नवगीत हिन्दी काव्यधारा की एक नवीन विधा है। नवगीत एक तत्व के रूप में साहित्य को महाप्राण निराला की रचनात्मकता से प्राप्त हुआ । इसकी प्रेरणा सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रहीम, रसखान की प्रवाहमयी रचनाओं और लोकगीतों की समृद्ध भारतीय परम्परा से है ।
नवगीत विधा नें गीत को संरक्षण प्रदान करने के साथ आधुनिक युगबोध और शिल्प के साँचे में ढाल कर उसको मनमोहक रूपाकार प्रदान करने का काम किया है । समकालीन सामाजिकता एवं मनोवृत्तियों को लयात्मकता के साथ व्यक्त करती काव्य रचनाएँ नवगीत कहलाती हैं। नवगीत में गीत की अवधारणा कदापि निरस्त नहीं होती, अपितु वह तो पूर्णतः सुरक्षित है। गीत के ही पायदान पर नवगीत खड़ा हुआ है।
यदि कोई रचना सिर्फ प्रस्तुति के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें आत्मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है, जो हृदय सागर में व्याप्त भावों से निस्सृत होती है, यदि वह जन चेतना को शब्द नहीं देती, यदि वह अंतस की पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति नहीं हैं, यदि वह उल्लसित हृदय का उन्मुक्त गीत नहीं है, यदि वह मस्तिष्क में कोई सवाल उठाने में सक्षम नहीं है, यदि उसमें मन में कौंधते सवालों का जवाब देने की सामर्थ्य नहीं है, यदि वह अमृत रसधार की वर्षा से जन मानस को संतृप्त नहीं करती, तो वह निष्प्राण है, बेमानी है। इसी दृष्टिकोण से किये गए रचनाकर्म में नवगीत के प्राण हैं।
नवगीत में कथ्य, प्रस्तुति के अंदाज, रागात्मक लय और भाव प्रवाह का रचाकार के हृदय में ही नवजन्म होता है। नवगीत जितना ही बौद्धिक आयाम में स्वयं को संयत रखता है और आत्मीय संवेदन की अभिव्यक्ति बनता है , उतना ही खरा उतरता है। समकालीन पद्य साहित्य में नवगीत नें अपने माधुर्य, सामाजिक चेतना और यथार्थवादी जनसंवादधर्मिता के ही कारण अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है ।
नवगीत का शिल्प :
अनुभूति की संवेदनशील अभिव्यक्ति किसी भी रचना को मर्मस्पर्शी बनाती है । महाकवि निराला की सरस्वती वंदना में “नव गति नव लय ताल छंद नव” को ही नवगीत का बीजमंत्र माना गया है ।
नवगीत सनातनी या शास्त्रीय छंदों में प्रयोग के तौर पर प्रारंभ हुए. जैसे, दोहे के मात्र विषम चरण को लेकर साधी गयी मात्रिक पंक्तियाँ, या किसी दो छंदों का संयुक्त प्रयोग कर साधी गयी पंक्तियाँ. आदि-आदि. बाद मे नवगीतकारों ने स्वयंसंवर्धित मात्राओं का निर्वहन करना प्रारम्भ किया और बिम्ब, तथ्य और कथ्य में भी विशिष्ट प्रयोग करने की परिपाटी चल पड़ी. इसी तौर पर आंचलिक या ग्राम्य बिम्बों पर जोर पड़ा.
