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ग़ज़ल :- चार पैसा उसे हुआ क्या है

 

ग़ज़ल :- चार पैसा उसे हुआ क्या है

 

चार पैसा उसे हुआ क्या है

पूछता फिर रहा खुदा क्या है |

 

हर जगह तो यही करप्शन है

रोग बढ़ता गया दवा क्या है |

 

तुम ही रक्खो ये नारे वादे सब

पांच वर्षों का झुनझुना क्या है |

 

तेरे जाने पर अब ये जाना माँ

बद्दुआ क्या है और दुआ क्या है |

 

हम मलंगों से पूछकर देखो

सच के व्यापार में नफा क्या है |

 

और बढ़ जाती है व्यथा मेरी

जब कोई पूछता कथा क्या है |

 

वक्त रुकता कहाँ किसी के लिये

दुश्मनी ही सही जता क्या है |

 

ज़िंदगी मौत का साया है तू

साथ जितना भी है निभा क्या है |

 

अब तो मंदिर भी लूटे जाते हैं

याचना से यहाँ मिला क्या है |

 

 

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on January 8, 2011 at 3:25pm

नवीन जी ,शेष जी और आकर्षण गिरी जी आभारी हूँ ,

नवीन जी दरअसल मुझे यह स्वीकारने में कतई हिचक नहीं की एक सीमा के बाद हर रचनाकार में समाज से पाठक से प्रोत्साहन की अपेक्षा रहती है समीक्षा के संदर्भ में |जब कुछ लोग पढकर कुछ कहें तो लिखना अच्छा लगता है | आपने सच कहा यहाँ हमें खुद ही लेखक और समीक्षक दोनों की भूमिका का निर्वहन करना है | यदि पोस्ट यूँ ही अन्अटेंडेंड हफ़्तों पड़ा रहे तो आप ही बताइए उसे यहाँ लिखने से क्या हासिल | अक्सर मैं ये सोच कर यहाँ पोस्ट भेजता हूँ की कभी कोई आने वाले वक्त में पढ़ेगा और मूल्यांकन करेगा | शायद मेरे होने अथवा न होने के बाद भी ... कहते हैं न कल और आयेंगे दुनिया में ...मुझसे बेहतर कहने वाले ...|

Comment by Aakarshan Kumar Giri on January 8, 2011 at 10:52am

इनबॉक्स से इस ब्लॉग तक पहुंचने के बीच मन में ऐसा कहीं नहीं था कि ऐसा कुछ पढ़ने को मिलेगा... बहरहाल पढ़ने के बाद इसे उम्मीद से बढ़कर कई गुणा बेहतर पाया.... बेहतर गज़ल के लिए बधाई....

 

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