सुनो ,
व्यर्थ गई तुम्हारी आराधना !
अर्घ्य से भला पत्थर नम हो सके कभी ?
बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर !
मैं देव न हुआ !
सुनो ,
प्रेम पानी जैसा है तुम्हारे लिए !
तुम्हारा मछ्लीपन प्रेम की परिभाषा नहीं जानता !
मैं ध्वनियों का क्रम समझता हूँ प्रेम को !
तुम्हारी कल्पना से परे है झील का सूख जाना !
मेरे गीतों में पानी बिना मर जाती है मछली !
(मैं अगला गीत “अनुकूलन” पर लिखूंगा !)
सुनो ,
अंतरंग क्षणों में तुम्हारा मुस्कुराना सर्वश्व माँगता है !
प्रत्युत्तर में मुस्कुरा देता हूँ मैं भी !
तुम्हारी और मेरी मुस्कान को समानार्थी समझती हो तुम -
जबकि संवादों में अंतर है -“ही” और “भी” निपात का !
संभवतः अल्प है तुम्हारा व्याकरण ज्ञान -
तुम्हरी प्रबल आस्था के सापेक्ष !
सुनो ,
मैं देव न हो सकूंगा !
मेरे गीतों में सूखी रहेगी झील !
मैं व्याकरण की कसौटी पर परखूँगा हर संवाद !
सुनो ,
मुझसे प्रेम करना छोड़ क्यों नहीं देती तुम ?
.
.
.
.
...................................................... अरुन श्री !
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जवाहर लाल सिंह सर , आपके शाब्दिक समर्थन हेतु हार्दिक धन्यवाद आपका ! सादर !
सौरभ सर , जिस तरह आपने रचना की भाव दशा को छुआ वो अत्यंत सुखकर है कि रचना अपने सम्प्रेषण में सफल रही ! सराहती हुई आपकी टिप्पणी ये भी बता रही है "क्या है" और उसमें किसे निषेध समझा जाय ! आपका हार्दिक आभार आदरणीय ! सादर !
Laxman Prasad Ladiwala सर , आपका शाब्दिक समर्थन अनमोल है ! धन्यवाद !
अरुन शर्मा अनंत भाई , आपका हार्दिक धन्यवाद !
राम शिरोमणि पाठक भाई , आपके शाब्दिक समर्थन के लिए धन्यवाद !
डा० प्राची सिंह मैम , बहुत बहुत धन्यवाद आपका ! सादर !
गिरिराज भंडारी सर , आपका मौन हो जाना रचनाकर्म की सार्थकता है ! धन्यवाद !
विजय मिश्र सर , रचना के मर्म को छूती हुई आपकी सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका !
बहुत ही उच्च कोटि की कविता और भाव! बहुत बहुत बधाई!
भाव का शाब्दिक होना और सायास रचा जाना जिस अंतर को जीते हैं, उस अंतर का मर्म सदा-सदा से मंथन का विषय रहा है. तत्काल मौखिक होना और तत्क्षण ही नियमाबद्ध हो जाना प्रारब्ध में वैशिष्ट्य की अपेक्षा करता है. अनष्टुप आज यथार्थ है न !
दूसरी ओर, यह कविता जिस उद्दात भावदशा को जीती हुई आगे बढ़ती है वह प्रतीकात्मक रूप से अभिन्न की संज्ञा में आत्मघुलन की पराकाष्ठा को साझा करती है. जहाँ पास्परिक रूप से सर्वस्व का विलोपन पहली अपेक्षा हुआ करती है. ऐसे में व्यक्तिगत साथ ही तथाकथित ’व्याकरण सम्मत’ विचारों का होना द्वंद्व तो अवश्य ही, साथ ही साथ, द्वैत के भी प्राकट्य का कारण हुआ करते हैं. जो कि अवश्य-अवश्य अस्वीकार्य हैं, और, त्याज्य हैं.
भाई अरुणजी, आपकी रचनाधर्मिता का उत्स देह की सापेक्षता है, जबकि उसका प्रभाव उर्ध्व हुआ मनस के उत्तुंग की ओर सफलतापूर्वक सरसता है. और, यही विशिष्टता है.
मेरे गीतों में सूखी रहेगी झील !
मैं व्याकरण की कसौटी पर परखूँगा हर संवाद
सांख्य के सूखेपन को जिस ऊँचाई से ये पंक्तियाँ जीती हैं उसका सानी नहीं है.
यहाँ प्रेम की सजलता प्रभावी तो लगती ही है, परस्पर भरोसे की कड़ियों को और प्रगाढ़ करती है.
बधाई-बधाई-बधाई.. .
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