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यादों का सफर.....हिंदी साहित्य का रणबांकुरा....रवींद्र कालिया

एक दिवसीय स्मरण  कार्यक्रम

(सुप्रसिद्ध कथाकार, उपन्यासकार व सफलतम सम्पादक रवींद्र कालिया के व्यक्तित्व, कृतित्व)

जनवादी  लेखक संघ और साहित्यिक पत्रिका ‘तद्भव’ लखनऊ के संयुक्त तत्वाधान में आज दिनांक १३.०३.२०१६ को एक दिवसीय स्मरण  कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध कथाकार, उपन्यासकार व सफलतम सम्पादक रवींद्र कालिया के व्यक्तित्व, कृतित्व पर चार सत्रों में चली चर्चा अपने लक्ष्य तक पहुंचने में कामयाब रही.   इस ऐतिहासिक गोष्ठी में देश भर के नामचीन साहित्यकारों का लखनऊ के उमानाथ बली प्रेक्ष्यागृह में सुबह १०.०० बजे से ही जमावाड़ा लगना शुरू हो गया था. देश के  कोने-कोने से आये नामचीन  वरिष्ठ साहित्यकारों में शेखर जोशी,  काशी नाथ सिंह व विभूति नारायण राय थे तो श्रीप्रकाश शुक्ल, मोहम्मद आरिफ, चंदन पाण्डेय, वंदना राय, राकेश मिश्र, मनोज पाण्डेय, प्रांजल धर, राजीव कुमार व अंकित प्रियम जैसे उत्कृष्ट युवा साहित्यकार भी पीछे नहीं रहे.  इनके अतिरिक्त भी लखनऊ शहर के जाने-माने वरिष्ठ साहित्यकारों की लम्बी फेहरिश्त अपना-अपना नाम दर्ज कराने में अव्वल रहे.   जिनमें नरेश सक्सेना, शिवमूर्ति, रवींद्र वर्मा, शैलेंद्र सागर, वीरेंद्र यादव, अखिलेश सिंह, नलिन रंजन सिंह, अनिल त्रिपाठी व प्रीति चौधरी भी उपस्थित रहीं. अतिविशिष्ट वरिष्ठ साहित्यकार एवं रवींद्र कालिया की धर्म पत्नी ममता कालिया व उनके सुपुत्र अनिरुद्ध कालिया ने इस अवसर पर अपने-अपने विचार साझा किये.  उपरोक्त साहित्यकारों के अतिरिक्त भी स्थानीय साहित्यकारो, पाठकों व सुधीजनों ने बड़ी संख्या में शामिल होकर कार्यक्रम का लुत्फ उठाया.   

प्रथम सत्र ‘कुछ यादें कुछ बातें’ का संचालन नलिन रंजन सिंह ने किया. जिसकी अध्यक्षता श्री शेखर जोशी जी ने की.  वक्ता श्री नरेश सक्सेना अपने शब्दों में रवींद्र कालिया को स्मरण करते समय सीधे-सीधे उनके व्यक्तिगत जीवन में प्रवेश करते हुये कहा कि उनके व्यवहारिक जीवन में चुहलबाज़ी तो बहुत थी किंतु उसका प्रभाव उनके लेखन या सम्पादकीय जीवन पर कभी नहीं पड़ा. उनकी भाषा में चुस्ती-फुर्ती व मस्ती से सिक्त होने के कारण ही विषयों की गम्भीरता की सूक्ष्मता व सृजनात्मकता से रुढ़िवादी प्रसंगों की विडम्बनाओं को पर्दाफाश करने में सिद्धहस्त व सफल भी थे. उनके लेखन में मार्मिकता की उत्कृष्टता देखते ही बनती है. आपका गद्य लेखन भी कविता के अति निकट ही है. 

