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कविता : मैं रसिक लाल, तुम फूलकली

आदरणीय गुरुजनों, अग्रजों, मित्रों एवं प्रिय पाठकों आप सभी को सादर प्रणाम. भौंरा और फूल पर आधारित उनके मिलन एवं विरह पर एक कविता लिखने का छोटा सा प्रयास किया है, आशा है आप सभी को पसंद आएगा.

रसिक लाल = भौंरे का नाम

मैं शुष्क धरा, तुम नम बदली.

मैं रसिक लाल, तुम फूलकली.

तुम मीठे रस की मलिका हो,

मैं प्रेमी थोड़ा पागल हूँ.

तुम मंद - मंद मुस्काती हो,

मैं होता रहता घायल हूँ.

मेरा तन काला, तुम मखमली.

मैं रसिक लाल, तुम फूलकली.

जब ऋतु बसंती बीत गई,

तब तेरी मेरी प्रीत गई.

तुम मुरझाई मैं टूट गया,

मौसम मतवाला बीत गया.

नैना भीगे मुस्कान चली

मैं रसिक लाल, तुम फूलकली..

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 23, 2013 at 9:50am

आ0 अरून जी,  सादर प्रणाम!  सुन्दर प्रस्तुति।  सादर बधाई स्वीकार करें।

Comment by satish mapatpuri on April 23, 2013 at 2:00am

फूल और भौंरा ...  प्रेमी - प्रेमिका के प्रतीक हैं . इन्हें लेकर आपने एक सुन्दर काव्य - चित्र प्रस्तुत किया है . बधाई अरुण जी . आप अन्यथा न लेंगे , यह रचना आपसे कुछ और समय और श्रम मांगती है .

Comment by coontee mukerji on April 22, 2013 at 9:25pm

अरून जी , आपने बहुत सुंदर सरस पदों की रचना की है .श्रृगार रस से ओत प्रोत . बहुत बधाई . सादर ,कुंती .

Comment by manoj shukla on April 22, 2013 at 7:45pm
इस सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकार करें आदर्णीय
Comment by Vindu Babu on April 22, 2013 at 7:01pm
आदरणीय अरूण जी श्रंगार रस में पगी आपकी यह भावाभिव्यक्ति प्रभावशाली है!
सादर

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