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रात्रि का अंतिम प्रहर घूम रहा तनहा कहाँ

थी ये वो जगह आना न चाहे कोई यहाँ

हर तरफ छाया मौत का अजीब सा मंजर हुआ

घनघोर तम देख साँसे थमी हर तरफ था फैला धुआं

नजर पड़ी देखा पड़ा मासूम शिशु शव था

हुआ जो अब पराया वो अपना कब था

कौंधती बिजलियाँ सावन सी थी लगी झड़ी

कौन है किसका लाल है देख लूं दिल की धड़कन बढ़ी

देखा तनहा उसे सर झुकाए समझ गया कि उसकी दुनिया लुटी

जल रही थी चिताएं आस पास ले रही थी वो सिसकियाँ घुटी घुटी

देती कफ़न क्या कैसे देती आग थे तार तार वस्त्र और उसके भाग्य

आस थी मिले कफ़न दूँ चिता लाल को दे न सकी हाय रे दुर्भाग्य

देख दशा उस लाल की प्रक्रति भी जार जार रोई

हो न ऐसा कभी ऐ खुदा चिता/कफ़न को भी तरसे कोई

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 2, 2012 at 10:36pm

adarniya rita ji, sadar abhivadan sneh ke liye abhar. 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 2, 2012 at 10:35pm

adarniya singh sahab ji. sadar abhivadan. bhavna samjhi apne shram sarthak hua. dhanyavad.

Comment by Rita Singh 'Sarjana" on April 2, 2012 at 10:26pm

adaraniy pradip ji, sadar namaskar , sundar rachna ke liye badhai

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 2, 2012 at 10:11pm

हो न ऐसा कभी ऐ खुदा चिता/कफ़न को भी तरसे कोई!

 हालाँकि सत्य हरिश्चंद्र नाटक में अपने पुत्र  रोहिताश्व की माँ से आधा कफ़न मांगने में राजा हरिश्चंद्र सख्ती दीखते नजर आते है वहीं बर्तेंदु सुनते हैं मरनो भलो विदेश में जहाँ न अपना कोय, 
माटी खाय जानवरा महा महोत्सव होय! कुछ ऐसी ह्रदय विदारक दृश्य उपस्थित किया है आपने!
आपकी संवेदनशीलता  को नमन!
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 19, 2012 at 11:01pm

aapne nivedan swikara. aap kahin na jaiye. dil main ghar kar chuke hain . nirbal jaan ke hath na chodiye. jo prshn hain ve vasvik hain. madad mangi hai. chat par mobile no dunga. 

Comment by Dr. Shashibhushan on March 19, 2012 at 7:44pm

आदरणीय प्रदीप जी,
सादर !
बुढ़ौती में गुस्सा मत होईये ! धड़कन बढ़ जायेगी !
एक तरफ तो आदेश देते हैं, दूसरी तरफ नाराज भी
होते हैं ! अब हम सोच रहे हैं कि "जायें तो जायें कहाँ "?

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 19, 2012 at 2:31pm

आदरणीय शशि जी, हम तो पहले से ही आपकी कविताओं के मुरीद रहे हैं, इस रचना मे साक्षात 'मैथिली शरण गुप्त' जी विराज मान लगते हैं. प्रदीप जी एवं शशि जी दोनो लोग  को बधाई.

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 19, 2012 at 2:07pm

आदरणीय शशि भूषण जी,

वास्तव में आपने आदरणीय प्रदीप जी की कविता को एक नया बेहतर कलेवर प्रदान किया है| आपकी श्रेष्ठता के आगे नतमस्तक हूँ|

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 19, 2012 at 1:07pm

स्नेही महिमा  जी. सादर . सत्य है . समर्थन हेतु  बधाई आपको भी. 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 19, 2012 at 1:05pm

 आदरणीय शशि भूषण   जी, सादर अभिवादन. 

यंहां  सीखने आया हूँ. छंद , रस , अलंकार. दोहा, सवित्त , आदि के तकनीकी पक्ष का ज्ञान नहीं है.  सबकी देखा देखी मैं भी नाल ठुकवाने लगा.  भ्रमित हो गया. आत्मविश्वास कम हुआ.  कोई ये तो बताये की में कैसे सुधार लाओं.  किताबें कहाँ मिलेंगी. कौन सी किताब पढनी है.
स्नेह प्राप्त हुआ.  अब ये रचना तो आपकी हो गई. संशोधन कैसे जारी करूँ.  धन्यवाद. 

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