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ब्राह्मण
=====
पंचकोशों को परिपूर्ण बनाया जाना चाहिये परंतु कैसे?

उन्हें यम नियम और साधना के सभी पाठों के द्वारा सम्रद्ध बनाया जा सकता है। अन्नमय कोश को आसनों के द्वारा, काममय कोश को यम और नियम साधना के द्वारा, प्राणायाम के द्वारा मनोमय कोश , अतिमानस कोश प्रत्याहार से ,विज्ञानमय कोश धारणा से और हृरण्यमय कोश ध्यान से परिपक्व वनाया जा सकता है।

केवल ध्यान समाधि ही आत्मा तक पहुंचाती है। पवित्र व्यक्ति वही हैं जिन्हें अपने पंचकोकोशों को सम्रद्ध करने की तीब्र इच्छा होती है। मानव शरीर पंच कोशों से निर्मित होता है जबकि साधना करने का अभ्यास आठ स्तरों पर होता है।

आध्यात्मिक साधना करना ही धर्म है, जो पंचकोशों की व्याख्या नहीं करता वह धर्म नहीं है वह मतवाद है।


सूक्ष्म कारण मन अर्थात् हिरण्यमयकोश के ऊपर जो लोक है उसे सत्यलोक कहते हैं। जब साधक अपने इस छुद्र मैंपन को सत्यलोक की वास्तविकता में मिला देते हैं तब वे सगुण ब्रह्म में अपने को पूर्णतः स्थापित कर लेते हैं। इस अवस्था में साधक की अस्मिता यदि चूर चूर हो कर पुरुष में एकीकृत हो जाती है तब वह निर्गुण ब्रह्म से साक्षात्कार करता है। इसे ही सत्यलोक या ब्रह्मलोक कहते हैं, वे जो इस लोक में अपनी स्थापना कर चुके हैं केवल वही ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी हैं।

"मौलिक व अप्रकाशित"

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आदरणीय टीआर सुकुल जी, आपने ब्राह्मण या ब्रह्मण या पुरूष की अवधारणा के क्रम में उपयुक्त अवयवों की इंगितों में चर्चा की है. यह अवश्य है कि ऐसे इंगित पाठकों से पूर्वाभ्यास की अपेक्षा करते हैं. अन्यथा, सारे टर्म या जार्गन न केवल  हवा-हवाई महसूस होंगे, वाचाल पाठक फिकरा कस देगा कि ऐसा किसने देखा है ! 

आप अन्यथा न लें तो मैं एक आपबीती साझा कर रहा हूँ. 

मेरे हैदराबाद प्रवास के दौरान मेरे संपर्क में ग्रामीण परिवेश के कुछ अनपढ़ लोग हुआ करते थे. उनमें से एक ’जागरुक’ युवक जो हट्ठा-कट्ठा भी था और मुखर भी था, गाहे-बगाहे ’रेसेस’ के दौरान कई बातों का पिटारा लेकर बैठ जाता था. बातों बातों में एक दिन हवाईजहाज़ की बात चली. तो उसने अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर की कि मैं उसे बताऊँ कि वायुयान कितने बड़े होते हैं. मैंने कई वायुयानों के आकार की बात की. वह बड़े आकार वाले वायुयानों के प्रति न केवल सशंकित था, बल्कि पता चला कि दूसरे दिन उसने मुझे ’भाँजू’ या पता नहीं क्या-क्या घोषित कर दिया था. एक दिन उसे शमसाबाद एयरपोर्ट ले जाने का संजोग बना. वहाँ उसने पहली बार नंगी आँखों से एयरपोर्ट पर वायुयानों को देखा. उसके चेहरे के हाव-भाव और उसकी प्रतिक्रिया को मैं आजतक याद कर बेसाख़्ता हँसता हूँ. और फिर उसका पूछना कि .. ’साहेब ये हवा में उठता कैसे है, उड़ना तो दूर !’ 
हमने समझाया कि जितना तुम जानते हो न इस संसार को तुम उतने से ही आँकते हो.

हममें से अधिकांश की दिक्कत यही है. किन्तु, जैसे-जैसे अनुभव और ज्ञान बढ़ता जाता है, आदमी की तथ्यात्मक स्वीकार्यता और वैचारिक गँभीरता बढ़ती जाती है.
विश्वास है, आप मेरे कहे का अन्वर्थ समझ गये होंगे.

अब आगे,

व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया पंचकोशों के हिसाब से उच्च से उच्चतर की परिकल्पना का हामी है. आपने अपनी जानकारी के अनुसार कोशों को काममयकोश, हिरण्मयकोश आदि-आदि नाम दिया है. और इसी क्रम में पांच की जगह कुल नाम छः हो गये हैं ! जबकि पतंजलि के योगसूत्र या घेरण्ड संहिता या वेदान्त की अवधारणा पंचकोशों में क्रमशः अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनन्दमयकोश को परिभाषित करता है. इसके अलावा इनको मिले सारे नाम विशेष ’मठ’ या ’वाद’ के अनुसार निर्धारित होते हैं. मैं उन्हें गलत या सही नहीं कहता हूँ लेकिन उचित होता मूल संज्ञाओं से छेड़छाड़ न की जाती. 

आपने , आदरणीय, यदि इस आलेख के क्रम में पंचकोशों की अवधारणा का कारण, उनकी दशा और प्राप्य, उनकी सीमाएँ आदि कहते चलते तो आम पाठक अपनी प्रकृति के अनुसार उनसे तारतम्यता बिठाता चलता. फिर, उच्च से उच्चतर कोशों में जाने की अवधारणा के क्रम में अष्टांग योग के अवयव समीचीन प्रतीत होते.

यम-नियम का शब्द ही अनजान पाठक को भरमा सकता है जबकि इनके भी अलग-अलग पाँच-पाँच आचरण बताये गये हैं. ताकि निजी तौर व्यति और समाज मानसिक और व्यावहारिक तौर पर सुगढ़ हो सके ताकि आगे के अवयवों पर सहज भाव बना रह सके. जैसेकि, यम और नियम के आगे आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार को साध कर शारीरिक और मानसिक रूप से व्यक्ति निजी और समूह के तौर पर सक्षम हो सके. ताकि, धारणा की समझ, ध्यान की एकाग्रता और समाधि का वैचारिक प्रस्फुटीकरण का अर्थ न केवल स्पष्ट हो, बल्कि इन्हें हवा-हवाई बतला कर कोई वाचाल बकवाद न कर सके.

होता यह है आदरणीय, कि एक तो आमजन / आम पाठक ऐसे परिभाषात्मक शब्दों (टर्म या जार्गन) को जानता ही नहीं, और इधर-उधर से कुछ पढ़-सुन कर बकवास करता फिरता है. ऐसे में आप जैसे लेखकों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है. जो इस चेष्टा में होते हैं कि वे ऐसे विषयों पर कुछ  साझा करें. 

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