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किराये के रिशते (लघुकथा)

किराये के रिश्ते
रात भर नींद नहीं आई, और सुबह होते ही वह पार्क में आ गया। कल शाम को आए फोन से पैदा हुई समस्या अभी सुलझ नहीं रही थी । चाहे कोई हल नज़र नहीं आ रहा, मगर इस समस्या को हल किये बिना छोड़ा भी नहीं जा सकता। आख़र उनका है भी कौन है,जो सात समंदर पार हैं, मगर  इस बार महिंदरो उसकी बात से सहमत नहीं हो रही थी । उसका कहना कि “क्या करेंगे वहाँ जा कर हम, आप तो फिर भी यहाँ वहाँ घूम आते हो,मगर मैं ........",कह कर महिंदरो चुप हो गई।
"मैं तो वहाँ अकेली अंदर बैठी कैसे रह सकती हूँ, न कोई बात करने को न कोई मिलने आये, आदमी को खाना ही तो नहीं खाना खुरली में बंधे जानवर की तरह, यहाँ तो फिर भी .........।
हमें उनके लिए नहीं अपने लिए भी जीना है, इस उम्र में ।"
धीरे धीरे चारों तरफ़ रौशनी फैल गई, तब उसको महिंदरो ने आवाज़ लगाई सुनना, “टिकटें भेज दी हैं अब तो, तब वह महिंदरो के पास आ बैठ गया। दोनों इक दूसरे को और फिर जमीन की तरफ देखने लगे ।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by TEJ VEER SINGH on May 26, 2018 at 12:23pm

हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन जी। बेहतरीन लघुकथा।

Comment by Neelam Upadhyaya on May 24, 2018 at 2:58pm

आदरणीय मोहन जी, नमस्कार।  विभिन्न संस्कृतियों में रह रहे परिवार की पीढ़ियों के बीच का अंतर झळकाती बहुत ही बढ़िया लघुकथा।   बधाई स्वीकार करें। 

Comment by babitagupta on May 24, 2018 at 1:55pm

बुजुर्गों की बेटों के घर बेमन से रहने की मनोस्थिति बयाँ की हैं,आधे अधूरे वाक्यों में सब कुछ वयां कर देती हैं,बहुत ही ह्रदय स्पर्शीय लघुकथा.प्रस्तुत रचना पर बधाई स्वीकार कीजिए आ.सर जी.

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