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अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद

 

अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद

 

दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेगें

आज़ाद ही रहे हैं आज़ाद ही रहेगें

 

अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद को उपरोक्त पंक्तियां अत्यंत प्रिय थी। इन्हे वह अनेक बार गुनगुनाया भी करते थे। चंद्रशेखर आज़ाद ने 27 फरवरी 1931 को ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के कंमाडर इन चीफ की हैसियत से इलाहबाद के अलेफ्रेड पार्क में ब्रिटिश पुलिस से संग्राम करते हुए शहादत पाई थी। स्वातंत्रय यज्ञ में यह आहुति पड़ जाने के पश्चात उनकी कीर्ति सौरभ से समस्त भारत महक उठा था। आज के दौर में जबकि देश की राजनीति और नौजवान एक जबरदस्त भटकाव में हैं। चंद्रशेखर आज़ाद जैसे महान् क्रांतिकारियों के विलक्षण चरित्र नौजवान पीढ़ी को अविचल देशभक्ति का सबक सिखा सकते हैं कि कैसे अपने जीवन को देश के जनमानस के लिए बलिदान किया जाता है।

 

 

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म 23 जुलाई सन् 1909 में मध्य प्रदेश के झाबुआ में हुआ था। काशी में वह संस्कृत पढ़ने के लिए आए थे, किंतु मन्मथनाथ गुप्त के संपर्क में आकर बन गए एक क्रांतिकारी। मन्मथनाथ गुप्त ने ही उनकी मुलाकात उस दौर के मूर्धन्य क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल और रामप्रसाद बिस्मिल से कराई थी। बुंदेलखंड की धरा पर उन्होने अपना फ़रारी जीवन काफी समय तक बिताया था। 8 अप्रैल सन् 1929 को दिल्ली की लेजिस्लेटिव ऐसम्बली में जब भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जब बम फेंका था, उस वक़्त आज़ाद भी वहां विद्यमान रहे थे। जोखिम भरे प्रत्येक कार्य में वह सदैव क्रांतिकारी साथियों से आगे रहे। दिल्ली के फिरोज़शाह कोटला में देश भर से आए क्रांतिकारियों की बड़ी बैठक में आज़ाद के नेतृत्व में दल की कार्यनीति और रणनीति पर गहन विचार विमर्श किया गया और भगतसिंह के प्रस्ताव पर दल का मक़सद संपूर्ण आज़ादी हासिल करने के साथ ही साथ देश में समतामय समाजवादी समाज की स्थापना करना घोषित किया गया। इसी ऐतिहासिक बैठक में दल का नाम परिवर्तित करके ‘हिंदुस्तान सोश्लिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ कर दिया गया था।

 

 

 क्रांतिकारी शिव वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘संस्मृतियां’ में वर्णित किया कि जब बंगाल के प्रख्यात क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल ने अंडमान में सजा काटने के पश्चात बनारस में प्रवास किया तो एक बार पुनः बहुत से नौजवान उनके इर्द गिर्द एकत्रा होने लगे। इन नौजवानों में रामप्रसाद बिस्मिल,  मन्मथनाथ गुप्त, शिव वर्मा, जोगेशचंद्र चटर्जी, रौशन सिंह, अशफाकउल्ला ख़ान, रामकृष्ण खत्री, शचींद्रनाथ बख़्शी और चंद्रशेखर आज़ाद प्रमुख तौर पर थे। रामप्रसाद बिस्मिल की तरह ही चंद्रशेखर आज़ाद भी अपने प्रारम्भिक जीवन काल में आर्य समाज और उसके प्रणेता स्वामी दयानंद से बहुत अधिक प्रभावित रहे। जंग ए आज़ादी में चंद्रशेखर आज़ाद ने महात्मा गांधी की ललकार पर असहयोग आंदोलन में काशी के अपने संस्कृत विद्यालय का परित्याग करके शिरक़त की थी। ब्रिटिश पुलिस द्वारा बंदी बनाए जाने के तत्पश्चात जब मैजिस्ट्रेट ने उनका नाम पूछा तो अदालत में पंडित चंद्रशेखर तिवारी ने अपना नाम ‘आज़ाद’ बताया और अपने पिता नाम भी ‘आज़ाद’ बताया। निवास स्थान पूछे जाने पर उसे चंद्रशेखर तिवारी ने ‘जेलखाना’ बताया। मैजिस्ट्रेट ने उन्हें बीस कोडे़ मारने की सजा सुना दी। प्रत्येक कोड़े की मार झेलने के पश्चात वह महात्मा गांधी जिंदाबाद का उद्घोष करते रहे।

 

