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अथ से अभी तक जो जैसा मिला

सर माथे ले कर के जीते रहे

विधाता की झोली सुदामा भी हो गयी

तो बन कर के कान्हा सीते रहे

गिला है न शिकवा ज़माने से

कोई तकदीर से भी तकाज़ा नहीं

जीना कही जब ज़हर भी हुआ

तो मीरा बने प्याले पीते रहे

इन्द्रधनुष दिया कुरुक्षेत्र पाया

सत्ता से सत्ता की पायी लड़ाई

सिंहासन से चस्पा वफादारी देखी

 विदुरों के तरकश तो  रीते रहे

जतनों से बुनचुन जो सपना संजोया

तकिये बेचारे ने रातों को खोया

दहले दिवस और रातें रोई

तो पल पल यूं भी पिघलते रहे

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by amita tiwari on September 24, 2016 at 4:53pm

मान्य सुरेश जी 

आभार 

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 22, 2016 at 5:25pm
आदरणीया अमिता तिवारी जी बहुत ही सुन्दर एवं सारगर्भित रचना के लिए हार्दिक बधाई । सादर ।

कृपया ध्यान दे...

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