रचना को पसंद करने औरथोचित सम्मान देने के लिए आपका सादर धन्यवाद आदरणीया शशिजी, आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी, भाई शिज्जू जी, भाई राहुलदेवजी.

आदरणीया सरिताजी, आदरणीय जवाहलालजी, आदरणीया गीतिकाजी, भाई रमेश जी,  भावाभिव्यक्ति में तनिक क्लिष्टता है इसे मैं स्वीकार करता हूँ. फिर भी मान रख लेने के लिए सादर धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 4:33pm

//कहीं कहीं अतिक्रमित  होती सम्बेदनहीनता , कहीं शोषण की पराकाष्ठा, कहीं अपनी डफली अपना राग ..ये सब तो शाब्दिक अर्थ है ..पर माजरा कुछ और ही लग रहा है //

डॉक्टर साहब, आपने सामाजिक विसंगतियों को इंगितों में अभिव्यक्त होते देखा-पढ़ा है. और वही कुछ साझा हुआ है. आपने रचना को मान दिया यह मेरे लिए कम बड़ी बात नहीं.
सादर

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 17, 2013 at 4:06pm

पशु से कसाई का रिश्ता जग प्रसिद्ध है। कसाई पल में पशु का उद्धार कर देता है यह जानते हुए भी कि अगले जनम में उसे पशु और पशु को कसाई होना है। लेकिन यहाँ तो दोनों मानव हैं। एक कसाई बनकर दूसरे से पशुता का व्यवहार करे अपनी तृप्ति के लिए वह भी जीवन भर सोचकर ही.....। पता नहीं यह कसाई अगले जन्म में क्या बनेगा ? आ. सौरभ भाई बधाई घनी अंधेरी रात की वारदात पर रोशनी डालने के लिये ।... सादर ।

 

Comment by Sarita Bhatia on October 17, 2013 at 1:27pm

बार बार पढना पड़ता है आदरणीय सौरभ जी आपकी रचना को समझने के लिए ,गहरी बात 

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on October 17, 2013 at 4:23am

माननीय सौरभ सर, मानवीय रिश्तों मे समाहित विद्रूपता और शारीरिक आयामों के विकृत पक्ष तक सीमित हो चुके मानवीय संबंधों को सुन्दरता से चित्रित करने हेतु बधाई। आत्मिक पक्षों से विमुख निकॄष्टतम शारीरिक अधस्तल में मोक्ष खोजते परपीड़ा मे सुख की मॄगमरीचिका तलाशते मानव की अधोगति का मार्मिक चित्रण। कोटिशः बधाईयाँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on October 17, 2013 at 12:04am

अव्यक्त को व्यक्त कर पाना लगभग असम्भव सा कार्य है और असम्भव को सम्भव कर पाना ही शायद रचनाकर्म है. आदरणीय सौरभ भाई जी "रिश्ते" को नमन.................

Comment by रमेश कुमार चौहान on October 16, 2013 at 10:38pm

आदरणीय आपकी इस रचना को दस बार पढकर आपको नि:शब्द हो नमन करता हूँ ।

Comment by वेदिका on October 16, 2013 at 8:30pm

हाँ ! एकदम सही लिखा आपने|

तारीफ के बोल कह पाने मे तो सक्षम नही हूँ, अपितु अंतरतम से आभार आपने ये रचना हमसे साझा की|

सादर !! 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on October 16, 2013 at 8:04pm

बार बार पढूं, समझूं ... बस इतना ही कहूं ! सादर महोदय ...

कृपया ध्यान दे...

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