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2212 2212 22
कितना कहूँ सपना अधूरा है
मन तो महज अपना जमूरा है।1

लगता रहा तबसे हुआ मन का
होता कहाँ पर चाँद पूरा है?2

इक खूबसूरत-सी अदा ने तो
बनकर बला हर बार घूरा है।3

चाहा कभी नभ ने जमीं मिलती
छिटकी रही ठगता कँगूरा है।4

बस देखता चलता नदी में चुप
जो है छला शशि अक्श पूरा है।5

पिसती गयी है तिष्णगी रस की
निकला कहाँ यूँ आज बूरा है।6

कितनी मनौव्वल हो गयी अबतक
दिल तो रहा बदरंग भूरा है।7
मौलिक व प्रकाशित@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on March 2, 2016 at 9:55am
आभा र आपका आदरणीय गिरिराज भाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 1, 2016 at 9:06pm

आदरणीय मनन भाई , अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

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