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!!! नवगीत !!!

अंधेरों सी घुटन में, जमीं के टूटते तारे।

सहम कर बुदबुदाते, बिफर कर रो रहे सारे।।

उजालों ने दिए हैं, घोटालों की निशानी।

दिए हैं झूठ के रिश्ते, फरेबी तेल की घानी।

जली है अस्मिता बाती, हुए हैं ताख भी कारे।

नजर की ओट में रहकर, नजर की कोर भी पारे।।1

सलोना  चॉद सा मुखड़ा,  चॉदनी पाश के पट में।

छले जनतन्त्र अक्सर अब, नदी तरूणी लुटे पथ में।

तड़फती रेत सी समता, पवन में खोट है सारे।

जमे हैं पाव शकुनी के, धर्म भी नारि सत हारे।।2

उबासॉसी सहे सागर, बढ़ी तकरार सी गर्दिश।

चिढ़ाती मुह  तभी सर्दी, कहर से तंग है वर्जिश।

पड़े हैं नग्न सड़को पर, हाड़ की झाड़ झनकारे।

गरीबी भी गजब गहना, भूख औ प्यास को मारे।।3

विकासो की कहानी बस, तमाशों तक रहे सीमित।

कठिन है शब्द-लफ्जों मे, बयां करना हकीकत-हित।

तराशा   जो   शहीदो   ने,  धर्म   का   देश   ललकारे।

मगर यह सूर्य पश्चिम का, अब संस्कृति ज्ञान उघारे।।4

के0पी0सत्यम मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 7, 2014 at 7:12pm

आ0 सरिता जी, मीना जी, सविता जी, अरून अनन्त, भण्डारी भार्इजी  आप सभी का बहुत बहुत हार्दिक आभार। सादर,

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 9, 2014 at 12:21pm

आदरणीय केवल भाई जी वर्तमान परिवेश को ध्यान में रखते हुए बेहद भावपूर्ण नवगीत रचा है आपने अंतिम पंक्तियों में शब्द चुनाव के कारण मुझे प्रवाह बाधित लगा. खैर इस नवगीत पर बधाई स्वीकारें.

Comment by savitamishra on January 9, 2014 at 10:44am

बहुत सुन्दर


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Comment by गिरिराज भंडारी on January 8, 2014 at 9:26pm

आदरणीय केवल भाई , बहुत सुन्दर गीत की रचना की है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

Comment by Meena Pathak on January 8, 2014 at 3:50pm

सुन्दर नव गीत .. बहुत बहुत बधाई 

Comment by Sarita Bhatia on January 8, 2014 at 9:32am

बहुत उम्दा 

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