राकेश जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से “आप बीती और जग बीती” के अंतर को समूल पाट ही दिया है. आज उनका ‘ठहाका’ शेष है जो अब भी सुनाई दे रहा है.  ठहाके को परिभाषित करते हुये आगे कहा कि जो व्यक्ति जोर से ठहाका लगाता है वह बहुत निश्छ्ल और सरल इंसान होता है.  उनकी यात्रा सदैव ही चलती रहेगी क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्तिगत जीवन से लेकर राजनीति तक सफर तय किया है, जो उन्हें अनंत की ओर ले जाती है.

ममता कालिया ने अपने दाम्पत्य बंधन में बंधने से लेकर उनके अनंत यात्रा के सफर तक सब कुछ तुला पर संतुलित जीवन को सफल कहा.  अंत में एक बात और कही जो गांठ बांध लेने जैसी ही है कि उनके बीच कभी-कभी बहस तो होती थी, किंतु किन्ही भी परिस्थितियों में विरोध जैसी स्थिति नहीं बनी. वे मेहनतकश इंसान थे. हां उनके व्यक्तित्व में एक खिलंदड़पन भी था, लेकिन इसका असर उनके पक्के सिद्धांतवादी होने पर कभी नही पड़ा.

अनिरुद्ध कालिया ने अपने पापा रवींद्र कालिया को याद करते हुये कहा कि उनका अपने पिता से अधिकतर बातों में असहमतियां होती थी परंतु उनके सिद्धांतवादी होने के कारण मैं चुप हो जाता था.  उन्होंने एक वाकया को याद करते हुये बताया कि एक बार उनके पापा ने वैक्युम की स्पेलिंग पूछी तो मैंने उन्हें मोबाईल पर मैसेज के माध्यम से भेजा.  जिसे मै उस समय तो नही समझ सका था, किंतु आज मुझे अंग्रेजी बहुत आती है....आज इसका अर्थ मेरी समझ में पूरी तरह से घर कर गयी है.   अब मैं उस स्थान...पद को आज निर्वात ही पाता हूं.....यह कहते हुये भावुक हो उठे.

प्रथम सत्र में शेखर जोशी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि रवींद्र कालिया इलाहाबाद की साहित्यिक परम्परा और भाषाई संस्कार को आगे की ओर ले जाने वाले अग्रणी ही थे.  उनके इस परम्परा ने ही इलाहाबाद को एक नई पहचान दी. उनके एवं उनकी पीढ़ी के कथाकारों, उपन्यासकारों की विषयवस्तुओं में एक गज़ब की निर्लिप्तता तो दिखती ही है, इसके साथ ही साथ रिश्तों के वर्णनों में भी बेबाकी ठूंस-ठूंस कर भरी है.  उन्होंने जिन-जिन पत्रिकाओं में सम्पादन किया है उनमें नवोदित कथाकारों/रचनाकारों को बढ़ावा ही दिया है.  इस प्रकार वे अपनी एक पूरी पीढ़ी तैयार कर गये हैं.

दूसरे सत्र में “सृजन के सहयात्री” का कुशल संचालन प्रीति चौधरी ने किया. विषयगत बिंदुओं  पर वक्तव्य देते हुए लमही पत्रिका के सम्पादक  विजय राय ने स्पष्ट किया कि कालिया जी हिंदी साहित्य के इतिहास में सफलतम सम्पादक की भूमिका में अमर हो चुके हैं.   इन्होंने  सम्पादकीय कार्य क्षेत्र में अद्वितीय कार्य किया है.   उनके उपन्यास व कहानियों में नवीनता हर द्वार पर सजी-संवरी मुस्कराते हुये दिखाई दे जाती है.   यही उनकी अनूठी विशेषता भी है जो अन्य रचनाकारों से उन्हें अलग करती है.

काशी नाथ सिंह जी ने कहा कि आप कुशल व्यवहार के साथ ही एक बहुत अच्छे सम्पादक भी थे. उनका अपने कनिष्ट साहित्यकारों से आत्मीय लगाव व जुड़ाव था. सामाजिक दायित्वों के बाद भी उनका अपनी पत्नी ममता कालिया के बीच जिस तरह का परिपक्व एवं समझदारी भरा दाम्पत्य जीवन रहा वैसा कहीं और देखने को नहीं मिलता है. वह बिलकुल साफ दिल के नेक इंसान थे तथा चार यारों में वह मेरे पहले यार थे, जिस पर मुझे आज भी गर्व है.

