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शिक्षक और गुरु : कैसी अवधारणा

5 सितंबर यानि ’शिक्षक दिवस’, उद्भट दार्शनिक विद्वान और देश के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्लि राधाकृष्णन का जन्मदिवस. कृतज्ञ देश आपके जन्मदिवस पर आपको भारतीय नींव की सबलता के प्रति आपकी अकथ भूमिका के लिये स्मरण करता है.

डॉ. सर्वपल्लि राधाकृष्णन भारत राष्ट्र की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सांस्कारिक थाती के न केवल सक्षम संवाहक थे बल्कि स्वयं में स्पष्ट आधुनिकता की प्रखर व्याख्या थे. आधुनिकता, जो वैचारिक रूप से आधारहीन अट्टालिका के चकाचौंध उत्तुंग का पर्याय नहीं, बल्कि आधारभूत मनन का मुखर परिणाम होती है. जिसका वैभव छिछली प्रदर्शनप्रियता पर निर्भर नहीं, बल्कि इस पूण्यभूमि की पारंपरिक गहन सोच का नूतन आयाम होती है.

डॉ. राधाकृष्णन स्वतंत्र भारत में भारतीय ऋषि, मनीषी तथा दार्शनिक परंपरा के संभवतः अंतिम अनुभवजन्य स्तंभ थे जिन्होंने वैदिक विचार-विस्फोट की अजस्र गंगा का वरण किये रखा तथा देश के मात्र भौतिक ही नहीं, मानसिक प्रखरता की अस्मिता को अभिसिंचित करते रहे. आधुनिक काल में ऐसे गुरु-शिक्षक के सम्मिलित प्रारूप का विद्यमान होना देश की आधु्निक पीढी के लिये परम सौभाग्य की बात है तथा, व्यावहारिक आधुनिकता के मूल का द्योतक है. यानि, सही कहा जाय तो डॉ. राधाकृष्णन एक दिशा-निर्देशक शिक्षक ही नहीं बल्कि करुणामय गुरु की संज्ञा को अधिक संतुष्ट करते हैं.

यहाँ प्रश्न उठना अवश्यंभावी है कि शिक्षक और गुरु की संज्ञाएँ किन अर्थों में भिन्न हुईं ! यदि मैं अपने इस आलेख को इसी तथ्य के निरुपण की दिशा में मोड़ दूँ तो इस आलेख की सार्थकता अधिक बढ़ जायेगी.

वस्तुतः, जो अंतर शिक्षा एवं विद्या में है, वही अंतर शिक्षक और गुरु के मध्य हुआ करता है.
शिक्षा, अर्थात् मनुष्य के दैहिक, सामाजिक भरण-पोषण को परिपुष्ट करने की हेतु. मानवीय वैचारिक संसार के प्रथम स्तर अन्नमयलोक की समस्त चाहना की परिपूरक. बाह्यकरण की संवेदना को संतुष्ट करने की कारण.
वहीं, विद्या, मनुष्य के अन्तःकरण को उद्दीप्त करती, ध्यानपथ पर अग्रगामी होने को प्रेरित करती मांत्रिकता है, मनस-चैतन्य हेतु समृद्ध प्रेरणा. यह मनुष्य के प्रारब्ध पर संचित तथा आगामी कर्मों के विन्यास की कारण है. अर्थात् मानसिकता के परम स्तर आनन्दमयलोक के उद्दात विस्तार की संपोषक !
शिक्षा की अधिष्टात्री सरस्वती.
विद्या के अधिष्टाता गणेश. 

विचार के इस प्रिज्म से शिक्षक की ससीम पहुँच तथा गुरु का असीम विस्तार स्पष्ट दीखने लगते हैं. अर्थात् एक शिक्षक मनुष्य की भौतिक-प्रगति का वाहक होता है, तो वहीं, मानसिक और नैतिक विकास के लिये गुरु उत्तरदायी होते हैं. मनुष्य के जीवन का समृद्ध परिपालन, सही कहिये तो दोनों की सम्मिलित उपस्थिति के बिना संतुलित ढंग से हो ही नहीं सकता. जीवन में किसी योग्य शिक्षक का न होना मनुष्य को आधारभूत व्यावहारिकता से ही दूर कर देता है, तो एक गुरु की कमी किसी मनुष्य को भौतिकतः अति सबल, किन्तु पुच्छहीन पशु की श्रेणी में रख देती है. ऐसा पशु जो सोच के स्तर पर अपने ’स्व’, अपने शरीर और इस शरीर के कारण बने पारिवारिक-सामाजिक संबन्धों और उसकी आवश्यकताओं के आगे देख ही नहीं सकता.  इसका अर्थ यह हुआ कि गुरु जहाँ मनुष्य को उसके विकास के प्रति उत्तरदायी बनाते हैं, तो एक शिक्षक मनुष्य की प्रगति का उत्तरदायित्व स्वयं ले लेता है.

