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नये साल का मौसम आया (नवगीत) // --सौरभ

नये साल के नये माह का
मौसम आया..
लेकिन सूरज भौंचक
कितना घबराया है !

चटख रंग की हवा चली है
चलन सीख कर..
खेल खेलती, बंदूकों के राग सुनाती
उनियाये कमरों में बच्चे रट्टा मारें
पंथ-पृष्ठ की तहरीरों से
’वाद’ सिखाती

मंतव्यों में तथ्य नहीं, बस तेरा-मेरा,
सत्य वही जो
सबसे जबरन मनवाया है !

सरसाता है ख़ौफ़
उजाला झींसी-झींसी
अगला करे सवाल-- ’पंथ के नाम उचारें..’
यह कैसा संभाव्य,
देह बारूद-छुई ले,
सहमे-सहमे लोग
बाड़ में बने कतारें.

नया सवेरा कैसा,
जब आशाएँ सोयीं..
हृदय हूक से भरा हुआ फिर
बह आया है !

किन मूल्यों को प्रात समेटे
बहका आया
उन्मादों की हनक,
क्रोध के चिह्न भाल पर.
सिर की गिनती मात्र लक्ष्य हो
यदि चिंतन का
लानत ऐसे किसी क्रोध
या वाक्-जाल पर !  

चिता-दग्ध है
किन्तु, क्षार है, सम्यक उर्वर
लिए ओस नम तभी हरा
मन रह पाया है !
**************************
-सौरभ
**************************
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 774

Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2014 at 12:09am

आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपने जिन शब्दों में इस नवगीत प्रस्तुति को सम्मानित किया है वह मुझे लगातार विश्वस्त कर रहा है.

आदरणीय उनियाना उनींदेपन को कहते हैं. अतः उनियाये कमरे का मतलब ऐसे कमरे जिनमेम् उनींदापन हावी हो. यानि पंक्ति के अनुसार, ऐसे कमरों का जिक्र हुआ है जिनमें उनींदापन हावी है लेकिन बच्चों को रट्टा-रट्टा मार कर स्मरण करने केलिए बाध्य किया गया है.

रचना को मान देने के लिए सादर धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2014 at 12:08am

भाई नीरज प्रेमजी, आपकी आत्मीयता ने हृदय को सदय प्रेम से आप्लावित कर दिया है. आपके अनुमोदन से रचना विशेष स्तर की हो गयी है, भाई.
हार्दिक धन्यवाद स्वीकारें.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2014 at 12:08am

आदरणीय विजय शंकरजी, आपके अनुमोदन से विश्वास और बढ़ा है.
सादर धन्यवाद..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2014 at 12:08am

आपको मेरा प्रयास रुचिकर एवं प्रेरक लगा. यह मेरेरचनाकर्म के लिए एक सकारात्मक प्रतिसाद सदृश है, आदरणीय मिथिलेशभाईजी..
हार्दिक धन्यवाद

Comment by mrs manjari pandey on December 19, 2014 at 7:51pm
नए साल का बड़ा खुशनुमा चटख मौसम है. । बधाई आदरणीय सौरभ जी ।
Comment by Shyam Narain Verma on December 19, 2014 at 12:39pm

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... सादर बधाई

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 19, 2014 at 10:56am

आ0  सौरभ जी

नये साल में जब . सूरज भौंचक घबराया है ! तब देश का क्या होगा I

उनियाये कमरों में बच्चे रट्टा मारें
पंथ-पृष्ठ की तहरीरों से
’वाद’ सिखाती -------------------------आतंकवाद की शिक्षा तो नहीं क्योंकि यहाँ ही ,सत्य वही  जो सबसे जबरन मनवाया है !

बारूद छुई देह ले सहमे सहमे लोग  अपनी नियति और् तंत्र  से मजबूर

किन मूल्यों को प्रात समेटे
बहका आया
उन्मादों की हनक,
क्रोध के चिह्न भाल पर.
सिर की गिनती मात्र लक्ष्य हो
यदि चिंतन का
लानत ऐसे किसी क्रोध
या वाक्-जाल पर !------------------------------------ अद्भुत ------अद्भुत

मन के ऐसे हरे पन से क्या होना है ---  आशावाद ----क्या निरर्थक ?

सादर उनियाये का अर्थ जानने की अपेक्षा है  i कही  ऊन से सम्बंधित तो नहीं  i  अनिवर्चनीय प्रस्तुति i सादर i

Comment by Neeraj Nishchal on December 19, 2014 at 9:07am

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी मुझमेँ अभी इतनी समझ तो नहीँ है कि मै आपकी रचना का ठीक ठीक आँकलन कर पाऊँ पर आपके शब्दोँ का चयन , सूक्ष्म से सूक्ष्म और सामान्य दृश्योँ का चित्रण , वर्तमान के साथ ले आती हर पंक्ति हमेँ अपने आस पास आँखे खोल कर देखने को प्रेरित करती है बहुत अद्भुत बहाव जैसे भूत और भविष्य के बंधनोँ से आजाद कर वर्तमान की धारा मेँ हमेँ बहा ले जाती हुयी । आपको बहुत बहुत बधाई बधाई प्रेषित करता हूँ बहुत बहुत शुभकामनायेँ ।

और अंत मे

खता इतनी है अपनी हैसियत भुला देता हूँ ।
दीपक हूँ और सूरज को दुआ देता हूँ ।

Comment by Dr. Vijai Shanker on December 19, 2014 at 3:59am
मंतव्यों में तथ्य नहीं, बस तेरा-मेरा,
सत्य वही जो
सबसे जबरन मनवाया है !
भावपूर्ण , अर्थपूर्ण सामयिक रचना , बहुत बहुत बधाई, आदरणीय सौरभ पांडे जी , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 19, 2014 at 3:46am

बहुत ही भावपूर्ण रचना आदरणीय सौरभ पांडे सर ... समसामयिक घटना से प्रेरित और उसके मर्म को व्यक्त करती  किन्तु एक कालजयी रचना ... आपको नमन आपकी कलम को नमन ...

नवगीत आपसे ही सीख रहा हूँ . मैं भी प्रयास करता हूँ.

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