प्रांजल धर ने कहा वे जिंदादिली व्यक्तित्व के धनी थे. उन्होंने मेरे जैसे नवोदित कहानीकारों की पूरी पीढ़ी तैयार की है.

तारसेम ने कहा कि इसमें कोई संदेह नही है कि आप कहानीकार, उपन्यासकार के साथ ही साथ एक दूरदृष्टि वाले उत्कृष्ट सम्पादक भी थे. उन्हें मैं दिली श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं.

प्रियम अंकित ने कहा कि आपके सजग एवं नि:स्वार्थ सम्पादकीय जादू का ही पर्याय है कि वह एक स्थापित रचनाकार बन सके. तथा मेरे जैसे अन्यान्य को अपनी पैनी सम्पादकीय दृष्टि के कौशल से ठप्प हुये रचनाकारों को भी द्रुतगति प्रदान की.

द्वितीय सत्र में विभूति नारायण राय ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि हमारे समाज में यह व्यवस्था है कि दिवंगतों के लिये अच्छा – अच्छा ही बोला जाता है, किंतु मै जैसा था वैसा ही कहूंगा.  वह अपने ठहाकों के लिये जाने जाते थे.  इसलिये हमें ठहाके भी लगाना जरूरी है.  यह सुनते ही पूरा हाल ठहाकों से गूंज उठा.....  सच कहूं तो हम दोनों ही पाप-पुण्य के साथी थे. सिद्धांतो में कभी ऐलोपैथिक, कभी आयुर्वेदिक, कभी नीम-हकीम तो कभी झोलाछाप पर गम्भीर हो जाते थे. जब भी जो मौसम चला उसी में बहार बन कर छा गये.  वह एक सुलझे हुए एकाग्रचित व्यक्ति थे.  वह अपने मस्तिष्क पर कुछ भी हावी नही होने देते थे.  वे लगातार सुनियोजित ढ़ग से अपने कार्यों को सम्पादित करते रहे.  संस्मरणों में वे अपनी पूरी खबर लेते थे.  उन्होने ने अपने डाक्टर से पूछा था कि उनकी ज़िंदगी के बचे हुये दिनों में उस दिन अर्थात आज के दिन को जोड़ा गया या नहीं?  इस बात पर डाक्टर तो नाराज़ हो गये किंतु वे ठहाके लगाकर हंसे थे.  ठहाके लगाने वाले कालिया को मैंने अपनी बारात में गम्भीर होते हुये  भी देखा था.  उनकी आंखे छलछला आयीं थी. उनके चर्चित उपन्यास ‘खुदा सही सलामत है’ में इस वाकया का बार-बार ज़िक्र हुआ है.  कालिया मेरे परिवार के सदस्यों जैसे ही थे. कालिया व ममता की तस्वीरें मेरे घर में लगी हुईं हैं.

दूसरे सत्र की समाप्ति के बाद मां अन्नपूर्णा के स्नेहिल आशीष में दोपहर का भोजन प्रारम्भ हुआ.  जिसमे सम्पूर्ण पौष्टिकता से पूर्ण लज़ीज़ व्यंजनों के स्वादोंसुगंध के चटॅकारों ने साहित्यकारों की क्षुधा को तृप्ति की सम्पूर्णता प्रदान की. और अगले सत्र में जोशोखरोश के साथ भूली हुई यादों को सहेजने की स्फूर्ति लिये आडीटोरियम में बिना किसी तकल्लुस के सहज तरोताज़ा पुरवाई की भांति प्रवेश कर गये.

