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लोकगीत:पोछो हमारी कार..... संजीव 'सलिल'

लोकगीत:

पोछो हमारी कार.....

संजीव 'सलिल'
*
ड्राइव पे तोहे लै जाऊँ, ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़, कहे जग-
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....
*
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....
*
बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे 'बलम अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, करो न रार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

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Comment

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Comment by sanjiv verma 'salil' on September 30, 2010 at 9:01am
आत्मीय सौरभ जी!
वन्दे मातरम.
आपका बहुत-बहुत आभार.
पूज्य पिताश्री का आशीष पाकर कृतकृत्य हुआ. इससे बड़ा पुरस्कार और क्या हो सकता है? वर्ष २००८ में ८७ वर्षीय पूज्य माँ और २००९ में ९१ वर्षीय पूज्य पिता को खोने के बाद आज अनुभूति हो रही है किमेरे सिर पर अभी भी किसी की छाया है. पिता का वरद हस्त होना स्वर्गिक सुख की तरह है मेरा सविनय प्रणाम पितृ-चरणों में पहुँचे.
आपका सुझाव सादर शिरोधार्य.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 30, 2010 at 8:26am
इन विधाओं पर लिखे देखना-पढ़ना सुखद आश्चर्य देता है, सलिलजी.
आपने उस पलड़े पर जिम्मेदारी भरा वजन रखा है जिस पर अक्सर पासंग भर रख कर काम चला लिया जाता है अब..
//संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार, ओ बलमा! पोछो हमारी कार..//

गुंइयाँ को साथ लिवाने की आशा भी और बलम से डर भी.. अय हय!! .
वैसे इन पंक्तियों में कुछ शब्द मुझे अनजाने लगे हैं..
और ’हमारी कार’ से बेहतर क्या ’हमरी कार’ होता? .. बता कर अनुगृहित कीजिएगा.
बड़ा मजा आया है पढ़ कर.. हमने अपने पिताजी को भी पढ़ कर सुनाया है.. देर तक मुग्ध देखा उन्हें. इस दवा की खुराक असर कर गयी है..
सलिल जी हृदय से धन्यवाद..

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