समकालीन नवगीतकारों दो श्रेणियाँ आज स्पष्ट देखने को मिलती हैं : एक वे हैं जो छंदों को महत्त्व देकर उनकी मर्यादा में रहकर गीत लिखते हैं, और दूसरे वे हैं जो छंद में नए प्रयोग करते हैं और लय आश्रित गीत लिखते हैं । प्रथम मतावलम्बी कहते हैं कि नयेपन के लिए छंद तोड़ना आवश्यक नहीं, बल्कि उसकी सीमा का निर्वहन करते हुए आत्मा और हृदय की मुक्तावस्था को शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों, मुहावरों, अलंकारों के द्वारा नयेपन के प्रति प्रतिबद्ध होना आवश्यक है । वहीं दूसरे वर्ग के मतावलम्बी अनुभूतियों की भावात्मक और उन्मुक्त प्रस्तुति के लिए लय व विधान के निर्धारण में भी स्वतंत्रता व अनंत विविधता के पक्षधर हैं ।
नवगीत में एक मुखड़ा व दो-तीन या चार अंतरे होते हैं । हर अंतरे का कथ्य मुख्य पंक्ति से साम्य लिए होता है, व हर अंतरे के बाद मुख्य पंक्ति की पुनरावृत्ति होती है । हर अंतरे में अंतर्गेयता सहज व निर्बाध होती है साथ ही हर अंतरा दूसरे अंतरे व मुखड़े से सम्तुकान्ताता अनिवार्य रूप से रखता है । मुखड़े की पंक्तियाँ ही गीत की अंतर्धारा का निर्धारण करती हैं व गीत की आत्मा को चंद शब्दों में ही प्रस्तुत करने में समर्थ होती हैं ।
नवगीत में असाधारण कथ्य का एक उदाहरण पेश है..
"कांधे पर धरे हुए खूनी यूरेनियम हँसता है तम
युद्धों के लावा से उठते हैं प्रश्न और गिरते हैँ हम”
राधेश्याम बन्धु जी के नवगीत में से अदम्य जिजीविषा और चेतावनी का स्वर का एक उदाहरण देखिये
"जो अभी तक मौन थे वे शब्द बोलेंगे
हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे।"
मौसम पर आधारित नवगीत में परोक्ष सन्देश का एक उदाहरण देखिये
"धूप में जब भी जले हैं पाँव घर की याद आयी
नीम की छोटी छरहरी छाँव में डूबा हुआ मन
द्वार पर आधा झुका बरगद-पिता माँ-बँध ऑंगन
सफर में जब भी दुखे हैं पाँवघर की याद आयी”
इस नवगीत में ग्रीष्म का वर्णन भर न होकर संतप्त मनुष्य को अपनी जड़ों की ओर लौटने का परोक्ष संदेश भी निहित है
अटल जी के प्रस्तुत नवगीत में सामयिक कथ्य और पीढा की अनुभूति देखिये
"चौराहे पे लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखरी चाल
कि बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाऊ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं"
अटल जी के नवगीत में आह्वाहन भरी पंक्तियाँ देखिये
"आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।"
नवगीत लेखन में सावधानियाँ :
नवगीत जितना सहज होता है, उतना ही प्रभावशाली होता है। अतिशय प्रयोगशीलता के मोह में यह नहीं भूलना चाहिए कि संप्रेषणीयता भी रचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। भाषीय क्लिष्टता और प्रयुक्त बिम्बों की दुरूहता चौंकाती ज्यादा है और सुहाती कम है, जिसके कारण उसका पाठकों व श्रोताओं से सहज संवाद स्थापित नहीं हो पाता । नवगीत का सहज गीत होना भी ज़रूरी है ।
नवगीतों नें सदा से ही लोकजीवन से ऊर्जस्विता ग्रहण की है, किन्तु यह नवगीत का प्रतिमान नहीं है । आँचलिकता रचना में नव्यता लाती है, किन्तु जब आँचलिकता ही प्रधान हो जाए तो वह नवगीत का दोष बन जाती है और रचना का प्रयोजन ही पूरा नहीं करती। भाषायी स्तर पर किये गए अत्यधिक आँचलिक प्रयोग कथ्य की संप्रेषणीयता को कम करते हैं । कभी कभी तो रचनाओं को समझने के लिए शब्दकोशों का सहारा लेना पड़ता है । वास्तव में ऐसी क्लिष्टताओं से मुक्त गीत ही नवगीत होता है। अतः नवगीत में आँचलिक शब्दों को उनके परिवेश के अनुरूप ही संयत तरह से उठाना चाहिए ।
नवगीत में आत्मकथा कहने की प्रवृत्ति नहीं होती । जीवन के सुख-दुःख को विस्तार से समेटने, स्मृति की सिरहनों को सम्पूर्णता से शब्दशः व्यक्त करने , आगत अनागत को चित्रित करने , आपबीती का बखान करने आदि का विस्तार नवगीत में दोष माना जाता है ।
नवगीत में बिम्ब प्रधान काव्यता तो अभिप्रेय है, किन्तु सपाट बयानी नहीं , क्योंकि सपाट सिर्फ गद्य ही होता है, गीत नहीं। सपाट बयानी सम्प्रेषण का माधुर्य हर लेती है, बिना गेयता और प्रवाह के कोई भी अभिव्यक्ति नवगीत नहीं हो सकती ।
नवगीत सदा ही अर्थप्रधान होना चाहिए, कोरी तुकबंदी उसे फ़िल्मी गीत सा सतही, अत्यधिक आँचलिकता उसे लोक-गीत सा आँचलिक और आपबीती का बखान उसे सिर्फ साधारण गीत ही रहने देते हैं ।
नवगीत में मात्रा गणना के नियम :
नवगीत विधा गीत का ही नया आधुनिक स्वरुप है, तो जितने नियम गीत में होते हैं वह तो नवगीत में होंगे ही पर कुछ और नव्यता के साथ...
@सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि गीत क्या है......?
सुर लय और ताल समेटे एक गेय रचना जो अंतर्भावों की प्रवाहमय सहज अभिव्यक्ति हो
@अब यह जानना होगा कि समान गेयता और सुर लय ताल कैसे आते हैं?
यदि हम मात्रिक नियमों का पालन करते हैं... शब्द संयोजन में कलों के समुच्चय का निर्वहन करते हुए..यानी सम शब्दों के साथ सम मात्रिक शब्द लेकर व विषम शब्दों के साथ विषम मात्रिक शब्द लेकर.
स्वयं ही देखिये कि क्या एक पंक्ति में १४ मात्रा और दूसरी पंक्ति में १७ मात्रा किन्ही दो पंक्तियों में सम गेयता दे सकती हैं?
यह सही है कि मात्रा के निर्धारण में स्वतंत्रता होती है, पर जो निर्धारण मुखड़े में किया जाता है ...यदि अंतरे की अंतिम पंक्ति उसी का पालन नहीं करेगी तो फिर उसी लय में मुखड़े को दोहराया कैसे जाएगा..
यदि मुखड़ा १६, १६ का हो तो अंतरे की पंक्तिया भी ८ या १६ की यति पर होनी चाहियें
यदि मुखड़ा १२, १२ का हो तो अंतरे की पंक्तिया भी १२ की होनी चाहियें
इसमें ....अनंत विविधताएं ली जा सकती हैं इसीलिये इसे नियमबद्ध करना संभव नहीं है....पर एक बात ज़रूर है कि एक ही गणना क्रम का पालन तो पूरे गीत में करना ही चाहिए
अब एक महत्वपूर्ण बात आती है...कि सुधि पाठक जन और रचनाकार कई उदाहरण पेश कर सकते हैं जो इस क्रम का पालन न करते हों, फिर भी नवगीत की श्रेणी में लिए जाते हों... तो इस महत्वपूर्ण बात को समझना आवश्यक है, कि नवगीत विधा को साहित्यकारों का खुला समर्थन अभी तक प्राप्त नहीं है..
दुर्भाग्यवश इस विधा के आलोचक भी नहीं हैं, और जो आलोचक हैं वो पूर्वाग्रह ग्रसित हैं और इस विधा को ही अस्वीकार कर देते हैं तो शिल्प गठन पर तो चर्चा ही नहीं होती..
इस विधा में मात्रा का निर्धारण अभी तक नियमों में आबद्ध नहीं है, लेकिन यदि सुविवेक से कोई भी प्रबुद्ध रचनाकार एक गेयता में पंक्तियों को बाँधता है तो यह मात्रा निर्धारण या वार्णिक क्रम निर्धारण के बिना संभव ही नहीं.. इस बिंदु पर ही एक स्वस्थ चर्चा की आवश्यकता है... इसीलिये मैंने आलेख में किसी भी उदाहरण को प्रस्तुत नहीं किया था...
सभी पाठकों से मेरा आग्रह है कि कोई भी उदाहरण आप दें, और फिर हम उद्धृत नवगीत को नवगीत की कसौटी पर नापने तौलने का प्रयत्न करें और इस विधा पर अपनी एक समझ को विकसित होने का सुअवसर दें... न कि किसी भी अपवाद को उदाहरण मान कर नवगीत के प्रतिमान स्थापित कर लें...
