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कुण्डलिया

[१]

साज़िश की ही बात में, बहके नित्य सुगंध.
फूलों से कहते रहे, बस तुमसे सम्बंध.
बस तुमसे सम्बंध, नहीं भौरों से रिश्ता.
पीकर वह मकरंद, चंद्र को समझे पिस्ता.
नित्य प्रभा का लाल, सृष्टि की करता पालिश.
मगर दिवा अवसान, रात्रि मिल रचती साजिश.


[२]

आंखों के आंसू बहे, जैसे गंगा नीर.
अधरों ने झट पी लिये, जैसे पियें फकीर.
जैसे पियें फकीर, व्यर्थ नहि बात बढ़ाते.
औरों का सुख देख, स्वयं ही दुख पी जाते.
कहतीं नदिया ताल, सदा सबका मन राखो.
दीन - हीन संसार, देखता है इन आंखो.


मौलिक व अप्रकाशित
रचनाकार ..... केवल प्रसाद सत्यम

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Comment by गिरिराज भंडारी on June 26, 2016 at 8:55pm

आदरनीय केवल भाई , दोनो कुन्दलियाँ अच्छी लगीं , बधाइयाँ स्वीकार करें ।
 पालिश शब्द का उपयोग सही है क़्या ?

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on June 26, 2016 at 9:12am
सुंदर कुण्डलिया छंद के लिए सादर हार्दिक बधाई आदरणीय।
Comment by Shyam Narain Verma on June 25, 2016 at 12:50pm
सुन्दर कुंडलिया छंद रचना के लिए हार्दिक बधाई   सादर 

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