For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कवि सतीश बंसल जी के काव्य संग्रह "गुनगुनाने लगीं खामोशियाँ" पर चन्द शब्द

गुनगुनाने लगीं खामोशियाँ - काव्य संग्रह 

कवि - श्री सतीश बंसल 

देहरादून 

अचानक कोई अजीज़ दोस्त मिल जाए और चाय-कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ शुरू हो जाए आत्मीय बातों का अंतहीन सिलसिला.. कुछ वो अपनी कहे और हम तन्मयता से सुनते रहें, और कुछ हमारे जज्बातों से वो भी जुड़ा-जुड़ा सा लगे.. कुछ अपनों की बातें हों, कुछ समाज की चर्चाएँ, कुछ मन की भावनाओं का आदान-प्रदान हो, सुख-दुःख को परस्पर साँझा करें, दिल के गहरे राज़ भी खोलें,.. और भी जाने क्या क्या बाते हों. कुछ ऐसा ही आत्मीय अनुभव रहा कविवर सतीश बंसल जी की काव्य रचनाओं से गुज़रना, जिन्हें पढ़ते-पढ़ते वक़्त थम सा गया..

 

अपनी रचनाओं के माध्यम से सतीश जी कभी प्रेम के मनोहारी संसार में खो जाते हैं, बातों-बातों में इतराते-इठलाते हैं, प्रिय की चंचल अदाओं का, शोखियों का, खूबसूरती का ज़िक्र करते हैं तो कभी काँधें पर सर रख कर विरह दंश और बेवफाई पर अश्रु बहा अपना दिल हल्का भी करते हैं.. उनकी रचनाएं कभी बुज़ुर्ग माता-पिता की पीड़ा का स्वर बनती हैं तो कभी मासूम बिटिया की पायल की रुनझुन झंकार बन कानों में गूंजती है.. कभी वो किसान की बेबसी पर उद्वेलित हो उठते हैं तो कभी कुशासन और नैतिक पतन उन्हें आक्रोश से भर देता है.. कभी वो विषमताओं से जूझने का हौसला देते हुए रौशनी की किरण दर्शाते हैं तो कभी आत्म-मंथन कर खुद को ही आत्मवार्ता के ज़रिये समझाते से दिखते हैं.. सर्व-धर्म समभाव, सामाजिक सद्भावना, पारस्परिक सौहार्द के साथ-साथ आपकी रचनाएं मातृ-स्वरूपा प्रकृति की सत्ता को भी नतभाव से सम्मान देती हैं.. आप लेखनी के माध्यम से विविध त्यौहारों का उल्लास और मिष्ठानों की मिठास सबमें बाँटते हैं तो वहीं आपकी  लेखनी अपनी पूरी श्रद्धा के साथ ईश्वर के परब्रह्म स्वरूप का भी नमन वन्दन करती है..

 

आपकी अभिव्यक्तियों में प्रेम का माधुर्य अपने पूर्ण संवेग के साथ पाठकीय चेतना को बहा ले जाता है और प्रेम के सतरंगी आसमान में पाठक भी कल्पनाओं के पंख खोल लम्बी उड़ान भरता है. आपके प्रेम गीतों में सहज प्रवाह है लयात्मकता है जिससे अनायास ही लब इन्हें गुनगुनाने लगते हैं..

ये हवा प्रीत के गीत गाने लगी, हर कली प्यार से मुस्कुराने लगी

ये नजारे भी रंगीन होने लगे, जिन्दगी खुद ही खुद गुनगुनाने लगी

कुछ अलग सा असर दिख रहा तरफ, नाज से झूम जाने लगी बदलियाँ

खुशनुमा खुशनुमा लग रहा है समां, गुनगुनाने लगी जैसे खामोशियाँ

 

प्यार मोहन भी है, प्यार राधा भी है, प्यार हर हाल मे, एक वादा भी है।

प्यार मुरली की धुन है मधुर तान है, प्यार चाहत नही, ये इरादा भी है॥

प्यार सीरत है, सूरत नही प्यार की, प्यार अहसास है दिल बसा लीजिये....