हम इन्हीं वैचारिक पगडंडियों पर आगे-आगे बढ़ते चलें तो कई रोचक तथ्य खुलते चले जाते हैं. इसी क्रम में अंतरजाल के विस्तार से भी कई-कई विन्दु उदाहरण सदृश उपलब्ध हुए. उन अनगिन विन्दुओं में से कुछ तथ्यपरक विन्दुओं को छाँट कर साझा करना अत्यंत रोचक तो होगा ही, प्रस्तुत आलेख की दिशा को उचित मान भी मिलता दीखता है.

एक शिक्षक और गुरु के मध्य वैचारिक अंतर को स्पष्ट करने वाले विन्दुओं के हिसाब से एक शिक्षक अपने प्रयास को कारण और आवरण देता है, जबकि एक गुरु अपने साहचर्य का प्रभाव देते हैं. यही कारण है, कि शिक्षक जहाँ समस्याओं के विरुद्ध उपाय निर्देशित करता प्रतीत होता है, वहीं गुरु समस्याओं के विरुद्ध आवश्यक आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करते दीखते हैं. अर्थात्, शिक्षक मनस की तीक्ष्णता को प्रखर बनाने के कारण उपलब्ध कराते हैं, गुरु मनस को तीक्ष्ण बनने का स्वयं साधन बनते हैं तथा इस हेतु प्रणेता की तरह उदाहरण प्रस्तुत करते हैं. इसका अर्थ हम ऐसे लें कि, मनुष्य को एक शिक्षक के द्वारा ज्ञान मिलता है जो उसे समझदार व अनुभवी बनने का कारण होता है. जबकि गुरु का कार्मिक-साहचर्य मनुष्य को ज्ञानवान बनाता है जो मनुष्य के मूल स्वरूप तथा उसके अबोधपन को सांस्कारिक बनाता है. वस्तुतः मनुष्य का अबोधपन ही उसकी हार्दिक भावनाओं को ओड़ता है. यही उसे सदा निर्मल रखता है. यही कारण है, कि स्वामी विवेकानन्द अक्सर कहा करते थे, जब भी मस्तिष्क तथा हृदय के मध्य द्वंद्व बने हमें सदा हृदय की सुनना चाहिये

इसतरह हम देखते हैं कि गुरु मनुष्य के त्रिस्तरीय शरीर के सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करते हैं जबकि शिक्षक स्थूल शरीर को सांकेतिक बना कर इस दुनिया के लिये सक्षम बनाते हैं. देखा गया है कि यदि यह मानवीय क्षमता सीमाहीन हो जाये तो मनुष्य के निरंकुश अहं की अभिवृद्धि का कारण बन जाती है जिसका निवारण फिर सक्षम गुरु के साहचर्य में हो ही पाता है.

गुरु की अवधारणा भारतीय समाज की अद्भुत मानसिक ऊँचाई की द्योतक है, जबकि शिक्षक की उपस्थिति किसी समाज में एक दिशा-निर्देशक की तरह आवश्यक है.

मनुष्य के व्यावहारिक ज्ञान के बिना उसका ’स्व’ संपोषित नहीं हो सकता, न ही मनस-विकास की यात्रा संभव ही हो पाती है. अतः शिक्षक, जो ममतामयी माता का उद्दीपन है, का होना जीवन की परम आवश्यकता है, जबकि पिता स्वरूप गुरु हमारे नैतिक-उत्थान की नींव रखते हैं. 

