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जीभ ख़ुद की है तो दांतों से दबा भी न सकूँ
कैसे खामोश रहे इस को सिखा भी न सकूँ
उनका वादा है कि ख़्वाबों में मिलेंगे मुझसे
मुंतज़िर चश्म को अफसोस सुला भी न सकूँ
तश्नगी देख मेरी आज समन्दर ने कहा
कितना बदबख़्त हूँ मैं प्यास बुझा भी न सकूँ
मेरे रस्ते में जो रखना तो यूँ पत्थर रखना
कोशिशें लाख करूँ यार हिला भी न सकूँ
यहाँ तो सिर्फ अँधेरों के तरफदार बचे
छिपा रक्खा है, चराग़ों को , जला भी न सकूँ
आपके झूठ रहे पर्दे में ये हसरत थी
पर हूँ मज़बूर कि आईना छिपा भी न सकूँ
ज़ह’न ए नाबीना लिये आये हैं महफिल में उन्हें
सख्त मुश्किल है कि आईना दिखा भी न सकूँ'
ख़ुदी पर जिसका यक़ीं हो नहीं वो कहता है
"ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ ‘’
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
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