तीसरे सत्र "गली -कूचे" का संचालन वरिष्ठ कथाकार राकेश मिश्र ने की.  प्रथम वक्ता के रूप में चंदन पाण्डेय ने कहा कि रवींद्र कालिया जी दूरदृष्टा थे.  कल्पना के पक्ष को भूल के सुधार के रूप में देखते थे. वह अपने स्वच्छंद जीवन में सदैव तनाव मुक्त रहे.   उनमें मुख्य विशषता यह थी कि वे असफलता को सफलता की दृष्टिकोण से देखते थे.  प्राय: यह व्यवहारिक जीवन से परे है फिर भी उनका यह सच उनकी तमाम रचनाओं में उत्सुकता वश स्वयं दृष्टिगोचर होते हैं.  आपने अपने कथा वस्तुओं में नवीनता को सामने रख कर नायक को पर्दे के पीछे करके ही केंद्र बिंदु को प्रकाशित किया है.  शिल्प में तारतम्यता को तीव्रतर गति प्रदान की है जो अपने आप में मील के पत्थर ही हैं.  राकेश मिश्र ने अपने संचालन के दौरान यह भी स्पष्ट किया कि कालिया जी ने अपने अदम्य साहस एवं सूझ-बूझ से अपनी कहानियों को भी मुहावरों में बदला है, जो कहानियों के आधुनिक युग को रेखांकित करता है, इसे किसी भी तरह भुलाया नहीं जा सकता है.

कहानीकार एवं आलोचक राजीव कुमार ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि कहानियों में जो अकहानी बनती है और उसमें सम्वेदना छाया की तरह साथ नहीं छोड़ती है, ऐसे शिल्प के विज्ञानी कालिया जी ही थे.  नई कहानी के दौर में तनाव केंद्र बिंदु में रहा जिससे हट कर कालिया ने एक नयी विधा खोजी जिसमें तनाव तो है परंतु प्रकट नहीं होता है.  यही कारण है कि वे अपने दौर के कहानीकारों के अग्रणी व प्रणेता बनकर उभरे.  “चाल” कहानी में भी तनाव होते हुये भी उसका नायक उसे पूरी सिद्दत के साथ जीता तो है पर वह पूरी तरह नकारते हुये तनाव मुक्त है.  इस प्रकार कालिया अपनी कहानियों में अनुपात को तुला बनाये रखने में सक्षम हैं.  उनकी कहानियों के प्रत्येक पात्र की वैचारिक और व्यवहारिक क्रियाकलापों को पूर्णरूपेण तनाव मुक्त/ स्वतंत्रता के अधिकार का निर्वहन करती है.   कहानी के पात्रों में समानता और सकारात्मकता का गुण उसको विशिष्टता प्रदान करती है.  इस प्रकार कालिया विभिन्न पात्रों को उनके चरित्र के प्रति सम्मान और जीवटता से भर देना उनके बायें हाथ का खेल ही था.

मनोज ने अपने वक्तव्य में कहा कि उन्हें कहानी से अटूट प्रेम था.  उन्होंने नये कहानीकारों  को आगे बढ़ने हेतु अनेक अवसर प्रदान करते रहे.  उनका कहना था कि “प्रतिभा ईश्वर देता है किंतु अवसर मनुष्य.”  इसे उन्होने अपने जीवन का बीज मंत्र ही मान लिया था’ यही एक कारण भी रहा होगा कि लोग उन्हें आज अपना आदर्श और प्रणेता मानते हैं.  उनकी पहली कहानी “नौ साल छोटी पत्नी” (वर्ष 1960 में) तो अंतिम कहानी.. “रूप की रानी चोरों का राजा” लिखी थी.  उन्होंने अपने सम्पादन कार्यकाल में स्वयं की कहानियों के पात्रों को भी दूरस्थ रखने में संकोच नहीं करते थे. मानवीयता के विरुद्ध कहानी को कभी पसंद नहीं किया.  उनकी कहानियों में सम्वेदना का तरल सोता अविरल रिसती रहती है.  आपने वर्तमान की अराजकता को भी बड़े रोचक ढ़ंग से विस्तारित किया है जो यथार्थवाद को समझने में महत्वपूर्ण है. उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि उन्हें मात्र ज़ुमले व मुहावरों के माध्यम से पूरी की पूरी ज़िंदगी को परिभाषित करने में महारत हासिल थी.  ऐसी ही एक कहानी “गरीबी हटाओ” अत्यंत मार्मिक है.  बर्तनों की बिडम्बनाओं को उन्होने व्यक्ति के अंदर उतारा है. उनका गद्य अद्भुत और प्रभावित करने वाला है.  जिसकी झलक “खुदा सही सलामत है” उपन्यास में निम्न वर्गों के सभी पात्रों में बाखूबी निभाया है. “सविनय अवज्ञा” को मुहावरे के रूप में स्तेमाल करके खूब ठहाके लगाया करते थे. यह कहते हुये मनोज अपनी हंसी रोक नहीं सके और उनके साथ ही पूरा का पूरा हाल खिलखिला पड़ा.

