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देख धनी बलवान के, चिकने चिकने पात।
दुखिया दीन गरीब के, खुरदुर चिटके पात।।

दुखिया सब संसार है, सुख ढूंढन को जाय।
दूजों का जो दुख हरे, सुख खुद चल के आय।।

अपना कष्ट बिसारि के, औरों की सुधि लेय।
नहीं रीति ऐसी रही, अपनी अपनी खेय।।

अपनी अपनी सब कहें, अपनी अपनी सोच।
इक दूजे की नहिं सुनें, लड़ा रहे हैं चोच।।

मन की इच्छा जानकर, चला शहर की ओर।
जाकर देखा जो वहाँ, मचा हुआ है शोर।।


                                      - बृजेश नीरज

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2013 at 9:41pm

भाई संदीप पटेलजी,

आपने सवैया (वर्णिक वृत) पर जो कुछ कहा है उसके आलोक में यह आशा करता हूँ कि आपने ओबीओ के भारतीय छंद विधान समूह में पोस्ट हुए सवैया छंद को और इस कड़ी में विभिन्न सवैयाओं के विधान पर पोस्ट लेखों को अवश्य पढ़ लिया होगा.

शुभेच्छाएँ

Comment by बृजेश नीरज on March 4, 2013 at 5:40pm

आदरणीय सौरम जी,

आपकी बात दिल तक पैठ कर गयी। आपने जिस तरह प्रकरण को सुलझाया और समझाया है उससे बात जेहन  में पूरी तरह घर कर गयी। इतनी विस्तृत और स्पष्ट व्याख्या आपके अतिरिक्त शायद मुझे कोई और दे भी नहीं सकता था। मैं अवधी क्षेत्र का रहने वाला और बोलने वाला हूं लेकिन इस मर्म को बिसराए बैठा था। आपने जब ‘गै’ लिखा बात मुझे स्पष्ट हो गयी।

यह बात सत्य है और उचित है कि किसी भाषा के शब्द का हम प्रयोग तो करते हैं लेकिन उसके वैशिष्ट्य को आत्मसात नहीं करते।

आपका और प्राची जी का बहुत बहुत आभार मुझे मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए!

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on March 4, 2013 at 1:08pm

जै हो गुरुदेव की आपने पहले ही दवा दे दी है
आपका बहुत बहुत आभार गुरुदेव सौरभ सर जी सादर प्रणाम

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on March 4, 2013 at 1:06pm

आदरणीय
"जलधि लांघि गये अचरज नाहिं" पढ़ें तो शायद ठीक रहेगा
मात्रिक छंदों में मात्राएँ गिराने का कोई नियम हिन्दी छन्द में तो नहीं है
यद्यपि कहीं कहीं वार्णिक छंदों जैसे सवैया मे ऐसा देखने मिल जाता है


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 4, 2013 at 9:18am

आदरणीय सौरभ जी,

आपने एक बहुत ही आधारभूत भ्रम का निवारण किया है..

आंचलिक भाषाओं के उच्चारण और खड़ी बोली हिंदी के उच्चारण में अक्सर हम सब संशय करते है...आंचलिक भाषाओं के स्वराघात वैशिष्ट्य को हमें स्वीकार करना होगा और उसमें और खड़ी हिंदी में भेद को जान समझ कर ही ऐसे संशयों का निवारण हो सकता है.

सादर आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2013 at 1:17am

डॉ.प्राची और भाई बृजेशजी के मध्य हुआ संवाद रोचक है और इस मंच की परिपाटी ’सीखने-सिखाने’ का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है.

एक बात जो आप दोनों के लिए भ्रम का कारण हो रहा है वह स्वर ए को गुरु या लघु मानना. 

मेरा निवेदन है कि आंचलिक भाषाओं यथा, ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि और खड़ी बोली हिन्दी के शब्दों के उच्चारण होने वाले अंतर को मत बिसराइये. 

आंचलिक भाषाओं में शब्दों का उच्चारण स्वराघात पर अधिक निर्भर करता है बनिस्पत खड़ी बोली हिन्दी के.

उदाहरण सदृश भोजपुरी का एक वाक्य देखें - तूँ चल आव.  इस वाक्य हिन्दी व्याकरण के स्वर व्यंजन के नियमों के अनुसार कुल मात्रा होगी ७.

