दारोगा बाबू का स्थानांतरण शहर से दूर एक छोटे थाने में कर दिया गया था । काफी शिकायतें आयीं थी, कि बगैर घूस लिए काम ही नहीं करते थे । नया क्षेत्र बहुत ही शांत था। थाने में कोई केस नहीं । सभी सिपाही, हवलदार, दिन भर मानों समय काटते । जैसे तैसे एक महिना निकल गया, 'बोहनी’ तक नसीब नहीं हुई थी ।
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दऽऽऽ... रोके भा गाइ के .. ... ग्रामीण क्षेत्रों में अति प्रचलित मसल की सार्थकता को पुनर्स्थापित करती कथा.
बहुत-बहुत बधाई और अतिशय शुभकामनाएँ, गणेश भाई जी.
मौके बनते नहीं, बनाये जाते है....बहुत खूब,
एक शानदार कथा.
सादर
आदरणीय गणेश जी, क्या कहने आपके
लघु कथा में बहुत कुछ कह जाते हैं,
शीर्षक भी बहुत सही दिया है "कुत्ते की दुम"
आदरणीया डॉ प्राची जी , माँ सरस्वती की कृपा है कि जो मैं देखता हूँ उसे शब्दों में बाँध पाता हूँ , साथ ही ओ बी ओ का एक जादू भी है जो सृजन में सहायक होता है , सराहना हेतु कोटिश : आभार ।
आदरणीय विजय मिश्र जी , लघुकथा की आत्मा तक आपहुँच गए यह मेरे लिए तोष का कारक है, उत्साहवर्धन हेतु आभार आपका ।
आभार आदरणीया उपासना जी ।
सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीया मंजरी पाण्डेय जी ।
बहुत बहुत आभार दिवाकर मणि जी ।
आदरणीया राजेश कुमारी जी आप मेरी लघुकथाओं को सदैव सराहती आई हैं , या यह कहे कि आपके उत्साहवर्धन के फलस्वरूप मैं नई लघुकथा लिख पाया हूँ , आभार आपका ।
बिलकुल छोटे छोटे और महत्वपूर्ण तथ्यों को आधुनिक समाज में से चुन चुन कर आप लघु कथा के रूप में ढालते हैं... यह लघुकथा भी बहुत सार्थक और विद्रूपता को बेनकाब करती सी है... और इसका शीर्षक बहुत बढ़िया है.
हार्दिक बधाई आदरणीय गणेश जी. सादर.
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