मोहम्मद आरिफ ने कहा कि आप अपनी रचनाधर्मिता के लिए सदैव समर्पित रहे और साथ ही साथ अपने कनिष्ठ रचनाकारों को भी प्रोत्साहित करते हुए उन्हे नया लिखने के लिये उकसाते भी रहते थे और तब तक चुप नहीं बैठते थे जब तक कि उनकी रचनायें मिल नहीं जाती थी.  उन्होने बताया कि एक बार उन्होंने उनसे पूछा कि आपके समकालीन चारो वरिष्ठ साहित्यकार (काशी नाथ, काशी नाथ सिंह, ज्ञान रंजन और स्वयं रवींद्र कालिया) अर्थात चारों यार में समानता क्या है?  तो उन्होंने ठहाका लगाते हुये कहा कि हम चारों पतले और लम्बें हैं.  अंत में आप ने कहा कि कालिया ने जिस नि:स्वार्थ भाव से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है,  उन्हें याद करने के साथ ही साथ उनको एक उत्कृष्ट पुरुस्कार से सम्मानित किये जाने पर भी विचार किया जाना चाहिये.

प्रियदर्शन मालवीय जी ने बताया कि कहानियों में खुराफात होने के बावज़ूद उनमें फकीरों के डेरों सी रौंनकें हैं.  आप पात्रों की विविधता में भी आश्चर्यजनक वैशिष्टता भर देते थे.  विभिन्न प्रांतों दिल्ली, पंजाब, मुम्बई के होने के बावज़ूद भी वे मूलत: इलाहाबाद से सम्बंध बताते थे.  प्रारम्भ में आप अखबार चलाया करते थे.  धर्मयुग पत्रिका के सम्पादक भी रहे.  आप बड़े गम्भीर प्रकृति के व्यक्ति थे.  आप बातों का पुलिंदा नहीं बस सार ही बोलते थे. जहां उनके जीवन में व्यवस्था के विरुद्ध अव्यवस्था हावी रही वहीं अनास्था के विरुद्ध विद्रोह भी परिलक्षित था, जो कालिया को बहुत खलता भी था.  जिन्हें कहानियों की ठोस धरातल पर रोचक ढ़ंग से प्रस्तुत भी किया.  लक्षणा और व्यंजना की बातों को कहानियों में जादूई रूप में विस्तारित किया.  संज्ञा को सीधे-सीधे न लिख कर उनके बिम्बों की भाषा- हिंदी, ऊर्दू, पंजाबी, अंग्रेजी आदि के शब्दों से छौंका लगा कर चौकाया ही है.  मालवीय जी कहते हैं कि जहां कहीं भी स्त्री पात्र/ चरित्र दृष्टिगोचर होते हैं, वह पाठकों को सदैव निराश ही करती हैं, जो उनकी स्त्रीत्व के प्रति कमजोरी को दर्शाता है.  इसके बावज़ूद भी आपने सभ्यता की समीक्षा करती कहानियां लिखी जो समाज पर विशेष प्रभाव डालती हैं.