ईश्क हूं में, लबों पर सजा लीजिये प्यार का गीत हूं, गुनगुना लीजिये

 

शालीन शृंगार का निर्वाह करते हुए बहुत सुन्दरता से नायिका की खूबसूरत अदाओं को व सलोने स्वरूप को शब्द देते हैं..

कोमल बदन, कंटीले नैना ,अदा तेज तलवार

एक नजर तू देख ले जिसको, मरे बिना हथियार

 

प्रिय के बिना जीवन की कल्पना से ही रूह काँप उठती है, पल-पल भारी साँसों के साथ ऐसी विरह वेदना को बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति मिली है..

चढा है कर्ज सांसों का, तेरे बिन/ जिया हूं जिन्दगी भर, जिन्दगी बिन।

मुसाफिर हूं बिना मंजिल का मै तो/चला हूं पुतला बन के रात और दिन॥

 

में तुझे अलविदा कहूं कैसे/ दिल को दिल से जुदा कहूं कैसे

बिन तेरे एक पल भी मुश्किल है/उम्र भर में जुदा रहूं कैसे

 

प्रेम में जोगन हो जाना, पल भर के विछोह में भी तड़प उठना, प्रिय का साथ पा लेने की आकुलता, मन अंतर में बस प्रियतम के नाम का ही गुँजन.. प्रेम की इस नाज़ुक अवस्था को बहुत खूबसूरती से शब्दबद्ध करते हैं कवि..

उसके नाम की जोगन हो गयी, तन मन उसके नाम किया

ढूँढ रही हूँ उसको निश दिन, लब रटते बस पिया पिया

दिन भर चैन ना आये मुझको, बैरन शाम सिन्दूरी लागे

ढूँढ रही हूँ खुद ही खुद को, जब से नैना बैरी लागे

 

सामयिक परिदृश्य में जहां समाज का एक बड़ा भाग गरीबी, अशिक्षा, महिला सुरक्षा, ऊर्जा संकट इत्यादि  कई मूलभूत समस्याओं से ही निजात न पा सका हो वहाँ मूल समस्याओं से इतर डिजिटल इण्डिया, बुलेट ट्रेन्स, मार्स मिशन आदि क्या देश की उन्नति के लिए प्राथमिकताएं होनी चाहियें. क्या ये गरीब भारत के दशा पर तंज सा नहीं लगता.. इन बातों के साथ ही सत्ताधारियों को उनकी आत्ममुग्ध तंद्रा से झकझोर कर जगाने का सार्थक प्रयास करते हैं कवि अपनी लेखनी के माध्यम से..

आपकी बातें भी तूफान ला सकती है

उनकी आह भी बेदम है

उनकी आंखे तब भी नम थी

उनकी आंखे अब भी नम है

 

शासक दल के अच्छे दिन के जुमले पर, और प्रवक्ताओं द्वारा बार बार मीडिया पर अच्छे दिन आ जाने की रटन पर बहुत तीखा व्यंग करते हुए आप कहते हैं..

अच्छे दिन कहाँ हो तुम?

गूंजते हो दिन रात कानों मे

पर नजर नही आते।

 

नैतिक अवमूल्यन पर कवि की अंतर्वेदना कुछ यों मुखरित हो उठती है..

अब सब सत्ता के मोहरे है/ क्या राम लला और क्या ख्वाजा/ यहां दागदार दामन सबके/

कुछ दीख गये, कुछ छुपा गये/ खुद के मन के अंदर झांके/ वो इंसा जाने कहां गये

 

दुनिया मानव मूल्यों की ,परिभाषा भूल रही निश दिन ।
करुणा ,दया ,परोपकार की भाषा भूल रही निश दिन ।।

 

रचयिता ने दोरंगी तस्वीर रची है, कहीं खुशियाँ तो कहीं गम, कहीं महफ़िल तो कहीं वीरानगी, कहीं भरपूर भण्डार तो कहीं फाके... इस भाव को प्रस्तुत करते हुए बहुत ही बोधपराकता के साथ कवि नियंता की सत्ता को सर्वोपरि स्वीकारते हुए कहते हैं..