***************
--सौरभ

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Comment

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Comment by सूबे सिंह सुजान on September 5, 2012 at 10:42pm

आपके आलेख का संदर्भ सही है, लेकिन मैं इस बात को तव्ज्जो दूँगा कि पूरा समाज जिस तरह चलता है शिक्षक भी वैसे ही चलेगा आज के समय में,, क्योंकि शिक्षक की अब नहीं चलती,  अब समाज की चलती है। या उससे ज्यादा राजनीति की..........आज के समय में समाज शिक्षक के पास नहीं जाता है।


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 5, 2012 at 10:19pm

बिलकुल सहमत हूँ आदरणीय, आजके नौटंकीबाज गोरुओं (गुरुओं) से भगवान् बचायें |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 5, 2012 at 10:05pm

गणेश भाई, मनुष्य के जागृति-इतिहास में महापुरुष हर काल में रहे हैं और समस्त मानव-समाज को अपनी अनुभूतियों और विचारधारा से उन्होंने प्रभावित किया है. किन्तु, गुरु की अवधारणा इस भूमि की धारणा है. गुरु ही विद्या और शिक्षा के प्रदाता थे. वे शिष्य को तन तथा मन के अलावे विजन पर भी विचार सम्पन्न होने में सार्थक भूमिका निभाते थे.

शिक्षा हो या विद्या तप स्वरूप व्यवहार की मांग करती थीं. सर्वोपरि, दोनों साझा करने की प्रक्रिया हुआ करती थीं. गुरु के योगक्षेम का दायित्त्व भी सम्पूर्ण समाज लिया करता था.  जबकि शिक्षक की अवधारणा पाश्चात्य है.  धन के लिये शिक्षा ने न केवल शिक्षकों की गरिमा पर प्रश्नचिह्न लगाया है, बल्कि तथाकथित शिक्षितों को भी मूढ़ बना रखा है. जहाँ एक ओर शिक्षक मात्र वेतनभोगी भर हो कर रह गये हैं, तो दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के चोंगाधारी, बहुरुपिये और लबार धूर्त स्वयं को ’गुरु’ बता भ्रम उत्पन्न कर लोगों को ठग रहे हैं. जबकि सही तो यह है कि गुरु किसी भेषभूषा या स्वांग विशेष में न हो कर वैचारिक तथ्यों का वाहक होता है.

सधन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 5, 2012 at 9:51pm

आदरणीया रेखाजी, इस आलेख का तथ्य आपको संतुष्टिकारक लगा, समझिये सनातन विचार को आपने मान दिया है. सादर


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 5, 2012 at 9:47pm

शिक्षक और गुरु के मध्य उस बारिक से धागे को आपने बहुत ही तार्किक रूप से परिभाषित किया है, अपने जीवन में शिक्षक और गुरु दोनों का महत्व एकसार है, इस खुबसूरत शिक्षाप्रद लेख हेतु अनेकानेक बधाइयाँ, आभार आदरणीय सौरभ भईया

Comment by Rekha Joshi on September 5, 2012 at 8:27pm

आदरणीय सौरभ जी ,सादर नमस्ते 

 एक शिक्षक मनुष्य की भौतिक-प्रगति का वाहक होता है, तो वहीं, मानसिक और नैतिक विकास के लिये गुरु उत्तरदायी होते हैं. ,एक शिक्षक और गुरु के बीच का अंतर  आपने बहुत ही अच्छे से समझाया  है ,गुरु ही एक समृद्ध समाज और राष्ट्र का निर्माता होता है ,सार्थक लेख ,शिक्षक दिवस पर मेरी हार्दिक शुभकामनाएं 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 5, 2012 at 6:11pm

भाई संदीपजी, आपकी लेखिनी जिस सतत रूप से बलवती होती जा रही है उससे मंच को तोषकारी अनुभूति हो रही है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये. इस मंच का वातावरण और यहाँ की सदाशयता ही असल में गुरु है. हम सभी समवेत सीख रहे हैं अनुज.

सहयोग बना रहे.  सधन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 5, 2012 at 6:08pm

डॉ. प्राची, आपकी संवेदनशील दृष्टि ने आलेख के मूल को हृदयंगम किया इस हेतु मेरा हार्दिक धन्यवाद.

सही कहा आपने कि गुरु के सान्निध्य के फेर में लोग आज दिग्भ्रमित अधिक होते जा रहे हैं. वस्तुतः गुरु किसी भंगिमा या बनाव का मुखापेक्षी नहीं होता. वह किसी रूप में आकर मानव इकाई को समुच्चय में स्वीकार कर लेता है.

सधन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 5, 2012 at 6:05pm

अनुज अजीतेन्दुजी, आप हम सत्संग में सीखते हैं .. माहौल से लाभान्वित होते हैं.  इस हिसाब से असली गुरु तो यह मंच है.

प्रस्तुत आलेख पसंद आया इसके लिये आपको हृदय से धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 5, 2012 at 6:03pm

आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, आपको मेरा सादर नमस्कार. सहयोग बना रहे.

कृपया ध्यान दे...

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