ढूँढती है एक चिड़िया
इस शहर में नीड़ अपना
आज उजड़ा वह बसेरा
जिसमें बुनती रोज सपना
छाँव बरगद सी नहीं है
थम गया है पात पीपल
ताल, पोखर, कूप सूना
अब नहीं वह नीर शीतल
किरचियाँ चुभती हवा में
टूटता बल, क्षीण पखना
कुछ विवश सा राह तकता
आज दिहरी एक दीपक
चरमराती भित्तियाँ हैं
चाटती है नींव दीमक
आज पग मायूस, ठिठके
जो फुदकते रोज अँगना
भीड़ है हर ओर लेकिन
पथ अपरिचित, साथ छूटा
इस नगर के शोर में अब
नेह का हर बंध टूटा
खोजती है एक कोना
फिर बनाये ठौर अपना
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय गिरिराज जी मैं अपनी रचनाओं में छूट लेने की प्रथा से बचने का ही प्रयास करता हूँ. इस शब्द पर मैं बहुत देर तक अटका रहा. पूरी संतुष्टि के बाद ही इसे इस रूप में प्रयोग किया. ये एक आंचलिक शब्द है और आंचलिक शब्द की वर्तनी क्षेत्र विशेष के उच्चारण से निर्धारित होती है. कहीं कहीं डेहरी भी बोलते हैं. जिस पंक्ति में ये शब्द प्रयोग हुआ है मैंने पहले उस शब्द से ही उस पंक्ति की शुरुआत की थी लेकिन शिल्प में मेरा उच्चारण सही न बैठने के कारण इसका स्थान बदला कर वर्तमान जगह पर प्रयोग किया गया.
यहाँ मैं अपनी सोच को स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि देशज शब्द की वर्तनी उच्चारण पर निर्भर करती है.
जहाँ तक शहर या बहर जैसे शब्दों की बात है तो ये विवाद भाषा जनित है. हिंदी में शहर ही लिखा भी जाता है और बोला भी जाता है. उर्दू में क्या बोलते हैं या लिखते हैं इससे हिंदी में वर्तनी निर्धारण नहीं हो सकता. ग़ज़ल के नाम पर हिंदी का गला उर्दू उच्चारण के शोर से रूंधने की कोशिशों का मैं विरोध करता हूँ. हर भाषा की अपनी विशेषता होती है पर एक भाषा की दखल दूसरी भाषा तक नहीं पहुँचने देनी चाहिए.
फिर कहूँगा देशज बोलियाँ हिंदी का अंग हैं. उनकी वर्तनी उच्चारण के आधार पर निर्धारित होती है और तदनुसार छूट की भी सीमा है. उर्दू या किसी भी भाषा के शब्द हिंदी ने ग्रहण किये हैं, तो जिस रूप में ग्रहण किये हैं, उसी रूप में स्वीकार होंगे वहां छूट की सम्भावना नहीं है. 'मेरे' को 'मिरे' नहीं ही स्वीकार किया जा सकता.
सादर!
आदरणीय नीरज भाई , मेरा उद्देश्य त्रुटि निकानला नही है , न ही मै इस लायक हूँ ! मेरे पूछ्ने के पीछे दो कारण है ---
1 - आप अब ऐसी जगह है जहाँ आपका लिखना दूसरे नव लिखने वालों के लिये रास्ता बना देता है , लोग आपका अनुसरण कर सकते हैं , मै तो आपकी रचना मे कही बात समझ के संतुष्ट हूँ !!!!
2- जब उर्दू के शब्द जो कि खूब प्रचलित भी है , जैसे शहर , जहर आदि फिर भी चूंकि असली शब्द शह्र और ज़ह्र है , शहर और जहर का उपयोग मान्य नही है ! तो हम अपनी हिन्दी भाषा के शब्दों प्रति क्यों इमानदारी न रखें !!! दिहरी भी मुझे वैसे ही स्वीकार है जैसे देहरी !!!! लेकिन पगडंडी बनेगी तो लोग उसपे चलेंगे ज़रूर !!!!
आदरणीय नादिर साहब आपका बहुत बहुत आभार!
आदरणीया गीतिका जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय आपने सही सोचा! दिहरी लिखने में क्या समस्या है? इस शब्द पर मैं करीब २ घंटे अटका रहा. हर बार उच्छारण में शब्द इसी रूप में आ रहा था, इसलिए इस रूप में लिखा त्रुटि हो तो बताएं!
आदरणीय सुनील जी आपका हार्दिक आभार! मेरी रचना पर आपकी उपस्थिति देखकर मन प्रसन्न हो गया!
आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय राहुल भाई आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय श्याम नारायण जी आपका हार्दिक आभार!
भीड़ है हर ओर लेकिन
पथ अपरिचित, साथ छूटा
इस नगर के शोर में अब
नेह का हर बंध टूटा
खोजती है एक कोना
फिर बनाये ठौर अपना....
सुंदर ..सुंदर ... अतिसुन्दर ...
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