कोई दामन पडा छोटा, कोई दामन रहा खाली॥

कही गम मुफलिसी का है, कही खुशियां नवाजी है

उसी के बंदे डाकू है, उसी के बंदे काजी है

है पुतले हम उसी की डोर से दिन रात चलतें है

वो चाहे तो पलों मे जिन्दगी के पल बदलते है

 

बच्चों की मुस्कान निरख माता-पिता अपना हर दुख भूल जाते हैं, एक दिव्य उम्मीद उल्लास विश्वास जिजीविषा से भर जाता है उनका अंतर्मन. वही मासूम  मुस्कान अनमोल पूंजी की तरह संजो लाए हैं कवि अपनी इन पंक्तियों में..

तुम्हारी एक मुस्कान/ मेरी वो पूंजी, जो अजीज है मुझे अपनी हर दौलत से/ हर दर्द की दवा है, तुम्हारी एक मुस्कान

 

बचपन के दिन कैसे झटपट रेत की तरह हाथों से फिसल जाते हैं, वो पल फिर कभी लौट कर वापिस  नहीं आते, सतीश जी के गीतों में मिट्टी की सौंधी खुशबू सहेजे बचपन को फिर से जी लेने की चाह बहुत प्रखरता से स्वर पाती है..

चलो लौट चलें/ ममता के आंचल में/ बचपन के आंगन में/ उस गांव की गलियों में/ चलो लौट चलें/ बचपन बुलाता है/ मेरा गांव बहुत याद आता है.

 

दाम्पत्य में छली जाती स्त्री की वेदना को, मृत्यु के मुहाने पर खड़े होने पर भी जीवन जीने की उसकी विवशता को आपकी लेखनी पूर्ण संवेदनशीलता के साथ बहुत मार्मिक शब्द देती है..

सुन्न हो जाती है जुबान/ जमने लगती है सांसे/ रुकने लगती है धडकन/ और समेट कर सारे दुखों को

लेती है निर्णय जिन्दगी का/ क्योकिं पाल रही होती है/ एक और जिन्दगी अपनी कोख में/ पूछते हुऐ एक ही सवाल- इस समाज से, ईश्वर से/ आखिर उसका गुनाह क्या है?? क्या यही- कि वो एक औरत है ???

 

लौकिक जीवन में मानव मन सदैव तमोगुणीं या राजोगुणों प्रवृत्तियों से लिप्त रहता है. कवि निर्मल निश्छल हृदय से सतोगुणी होने की याचना करते हुए सर्वजन समभाव रख प्रेम की पवित्राग्नि से जीवन आलौकित करने को कहते हैं..

तेरा मेरा भेद भुलाकर,प्रेम करूँ सब से करुणाकर

इस मन को आलौकित कर दो, सदभावों की ज्योति जगाकर

मन पावन गंगाजल कर दो, तन सम्पूर्ण शिवाला हो/

 

सामाजिक मुद्दों पर कवि की लेखनी समाज का आईना बन प्रस्तुत हई है, कलम के योद्धाओं की आवाज़ को मौन कर दिए जाने के कुत्सित कृत्यों पर जन-जन में व्याप्त स्वाभाविक आक्रोश आपकी लेखनी के माध्यम से सशक्त स्वर पाता है..

