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आदरनीय तिलक जी ग़ज़ल के बारे में महत्वपूरण जानकारी देने के लिए धन्यवाद. मेरी एक समस्या है की मैं रदीफ़ काफिये का ध्यान रख लेता हूँ और मात्राएँ भी हर एक शेर में बराबर रख लेता हूँ , लेकिन बहर कैसे निर्धारित होती यह मेरी समझ से बाहर है, कृपा करके बताएँगे की मेरी इस ग़ज़ल की कौनसी बहर है और क्यों?
उसको भी कुछ शिकवा गिला होगा
मेरे संग कुछ और भी जला होगा
राख उडी तो होगी हवा के साथ
इक ज़र्रा उस दामन पे गिरा होगा
सामान तो सब बचा लिया गया होगा
नहीं वो, जो बदन से सिला होगा
मैनें घर जलाया रोशनी के लिए
कौन मुझ जैसा यहाँ दिलजला होगा
आज भी शाम ढल गयी होगी तन्हां
सूरज भी लाली से सना होगा
रुका होगा कुछ सोचकर मेरा यार
दो क़दम घर से ज़रूर चला होगा
रोजी पे गया सो बेखबर होगा
मस्त है जो मखमल पे पला होगा
बह्र के बारे में पहली बात जो समझना जरूरी है वह यह है कि बह्र में कुल मात्रायें नहीं मात्रिक क्रम का पालन करना होता है। दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्ष रूप में कभी कभी मात्रिक असमानता दिख सकती है लेकिन ऐसा तभी होता है जब शायर से बह्र के पालन में चूक हुई हो या बह्र के प्रति सावधान रहते हुए भी उसे मात्रा-संतुलन का ज्ञान हो यानि कहॉं मात्रा गिराकर पढ़ना है और कहॉं उठा कर। ग़ज़ल में यह अंश सबसे बाद में सीखने का होता है। आरंभ में ही इसकी आदत पड़ गयी तो शायर में शेर पर मेहनत की आदत का विकास नहीं हो पाता है।
अब आपकी ग़ज़ल पर लौटें तो स्पष्ट दिख रहा है कि मात्रिक क्रम का इसमें अभाव है। आप अगर नये हैं तो कोशिश करें कि किसी अच्छे शायर की ग़ज़ल को आधार बनाकर ग़ज़ल कहें।
तिलक जी,
कल संडे है :)
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