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गजल: याद आता है वो धड़कन का सुनाई देना//शकील जमशेदपुरी//

बह्र— 2122/2122/2122/22

थाम के कांधे को हाथों में कलाई देना
याद आता है वो धड़कन का सुनाई देना

प्यार ने जिसके बना डाला है काफिर मुझको
ऐ खुदा उनको जमाने की खुदाई देना

तरबियत आंसू की कुछ ऐसे किया है हमने
अब तो मुश्किल है मेरे गम का दिखाई देना

याद आती है जुदाई की घड़ी जब हमको
तो शुरू होता है चीखों का सुनाई देना

बिन तेरे खुश रहने का इल्जाम था सिर मेरे
काम आया मेरे अश्कों का सफाई देना

जब भी रूठा हूं मनाती है वो ऐसे मुझको
रोते बच्चे को किसी मां का मिठाई देना

हाल इसने यूं बना रक्खा है बंदी की तरह
कैद से अपने मेरे दिल को रिहाई देना

-शकील जमशेदपुरी

___________________________

*मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by अरुन 'अनन्त' on October 13, 2013 at 5:26pm

ग़ज़ल पर पुनः आने के बाद एक शे'र में कमी लगी ग़ज़ल में दोष है.

बिन तेरे खुश रहने का इल्जाम था सिर मेरे
काम आया मेरे अश्कों की गवाही देना .. इसके काफिया में यदि ई निकाल दें तो गवाह बचेगा जबकि अन्य काफिये में ऐसा नहीं हो रहा है.

Comment by शकील समर on October 13, 2013 at 5:26pm

दुरुस्त फरमाया आदरणीय गिरिराज भंडारी जी.......इस्लाह के लिए आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 13, 2013 at 5:21pm

आदरणीय . काफिया ---- कलाई , सुनाई , खुदाई मे आ ई निभाई गई है के वल नही है !!!! सादर !!!!

Comment by शकील समर on October 13, 2013 at 5:14pm

आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी
लिखते वक्त मेरे मन में भी दुविधा थी। पर चूंकि ई की मात्रा निभ रही थी, इसलिए मुझे लगा कि ये सही हो। अगर इसमें कोई बारीकी हो तो मुझे जानकारी नहीं है। आपसे निवेदन है कि अगर आप इस्लाह कर सकें तो आभारी रहूंगा।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 13, 2013 at 5:02pm

बिन तेरे खुश रहने का इल्जाम था सिर मेरे 
काम आया मेरे अश्कों की गवाही देना...आदरणीय बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई ..जिज्ञासा बस एक बात थी  काफिया में ई है पर इस शेर में ही का प्रयोग हुआ है ..अंत में ई ई आ रहा है सही भी लग रहा है ...लेकिन मन दुबिधा में है ..सादर बधाई के साथ 

Comment by शकील समर on October 13, 2013 at 4:40pm

आदरणीय अरुन शर्मा 'अनन्त' साहब

आपको गजल पसंद आया इसके लिए आभार आपका। यदि शिल्प के स्तर पर कहीं कोई कमी हो तो कृप्या इस ओर जरूर ध्यान आकृष्ट कराएं। सादर।

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 13, 2013 at 4:35pm

आदरणीय शकील भाई बेहतरीन ग़ज़ल हुई है सभी अशआर पसंद आये खास इस शेर हेतु विशेषतौर से दाद कुबूल फरमाएं.

जब भी रूठा हूं मनाती है वो ऐसे मुझको
रोते बच्चे को किसी मां का मिठाई देना वाह वाह

Comment by शकील समर on October 13, 2013 at 4:00pm

आभार आपका आदरणीय गिरिराज भंडारी जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 13, 2013 at 3:58pm

आदरणीय शकील भाई , लाजवाब गज़ल कही है !!!! वाह वाह !!!! मतला भी बहुत शानदार है !!

थाम के कांधे को हाथों में कलाई देना
याद आता है वो धड़कन का सुनाई देना ---------- ढेरों दाद कुबूल करें !!!

Comment by शकील समर on October 13, 2013 at 3:26pm

आपको अशआर पसंद आए इसके लिए बहुत—बहुत आभार आपका आदरणीय अभिनव अरुण सर। कृपा दृष्टि बनाए रखिएगा।

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