जब से उस युवा चींटे के पँख निकले थे वह हवा बातें करने लगा था. उसने सभी परिजनों और मित्रजनो पर अपने नए नए निकले पँखों का रुआब डालना शुरू कर दिया था, उसका आत्मविश्वास देखते ही देखते आत्ममुग्धता का रूप धारण कर गया। इस बदले हुए स्वरूप को देख देख उसकी माँ रूह तक काँप जाती. लाख समझाने पर भी बेटा यथार्थ के धरातल पर आने को तैयार न हुआ तो एक दिन बूढ़ी माँ ने अपनी बहू को सफ़ेद जोड़ा देते हुए भरे गले से कहा "इसे अपने पास रख ले बेटी।"
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
दिल से शुक्रिया अग्रज लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला जी.
आ० लक्ष्मण धामी जी, रचना के मर्म को समझने और मेरे प्रयास को सराहने के लिए दिल से आभार।
सादर आभार आ० विनय कुमार सिंह जी.
रचना पर आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु सादर आभार भाई जितेंद्र जी.
धन्यवाद प्रिय गीतिका, लेकिन माँ की बात समझी कहाँ गई ? तभी तो सफ़ेद जोड़े की नौबत आ गई.
आ० राजेश कुमारी जी, यहाँ माँ एक प्रतीक है. प्रतीक है एक प्रौढ़ सोच की, घर/समूह के ज़िम्मेवार मुखिया की जिसे खुशफहमो के अंजाम का भली भांति अंदाजा है. बहरहाल, आपकी सराहना से बेहद ख़ुशी हुई. आपकी गुणग्राहकता और सदशयता का दिल से आभार।
आप ने बिलकुल सही फ़रमाया आ० विंदू जी, यही आत्ममुग्धता मेरी इस रचना का केंद्र बिंदु है. रचना पसंद करने के हार्दिक आभार।
सादर धन्यवाद आ० मंजरी पाण्डेय जी.
आ० नादिर खान जी, भले ही लघुकथा में एक विशेष क्षण की बात होती है लेकिन यह अक्सर अपने अंदर एक पूरा उपन्यास समाये हुए होती है. आपको लघुकथा आई, आपका दिल से शुक्रिया।
आ० डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, रचना को समय देने और मान बख्शने हेतु दिल से शुक्रिया। ओबीओ पर हम दूसरे से ही तो सीख रहे हैं.
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