 इस घटना के बाद चंद्रशेखर तिवारी के नाम के साथ सदैव के लिए ‘आज़ाद’ शब्द सलंग्न हो गया। जब हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के लीडर रामप्रसाद बिस्मिल की कयादत में लखनउ के निकट काकोरी में 8 डाउन कैलकटा मेल से 9 अगस्त 1925 को सरकारी खजाना लूटा गया तो चंद्रशेखर आज़ाद ने उस क्रांतिकारी कार्यवाही में अग्रणी भूमिका अदा की थी। काकोरी कांड के प्रायः सभी सरकर्दा क्रांतिकारी ब्रिटिश पुलिस की गिरपफ्त में आ गए, किंतु चंद्रशेखर आज़ाद और कुंदनलाल कदाचित नहीं पकड़े जा सके। काकोरी कांड के तत्पश्चात ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी’ एक क्रांतिकारी दल के रुप में नष्टप्रायः ही हो गया था। चंद्रशेखर आज़ाद ने मुसलसल तौर पर फरार रहते हुए क्रांतिकारी दल को फिर से संगठित किया और उसकी पांतों में देश भर से संबद्व किया भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, भगवतीचरण वोहरा, यशपाल, विजय कुमार सिन्हा, किशोरीलाल, अजय घोष, जतीनदास, वैशम्पायन, महावीर सिंह, भगवानदास माहौर, सदाशिवराव मलकापुरकर सरीखे सैकड़ों क्रांतिकारियों को।

 

 लाहौर में ‘साइमन कमीशन’ के खिलाफ एक विशाल जलूस का नेतृत्व करते हुए लाला लाजपतराय की ब्रिटिश पुलिस के बर्बर लाठी चार्ज में घायल होकर मौत हो गई। इस मौत का बदला लेने के लिए चंद्रशेखर आज़ाद की अगुवाई में पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या भगतसिंह और राजगुरु ने गोलियां मारकर कर दी। चानन सिंह नामक पुलिस हवलदार ने घटना स्थल से भागते हुए क्रांतिकारियों का पीछा किया। चंद्रशेखर आज़ाद ने उसे ललकार कर ऐसा करने से रोका, किंतु वह नहीं माना परिणामस्वरुप आज़ाद ने उसे वहीं गोली मार दी। किंतु जब तक आज़ाद जिंदा रहे तब तक चाचन सिंह के परिवार की कुछ ना कुछ आर्थिक मदद करते रहे। यह था वह जाज्वल्य यशस्वी चरित्र जिसकी स्मृति को कायम रखने की महती आवश्यकता है।      

 

 चंद्रशेखर आज़ाद का नाम ब्रिटिश साम्राज्यवाद से उत्पीड़ित शोषित भारतवासियों के लिए क्रांतिकारी चेतना एक प्रतीक बन गया था। एक माउजर पिस्तौल उठाकर चंद्रशेखर आज़ाद ने ललकार दिया था, उस ब्रिटिश सम्राज्य को जिसमें सूरज नहीं डूबता था। ब्रिटिश प्रशासन के बडे़ बड़े अधिकारी आज़ाद के नाम से थर्रा उठते थे। चंद्रशेखर आज़ाद ने औपचारिक तौर पर बहुत कम शिक्षा ग्रहण की थी और मात्रा 14 वर्ष की उम्र में ही सब कुछ त्याग कर आज़ादी के संग्राम में शामिल हो गए थे। देश के प्रति अपने संपूर्ण समर्पण, अप्रतिम वीरता, क्रांतिकारी गतिशीलता, विलक्षण चातुर्य के बल पर वह अपने से कहीं अधिक शिक्षित दीक्षित क्रांतिकारियों के नेता और उनके पथ प्रदर्शक रहे। वह एक ऐसे क्रांतिकारी दल के निर्माता एवं सर्वोच्च कमांडर रहे, जिसने न केवल आज़ादी के संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई वरन् समाजवाद के महान् विचार को भारतीय राजनीति में सबसे पहले प्रेषित किया। देश से ब्रिटिश हुकूमत का खात्मा कर किसान मजदूरों के राज्य के संस्थापन की सैद्वांतिक प्रस्थापना प्रस्तुत की थी। भारतीय समाज में व्याप्त साम्प्रदायिक धर्मान्धता के विरुद्व सशक्त आवाज़ बुलंद की। देश के वामपंथी आंदोलन के लिए एक बेहद ताकतवर पृष्ठभूमि का निमार्ण किया। जिसके कारण ही ‘कांग्रेस सोश्लिस्ट पार्टी’ एवं ‘साम्यवादी दल’ का सशक्त निर्माण हो सका। क्रांतिकारी लेखक यशपाल ने जोकि अंतिम दिनों में आज़ाद के साथ थे, अपनी पुस्तक ‘सिंहावलोकन’ में वर्णित किया है कि वह विस्तृत जन आंदोलन के पक्षधर हो चुके थे। 

 

प्रभात कुमार राय

 

 

 

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Comment by Shyam Bihari Shyamal on November 30, 2011 at 5:50am

