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Moin shamsi's Blog – October 2010 Archive (3)

इस बार...

(मेरी ये रचना बिल्कुल नवीन, अप्रकाशित और अप्रसारित है।)





इस बार दशहरे पे नया काम हम करें,

रावण को अपने मन के चलो राम हम करें ।



दूजे के घर में फेंक के पत्थर, लगा के आग,

मज़हब को अपने-अपने न बदनाम हम करें ।



उसका धरम अलग सही, इन्सान वो भी है,

तकलीफ़ में है वो तो क्यूं आराम हम करें ।



माज़ी की तल्ख़ याद को दिल से निकाल कर,

मिलजुल के सब रहें, ये इन्तिज़ाम हम करें ।



अपने किसी अमल से किसी का न दिल दुखे,

जज़बात का सभी… Continue

Added by moin shamsi on October 12, 2010 at 5:25pm — 8 Comments

एक प्रतिभागी की व्यथा-कथा

मैं तो बस एक प्रतिभागी हूं.



वक्ता के समर्थन में



सिर हिलाना ही



मेरी नियति है.



संवाद बोलने को तरसता,



एक्सप्रेशन्स दर्शाने को लालायित,



मूव्मेंट्स करने को निषिद्ध,



किंकर्तव्यविमूढ़ सा,



अश्व की भाँति



सिर हिलाता,



मन ही मन



परमात्मा से विनती करता रहता हूं,



कि हे ईश्वर,



ये वक्तागण ख़ूब ग़लतियाँ करें.



ताकि मुझ 'एक्सट्रा कलाकार' की,



एक दिन की… Continue

Added by moin shamsi on October 10, 2010 at 12:56pm — No Comments

क्यूं है !

सबके होते हुए वीरान मेरा घर क्यूं है,

इक ख़मोशी भरी गुफ़्तार यहां पर क्यूं है !



एक से एक है बढ़कर यहां फ़ातेह मौजूद,

तू समझता भला ख़ुद ही को सिकन्दर क्यूं है !



वो तेरे दिल में भी रहता है मेरे दिल में भी,

फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दर क्यूं है !



सब के होटों पे मुहब्बत के तराने हैं रवाँ,

पर नज़र आ रहा हर हाथ में ख़न्जर क्यूं है !



क्यूं हर इक चेहरे पे है कर्ब की ख़ामोश लकीर,

आंसुओं का यहां आंखों में समन्दर क्यूं है !



तू… Continue

Added by moin shamsi on October 6, 2010 at 5:44pm — 3 Comments

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