लेकिन इस वाक्य का भोजपुरी उच्चारण ऐसा नहीं है जैसा यहाँ प्रतीत हो रहा है. वह कुछ यों होता है - तूँ चल आवऽ.

यानि स्वराघात के कारण आव का दीर्घ है, न कि प्रतीत होते लघु की तरह.

एक बात और जो थोड़ा और आगे की समझ के लिए आवश्यक होगा. वह ये कि चल का पूरा लघु भी नहीं है बल्कि उस पर स्वराघात के लघु से भी आधा है. यह आंचलिक भाषाओं की विशिष्ट स्वर प्रक्रिया है और इसी कारण उनकी सुन्दरता भी है. लेकिन हिन्दी व्याकरण के अनुसार आधा लघु की कोई अवधारणा ही नहीं है.

गोस्वामी जी के ग्रंथ मानस या हनुमानचलीसा आदि हिन्दी भाषा में न हो कर आंचलिक भाषा अवधी में हैं.

अतः, जलधि लांघि गये अचरज नाहीं  को वस्तुतः जलधि लांघि गै अचरज नाहीं  की तरह पढें. देखिये समस्या का निवारण हो गया. इस पंक्ति की कुल मात्रा १६  बन रही है.

अर्थात्, आंचलिक भाषा के शब्दों की मात्राओं की गणना या देसज शब्दों की मात्राओं की गणना उच्चारण के अनुसार होती है. होनी चाहिए भी. वहीं खड़ी बोली हिन्दी में मात्र उच्चारण ही मात्रा गणना का आधार न हो कर स्वर-व्यंजन के अनुरूप उनका होना उचित होता है क्यों कि उन शब्दों का लिहाज देसज कत्तई नहीं होता.

हिन्दी भाषा कितने विद्वान आंचलिक भाषाओं के स्वराघात वैशिष्ट्य को न समझ कर इसे छंद में मात्रा गिराना का भ्रम पाल लेते हैं. वस्तुतः हमें आंचलिक भाषाओं की इकाई को उनके वैशिष्ट्य के साथ स्वीकार करना ही होगा, वर्ना हिन्दी भाषा के व्याकरण के चश्में से देख कर बार-बार हम उलझेंगे और बवाल पैदा करते रहेंगे.

तथ्यपरक बात यह हुई  कि रचनाकर्म के क्रम में हम सदा से स्पष्ट रहें कि हमारी रचना की भाषा क्या है. तदनुरूप हम मात्राओं की गणना करेंगे. हिन्दी में देसज शब्दों का सुन्दर प्रयोग होता है, अतः रचनाकार न केवल संवेदनशील हो बल्कि जागरुक भी हो.

विश्वास है, तथ्य स्पष्ट हो पाया.

शुभ-शुभ

Comment by बृजेश नीरज on March 3, 2013 at 4:53pm

आदरणीया प्राची जी आपकी बात स्वीकार्य है। यही उपयुक्त भी होगा। आपके मार्गदर्शन के लिए सादर आभार!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 3, 2013 at 4:50pm

आदरणीय बृजेश जी, 

यहाँ हम सभी समवेत सीखते हैं, आपने मेरे कहे को मान दिया इस हेतु आपका धन्यवाद.

आदरणीय , जहाँ तक मैं जानती हूँ, 'ए' की मात्रा को दीर्घ ही गिना जाता है..

हिंदी छंद विधान में भी और ग़ज़ल लेखन के समय भी.

आप द्वारा दिए गए तुलसीकृत हनुमान-चालीसा के उदाहरण में स्पष्टतः ए की मात्रा को १ ही लिया गया है... किन्तु हमें विधान को साधते समय अपवादों को अपवाद ही मानना है उदाहरण नहीं ! यदि हम उन्हें उदाहरण मान कर चले तो छंद के नियम तो सब व्यर्थ हो जायेंगे.

इसलिए ये ज़रूरी हैं कि हम आधारभूत नियमों पर अपनी समझ को पहले सुदृढ़ करें, फिर उस समझ की नींव पर साहित्यकारों की रचनाओं को समझें बूझें.

यह मेरी समझ भर है, हो सकता है कि कुछ लोगों का अलग मत हो.

शायद अपने उत्तर से आपको संतुष्ट कर पायी.

हार्दिक शुभेच्छाएँ.

Comment by बृजेश नीरज on March 3, 2013 at 1:38pm

पवन जी सादर आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 3, 2013 at 1:37pm

आदरणीय लक्ष्मण जी आपका आभार!

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