वाह... अमर शहीद चन्‍द्रशेखर आजाद के बारे में आपने नई पीढ़ी के लि‍ए उपयोगी जानकारी यहां जारी की है। हमें अपने महापुरुषों के बारे में लगातार चर्चा-बातें करती रहनी चाहि‍ए। ऐसे स्‍मरणों से नई पीढ़ी का संस्‍कार भी आकार पाता है। बनारस के प्रमुख एक चौराहे लहुरावीर  पर अमर शहीद चन्‍द्र्शेखर आजाद की आदमकद प्रति‍मा संस्‍थापि‍त है और इसे आजाद पार्क का नाम दि‍या गया है। इसी चौराहे से फूटते नदेसर या कचहरी की ओर जाने मार्ग के सि‍रे पर कथा-सम्राट प्रेमचन्‍द की भी आदमकद मूर्ति‍ लगी है। यहीं वह स्‍थान भी है जहां प्रेमचन्‍द जी के अंति‍म दि‍न बीते थे। उन्‍होंने यही अंति‍म सांस ली थी। इसी चौराहे के पास वह ऐति‍हासि‍क क्‍वींस कॉलेज भी है जि‍समें आधुनि‍क हि‍न्‍दी भाषा-साहि‍त्‍य और पत्रकारि‍ता के जनक भारतेन्‍दु बाबू हरि‍श्‍चन्‍द्र, खड़ी बोली हि‍न्‍दी के प्रथम महाकाव्‍य ' प्रि‍य प्रवास ' के रचयि‍ता कवि‍-सम्राट अयोध्‍या सि‍ह  उपाध्‍याय ' हरिऔध ', प्रेमचन्‍द, महाकवि‍ जयशंकर प्रसाद आदि‍ समेत अनेक महापुरुषों ने शि‍क्षा पाई थी। आपने जि‍न महान क्राति‍कारी शचीन्‍द्रनाथ सान्‍याल की चर्चा की है, उन्‍होंने भी इसी क्‍वींस कॉलेज में पढ़ाई की थी।... आशा  ( और वि‍नम्र आग्रह भी ) है कि‍ ऐसे आप संदर्भ-आलेख यहां आगे भी देते रहें।

Comment by Abhinav Arun on November 23, 2011 at 1:59pm

ek gyaan vardhak lekh aisi prastution se o b o aur sammridh hoga > amar shaheed azaad ko shat shat naman hai !!


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Comment by Saurabh Pandey on November 21, 2011 at 2:38pm

भारतीय स्वतंत्रता हेतु समर्पित क्रांतिकारियों की कोई फोटो या तस्वीर अक्सर नहीं हुआ करती थी, क्योंकि वे अपनी तस्वीर बनवाने या फोटो खिंचवाने से परहेज किया करते थे. चंद्रशेखर आज़ाद की भी कोई तस्वीर ब्रिटिश सरकार के पास उपलब्ध नहीं थी. 

कहते हैं कि वाराणसी के विश्वप्रसिद्ध दशाश्वमेध घाट पर स्नान कर गंगा से सद्यः निकले आज़ाद की किसी ने फोटो निकाल ली.  वे घाट पर शरीर सुखाने के क्रम में मात्र धोती लपेटे नंगे बदन खड़े थे.  उनके एक हाथ में तब भी माउज़र था और दूसरा हाथ उनकी मूँछों पर था. बस वही फोटो आज़ाद की परिचयात्मक तस्वीर बन गयी. वाराणसी के सुप्रसिद्ध लहुराबीर चौराहे पर उसी तस्वीर की अनुकृति पर आज़ाद की आदमकद छत्रधारी प्रतिमा बनी है.

इलाहाबाद (प्रयाग) के कम्पनी बाग़ के अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश सुपरिण्टेण्डेण्ट ऑफ़ पुलिस और उसके सिपाहियों के साथ हुई मुठभेड़ के आखिरी क्षणों में गोरों के हाथों ज़िन्दा न पड़ने की कसम के तहत आज़ाद ने स्वयं को गोली मार ली थी. वह ऐतिहासिक जामुन का पेड़ उस बाग़ में आजभी उन विलक्षण क्षणों की मूक गवाही देता खड़ा है. उसी पेड़ के साये में आज वहाँ आज़ाद की उसी ऐतिहासिक मुद्रा में विशाल प्रतिमा बनी है.  इलाहाबाद आये हुए कृतज्ञ पर्यटकों और दर्शनार्थियों हेतु श्रद्धा-सुमन अर्पित करने का वह प्रमुख स्थान है.  आज पूरे कम्पनी बाग़ का ही नाम भारतमाता के उस धुरंधर सुपुत्र के नाम पर चंद्रशेखर आज़ाद पार्क कर दिया गया है.

 

आदरणीय प्रभात कुमार राय जी, आपके इस आलेख पर आपको सादर नमस्कार प्रेषित कर रहा हूँ.  इसतरह के आलेख और ऐसी प्रस्तुतियाँ ओबीओ के लिये सम्मान और गौरव सदृश हैं. आपका सहयोग और सानिध्य बना रहे.

सधन्यवाद.

 

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