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छान्दसिक आनन्द की गति में हुलस कर

 

छान्दसिक आनन्द की गति में हुलस कर

(मधु गीति सं. १६२२, दि. ७ जनवरी, २०११)

 

छान्दसिक आनन्द की गति में हुलस कर, मिलन की अभिव्यंजना से विदेही उर;

व्याप्ति की सब तोड़ सीमा व्यक्त होता, विस्मरण लय विलय करता प्रकट होता.

 

प्रस्फुरण औ प्रस्फुटन उर सदा होता, आचरण में सूक्ष्म होकर सुर प्रकटता;

प्रफुल्लित हो प्रमा फुर कर नृत्य करता, विश्व का कल्याण करता जग विहरता.

ध्वनि जगाता राग गाता गीत रचता, मन्त्र देता तन्त्र वरता जगत तरता;

उरों के हर अंजुमन स्फुरण करता, सुरों की सरिता बहा स्मरण करता.

 

चिर प्रयोगी नित वियोगी गति रमता, बृह्म के आनन्द को जग बाँट चलता;

विरह उर में रख सदा संयोग करता, राह अपनी चले चलता विलय होता.

रुढियों में ना वो रमता सहज रहता, बेड़ियों को तोड़ चलता ध्यान करता;

मर्म ‘मधु’ का समझ लेता धर्म उर धर, कर्म करता सुर सुनाता चले प्रभु उर.

 

 


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