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सिसकते दीये - (लघुकथा ) -

 सिसकते दीये  - (लघुकथा ) -

शंकर कुम्हार की जब से टांग टूटी थी, सारी घर गृहस्थी बिखर गयी थी!घरवाली दमा की मरीज़ , बेटा छोटू महज़ पांच साल का, कौन चलाये घर के खर्चे!त्यौहार सिर पर ! त्यौहार मनाना तो दूर ,रोज़मर्रा के खर्चे पूरे नहीं पड रहे थे!

शंकर ने  जैसे तैसे थोडे से छोटे बडे मिट्टी के दीपक बनाये थे कि  त्यौहार पर बेच कर चार पैसे आजायेंगे तो दीवाली ठीक ठाक मन  जायेगी! छोटू को बडी मुश्किल से ,दस रुपये रोज़ देने का लालच देकर दीपक बेचने भेजा!छोटू भी खुश था कि सौ दो सौ रुपये कमा लूंगा तो दीवाली पर नयी कमीज़ लूंगा!

छोटू पांच दिन बैठने के बाद भी मक्खियां ही मारता रहा! ग्राहकों का नामो निशान नहीं था! अब केवल एक दिन बचा था दिवाली में! बिक्री होती ना देख छोटू का चेहरा भी दिन पर दिन मुरझा रहा था!उसके दुखी चेहरे को देख उसके दीपकों के भी मुंह लटक गये थे!रही सही कसर सामने दुकानों पर लटकी , रोशनी से जगमगाती  चायना की लडियों और झालरों ने कर दी! जो छोटू और उसके दीपकों को मानो चिढा चिढा कर कह रही थीं,

 “जाओ भाई घर जाओ ,  इन बाज़ारों में तुम्हारी कोई पूछ  नहीं, अब यहां हमारा राज  है"!

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by TEJ VEER SINGH on November 8, 2015 at 10:12am

हार्दिक आभार आदरणीय ओमप्रकाश  जी!आपके द्वारा लघुकथा की विवेचनात्मक समीक्षा मेरे लिये एक प्रेरणा सूत्र का कार्य करती है!पुनः आभार!

Comment by Omprakash Kshatriya on November 7, 2015 at 3:50pm

आदरणीय तेज वीर जी अच्छी लघुकथा वही होती है जो यथास्थिति का चित्रण कर दे साथ ही कुछ सोचने को मजबूर  करे. आप की इस लघुकथा में कथ्य भी है और तथ्य भी. बधाई आप को इस सुन्दर लघुकथा के लिए.

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