कर्मनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, कब तक यूँ मारे जायेगे

कब तक सच को सच कहने वाले, दुत्कारे जायेगे

कब तक सच लिखने वाली, कलमों को तोडा जायेगा

कब तक कातिल हत्यारे ,नेता को छोडा जायेगा

चाहे जितना जुल्म ढहाओ, कलम रुकी ना कभी रुकेगी

ताकत के मद मे अंधे, दुष्टो के सम्मुख नही झुकेगी

 

आपकी कविताओं में प्रकृति प्रेम भी पूर्ण निष्ठा के साथ अभिव्यक्त हुआ है. प्रकृतिक पारिस्थितिकीय  संतुलन बहुत नाज़ुक होता है जिससे छेड़छाड़ के परिणाम की विभीषिका से कवि अपनी वाणी द्वारा  आगाह करते हैं..

दूर तक धूल मे मिले, अपने आलीशान निर्माण को देख ।

पल भर भी सम्हल ना सका, उसकी ताकत के प्रमाण को देख ।

अब भी होश मे आ, प्रकृति से खिलवाड से तौबा कर ।

 

प्राप्य को नतभाव से स्वीकार करते हुए स्रोत को धन्यवाद ज्ञापित करने का सनातन भाव पुनः प्रतिष्ठित करती उनकी प्रकृति को समर्पित अभिव्यक्ति की कुछ पंक्तियाँ देखिये

मानो हर लिये हों  तमाम दुख/ हरियाली की चादर ने/ अनायास ही नतमस्तक होने लगा मन/ प्रकृति के उपकारो पर/ देती है सब कुछ निस्वार्थ/ सदियों से/ ठीक उस मां की तरहा / जो करती है / सर्वस्व न्यौछावर/ बच्चों के लिये

 

आपकी अभिव्यक्तियों में प्रेम की तड़प है तो प्रेम की तृप्ति भी है, सात्विक शृंगार का सुखद निर्वाह है तो विछोह की आह भी है, समाज की विकृतियों पर वेदना है तो बाल सुलभ मासूमियत को पुनःश्च  पा लेने की सहज अभिलाषा भी है. आपकी लेखनी सिर्फ विकृतियों के विरुद्ध चीत्कार बन शोर मचाना नहीं जानती वरन विषमताओं को हरा देने के लिए संकल्पशील युवाओं की शक्ति को अपनी सराहना और प्रयासों के प्रति अनुमोदन द्वारा आश्वस्त करती भी नज़र आती है..

अच्छा लगता है जब बुराइयों के विरोध मे आवाज उठाते हो।

अच्छा लगता है जब मशाल लेकर एक साथ आते हो।

नौजवानो तुम , हिन्दुस्तान की उम्मीद हो।

अच्छा लगता है जब समाज को, सच का आईना दिखाते हो॥

 

काव्य धर्म निर्वहन आसान कहाँ.. इस राह पर चलने वालों को तो समाज के श्राप को जीना होता है.. समाज की वेदना को अपने दिल में महसूस करके कविहृदय रोता है, जख्मों को गहराई से सहता है, रात दिन असह्य पीड़ा में कराहता है, तड़पता है तब जाकर संवेदनशील हृदय से निस्सृत व्यथा शब्दों में उतरती है और जन्मती है ऐसी पंक्तियाँ जो मर्मस्पर्शी होती हैं. इसकी एक बानगी देखिये..

आँसू भरी कलम से कैसे, खुशियों की सौगात लिखूँ।

घनी अंघेरी रात को कैसे भला चांदनी रात लिखूँ।

मासूमो की घुटन भरी सिसकी, दिल को दहला देती है।

तुम्ही बताओ कैसे शहर के, अच्छे मैं हालात लिखूँ॥

 

