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ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

ग़ज़ल
बहर-।ऽऽऽ ।ऽऽऽ
.
कभी ख़ुद से रफ़ाक़त हो।
ज़रा शिकवा-शिकायत हो॥
.
ख़ुशी के साज़ खो जाएँ,
बड़ी बोझिल तबीयत हो।
.
अदाओं में हो बेअदबी,
निगाहों में हिक़ारत हो।
.
कसकती हों कहीं टीसें,
कहीं बेजा हरारत हो।
.
सरे-बाज़ार लुट जाएँ,
ज़रा ऐसी तिजारत हो।
.
दुआ के चार बोलों में,
अनुष्टुप हो न आयत हो।
.
डगर लंबी,सफ़र तन्हा,
यही अपनी विरासत हो।
.
ग़ज़ल में ढल सकें आँसू,
फ़क़त इतनी इनायत हो॥
.
-मौलिक एवं अप्रकाशित।
-24.12.2013

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Comment

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Comment by Ravi Prakash on December 27, 2013 at 6:21pm
धन्यवाद आ॰ श्याम वर्मा जी।
Comment by Ravi Prakash on December 27, 2013 at 6:19pm
सराहना तथा उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद सारथी जी। स्नेह बनाए रखें॥
Comment by Shyam Narain Verma on December 27, 2013 at 4:12pm
बहुत खूब ॥ आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
Comment by Saarthi Baidyanath on December 27, 2013 at 3:22pm

क्या शानदार छोटे बह्र में ग़ज़ल कही है जनाब ...काबिले तारीफ़ है हर शेर ...वाह वाह ! बहुत बढ़िया 

कसकती हों कहीं टीसें,
कहीं बेजा हरारत हो

सरे-बाज़ार लुट जाएँ,
ज़रा ऐसी तिजारत हो......लाजवाब है रवि प्रकाश साहब ...वाह 

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