श्रीप्रकाश शुक्ल जी ने रवींद्र कालिया की सरलता और सहजता को उजागर करते हुये कहा कि आपने कभी भी स्वयं को कैनवास पर लाने की कोशिश नहीं की.  अपना दर्द कभी किसी से न कह कर वे कहानियों और संस्मरण अथवा उपन्यासों के माध्यम से साझा किया करते थे.  आप बीती सुनाते हुये कहा कि यदि आप किसी लेखक अथवा कवि से मिलने जा रहे हैं तो यह जरूरी है कि आप उनकी रचनायें पढ़ कर ही जायें अथवा किसी प्रकार की घात या दुर्घटना भी घटित हो सकती है जिससे आपके सौभाग्य पर ग्रहण भी लग सकता है.  नई कहानियों में हास्य-व्यंग के माध्यम से समाज को जिस प्रारूप में उकेरते हैं, वह काबिले तारीफ है और नवोदित लेखकों के लिये मार्ग प्रशस्ति भी करता है.  ‘गौरैया’, ‘बुगनबेलिया’ जैसी कहानियों से आप  रूमानियत के शिकार हो जाते हैं.  आपकी भाषा में जुमले और मुहावरें भी नये-नये आकारों में बहरूपिया बन कर चकल्लस करते हैं...जैसे “तुम्हारे मुंह से दूध की बू आ रही है..” आपकी भाषा और कहन दोनों ही अतिसौम्य तथा संतुलित होकर शालीनता प्रदर्शित करते है.   आप विशेषता में आरोपित नैतिकता के विरुद्ध दृढ़ता से खड़े रहकर खिलाफत करते हुये दिखायी देते हैं.  भावों के प्रकटीकरण की परिपक्वता के साथ ही साथ अभिव्यक्ति व सम्प्रेषणीयता में भी आपकी उत्कृष्टता सिर चढ़ कर बोलती है.

अखिलेश भाई जी ने कहा कि कहानी के इतिहास की मीमांसा में रवींद्र कालिया का नाम अग्रणी व महत्वपूर्ण है.  आपने श्रेष्ठता के तमाम उपकरणों को कुशलता से उपयोग करके यह लक्ष्य हासिल किया है.  नयी कहानियों के प्रवर्तक बनकर उभरे हैं तथा हिन्द के साझी समाज की सभ्यता का चित्र बाखूबी रेखांकित किया है.  आपने बिना किसी हिचकिचाहट के खुला आसमान लिखा तो जड़ों में दफ्न दकियानूसी को भी उकेरा है.  ‘खुदा सही सलामत है” में बार-बार इसके चित्र पाठकों के हृदयपट्ल पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ते है.

तृतीय सत्र के अध्यक्षीय वक्तव्य में वीरेंद्र यादव जी ने बताया कि कालिया ने व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को बड़ी सूक्ष्मता से समझा है. नयी कहानियों और अकहानियों के बीच रहकर भी अपनी छवि, शैली और भाषा से अतिविशिष्ट ही हैं.  आप की कहानियों में भारतीय समाज का मिला-जुला जीवन निम्नस्तर का प्रतिनिधित्व करता है. .  ‘खुदा सही सलामत है” में गुलाब बाई और अज़ीजन नारीत्व के सशक्तिकरण की प्रतीक हैं. स्त्री को स्वयं की देह का अधिकार की इज़ाज़त न होना भी अति सोचनीय दर्शाया गया है.  राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में ‘खुदा सही सलामत है” को पढ़ा जाना चाहिये. समाज में देश में श्रमिकों और सामंतवादी ताकतों में सामंजस्यता व रचनात्मकता, वैचारिकता और विविधता में नवीनता को सार्थकता प्रदान करती है. जिसके लिये रवींद्र् कालिया सदैव याद किये जाते रहेंगें.