आपकी कविताओं में सहज प्रवाह है.. भाषाई, छान्दसिक और व्याकरणिक क्लिष्टताओं से परे अपनी लेखनी में आप कोइ बात एक पहेली की तरह बूझने के लिए पाठकों के सामने नहीं रखते वरन बिलकुल सीधी साफ़ भाषा में एक आईने की तरह अपने मन की बातें दोस्तों से साँझा करते हैं.. आपकी रचनाओं में सच्चाई की बुलंदी है जो पूर्ण प्रखरता से आँख से आँख मिला कर सत्तासीनों को उनकी गलत नीतियों पर सीधे चेताती भी है तो जन सामान्य को भी उनके गलत आचरण व अस्वीकार्य व्यवहार पर सपाट शब्दों में डपटते हुए झकझोरती है. अतुकांत अभिव्यक्तियाँ यूँ तो आशुभावों की सहजतम प्रस्तुति ही प्रतीत होती हैं लेकिन यदि वो मनन मंथन के सघन दौर से न गुजरें तो उनके अनगढ़ सपाटबयानी बने रहने का ख़तरा रहता है. आपकी अतुकांत वैचारिक रचनाएं बहुत महीनता से इस सीमा रेखा को पार करती हैं, जिसमें तनिक और सजगता व कथ्यसांद्रता चार चाँद अवश्य ही लगा सकती है. टंकण में कई स्थानों पर वर्तनी की त्रुटियाँ रह गयी हैं जिनका संशोधन सुनिश्चित किया जाना चाहिए. साथ ही कविताओं से साथ लगाए गए छायाचित्र भी लेखनी की गरिमा को ध्यान में रखते हुए रेखाचित्रों या कलात्मक चित्रों से बदले जाने चाहिए. अक्षरियों के हिज्जों में किया गया सायास परिवर्तन जहाँ कहीं भी हो उसे सुधारा जाना अपेक्षित है.. अन्यथा प्रचलन में आ जाने से भाषा के शुद्ध स्वरुप में अपभ्रंश उत्पन्न होने का खतरा बना रहता है, जिसके प्रति सजग रवैया ही अपनाया जाना चाहिए.

 

मन में  खुशियों व गम की वृहद अनुभूतियों का सागर हो तो शब्द पन्नों पर उतर आने को लालायित रहते हैं, कवि की लेखनी टटोलती है उन संवेदनाओं को जो सबको अपनी सी लगती हैं. बहुरंगी भावों को प्रेमवत संजोता ये संकलन आम जन की हृदय आवृत्तियों का ही प्रतिबिम्ब बन कर प्रस्तुत हुआ है इसलिए मुझे पूरा विश्वास है कि इसे पाठकों का पूरा स्नेह सहजता से ही प्राप्त होगा. मैं कवि सतीश बंसल जी को उनके इस प्रथम काव्य संग्रह पर हार्दिक शुभकामनाएं देती हूँ.

 

डॉ० प्राची सिंह

डीन, एम.आई.ई.टी.-कुमाऊँ इंजीनियरिंग कॉलेज

हल्द्वानी, उत्तराखंड 

Views: 610

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

ajay sharma shared a profile on Facebook
6 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"शुक्रिया आदरणीय।"
Monday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, पोस्ट पर आने एवं अपने विचारों से मार्ग दर्शन के लिए हार्दिक आभार।"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। पति-पत्नी संबंधों में यकायक तनाव आने और कोर्ट-कचहरी तक जाकर‌ वापस सकारात्मक…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब। सोशल मीडियाई मित्रता के चलन के एक पहलू को उजागर करती सांकेतिक तंजदार रचना हेतु हार्दिक बधाई…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार।‌ रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर रचना के संदेश पर समीक्षात्मक टिप्पणी और…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब।‌ रचना पटल पर समय देकर रचना के मर्म पर समीक्षात्मक टिप्पणी और प्रोत्साहन हेतु हार्दिक…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, आपकी लघु कथा हम भारतीयों की विदेश में रहने वालों के प्रति जो…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय मनन कुमार जी, आपने इतनी संक्षेप में बात को प्रसतुत कर सारी कहानी बता दी। इसे कहते हे बात…"
Sunday
AMAN SINHA and रौशन जसवाल विक्षिप्‍त are now friends
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय मिथलेश वामनकर जी, प्रेत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय Dayaram Methani जी, लघुकथा का बहुत बढ़िया प्रयास हुआ है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service