चौथे सत्र "सम्पादन" के लिये संचालन का दायित्व अजीत प्रियदर्शी भाई ने संभाला. चौथे सत्र के प्रथम वक्ता के रूप में प्रेम चंद्र जी ने कहा कि सर्वप्रथम आपने गंगा-जमुना अखबार का प्रकाशन किया जो इलाहाबाद शहर में काफी चर्चित रहा है, बाद में आप ने कहानी विशेषांक निकाला, जिसमें श्रेष्ठतर रचनायें प्रकाशित हुईं.  सम्पादन के रूप में आपके अंदर बेचैनी, तड़फ और उत्साह की हिलोरें सुनामी जैसी ही मौज़ूद थी.  नये कलेवरों की छाप को अद्वितीय आयाम दिया है. नये-नये प्रयोग नवीनता से उनका लगाव होना ही प्रदर्शित करता है.  उनके नज़रिये से मर्यादा शब्द रहस्य से भरपूर किंतु पूरी तरह अंदर से खोखली ही है.  सहिष्णुता एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है, वास्तव में मानव और मानवीयता को बचाये रखने हेतु सहिष्णुता का होना अनिवार्य है.  आपने राजेंद्र यादव के सम्पादन में “हंस” का एकाधिकार को खत्म किया.  बाज़ारवाद को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया. जब साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन की चर्चा होगी तो कालिया जी का नाम सर्वप्रथम स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा.

वंदना राग जी ने बड़ी मासूमियत से कहा कि टेलीफोन पर एक आवाज़ ने उनकी १०-१२ वर्षों के लेखन को संवार दिया.  मुझे तो जैसे पुनर्जीवन ही दिया है.  कालिया जी ने पूरी की पूरी पीढ़ी को खड़ा ही नहीं किया बल्कि उसे जोड़ने, सीचने और खाद देने का कार्य भी बाखूबी निभाया है.  मित्रता की कड़ियों को भी एक-दूसरे से जोड़ने व मज़बूती प्रदान करने में उनकी विशेष रुचि रहती थी.  आप प्रज्ञावान, जिजीविषा के धनी व उदार प्रकृति के कर्मठ व्यक्तित्व वाले सम्पादक थे.

विजय राय ने कहा कि कालिया जी कहानी की दुनियां के रत्नाकर ही थे.  पत्रिकाओं एवं अकहानी के प्रमुख स्तम्भ थे. उनके चार यार चारों दिशा के प्रतीक ही थे.  कहानी के क्षेत्र में सकरी गलियों-पगडण्डियों से होते हुये राजपथ पर आरुढ़ हुये थे.  वे अपने लिखन में छोटे-छोटे वाक्यों को अधिक महत्व दिया करते थे.  ज्ञानोदय पत्रिका का सम्पादन के समय उन्होंने कहा था कि बिना तोड़-फोड़् के कोई भी नया पथ सुगम्य नहीं  होता है.  योजना प्रिय सम्पादक होने के नाते ही उन्होने नये लेखकों में प्रेम और सहयोग के संवर्धन हेतु उन्हे उकसाया जिसके फलस्वरूप वे इस पीढ़ी के जनक कहे जाने योग्य हैं.

चतुर्थ सत्र के समापन के पूर्व अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में शैलेंद्र सागर कहा कि रवींद्र कालिया को उनकी पृष्ठभूमि में हूबहू वैसा ही जैसे कि वे थे को याद किये जाने हेतु इस लखनऊ की ऐतिहासिक नगरी में एक महत्वपूर्ण एवं अतिसराहनीय कार्यक्रम का आयोजन किया गया,  जिसके लिये मैं जलेस तथा तद्भव संस्था को तहेदिल से आभार प्रकट करते हुये हार्दिक धन्यवाद देता हूं. कालिया की अपनी कोई लड़ाई नहीं थी परंतु लेखकों के साथ खड़े रह कर उनकी लड़ाईया भी खुद ही लड़ते रहे थे. अपने पूरे जीवन काल में बिना किसी विशेष कारणों से भी वे कुशल सम्पादन करते रहे.  ऐसे तथागत सम्पादक शत-शत नमन व भाव-भीनी शृद्धांजलि अर्पित करता हूं.

अंत में श्री नलिन रंजन सिह ने कार्यक्रम में आये हुये समस्त गणमान्य साहित्यकारों एवं आमंत्रित सुधीजनों का धन्यवाद ज्ञापन किया तथा हृदयतल से आभार व्यक्त किया.

शुभ...शुभ

प्रस्तुतकर्ता 

केवल प्रसाद सत्यम

लखनऊ, दिनांक- १३.०३.२०१६

 

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