सादर.
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नोट: प्रस्तुत आलेख अंतरजाल पर उपलब्ध जानकारियों व तदनुरूप विकसित निजी समझ पर आधारित है.
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भाई जी, सिर्फ़ लय आधारित किंतु अनियंत्रित मात्रिकता से संपोषित पंक्तियों की विवशताओं से गुजरना किसी संवेदनशील पाठक के लिए उस मीठे हलवे का मज़ा लेने जैसा हुआ करता है जिसके हर कौर में कंकड़ की कर्कश उपस्थिति हो. यह ध्यान रखना आवश्यक है.
जब मात्रिकता रचनाकार की रग़ों में बहने लगे तब लयाबद्ध पंक्तियाँ स्वयं पुलकती हुई उमगती आती हैं. वहाँ मात्रिकता हेतु सायास आग्रह नहीं होता. लेकिन यह तनिक आगे और निरंतर अभ्यास की चीज़ है. काव्य प्रयास की प्रारम्भिक अवस्था में इस तरह के तथ्यों का साझा होना कई-कई नव-हस्ताक्षरों को भ्रम में डाल देगा. जो वस्तुतः रचनाकर्म को गंभीरता से लेते हैं.
शुभम्
आदरणीय, मैंने अपनी टिप्पणी के बिंदु संख्या 3 पर इसी तथ्य को रेखांकित किया है । मात्रिकता का सम्यक निर्वाह ना होने पर प्रवाह हमेशा ही बाधित होता है । किंतु मुझे लगता है कि नवगीत की ओर रूझान पैदा करने के लिए थोड़ी छूट मिलनी चाहिए एवं प्रारंभ में लयमूलक नवगीत रचे जाएं जिसपर क्रमश: विद्वज्जन अपना मार्गदर्शन देते रहें ताकि अंतत: उस मुकाम को पाया जा सके जिसकी अपेक्षा यह मंच करता है । एकबारगी हम ये कहें कि मात्राएं संतुलित करके ही लिखें तो अपेक्षा कुछ अधिक बड़ी हो जाएगी । हां एक बात और निवेदन करना चाहूंगा कि आपने जिस तरह से सवैया आधारित श्रृंखला के माध्यम से बेहतरीन आलेख प्रस्तुत किया है, मात्राओं की गणना पर भी उसी तरह के एक संपूर्ण आलेख की महती आवश्यकता है जिसमें हर बारीकी को सरलता से सोदाहरण समझने में सहायता मिले । क्षमा सहित निवेदन करना चाहूंगा कि ओबीओ के पटल पर ऐसा एक भी आलेख मुझे नहीं मिला जो उस संपूर्णता में हो जो संपूर्णता आपके सवैया आधारित आलेखों में है, मेरा निहितार्थ स्पष्ट है कि मैं आपसे इसपर एक आलेख की अपेक्षा रखता हूं, सादर
आदरणीय राजेश जी, आपने बातचीत को सार्वभौमिक बनाये रखा, अच्छा किया. इससे दो बातें हुई हैं. एक तो सारा कुछ सबके लिए होगया है और ऐसा होना भी चाहिये. दूसरा, कि आप उन रचनाकारों की पैरवी करते नज़र आये हैं जो इन्हीं विन्दुओं पर मिले सुझावों को अपने हिसाब से लेते रहे हैं.
मात्रिकता के लिहाज से नव-हस्ताक्षरों हेतु जिन छूट की आप बात कर रहे हैं, भले ही शुरुआती दौर में क्यों न हो, आदरणीय, सही मानिये, उन्हीं तथाकथित छूट की बात छंदों में की गयी होती तो या ग़ज़लों में की गयी होती तो इस मंच पर जितनी सहजता और आसानी से छंद या ग़ज़ल लेखन का माहौल बना है, न बना होता. न इतने-इतने रचनाकार निर्दोष छंदों या ग़ज़लों में प्रस्तुति दे पाते. छूट सदा ही छूट बनी रहती है, चाहे वह विधा सम्मत छूट हो या नये-हस्ताक्षरों को उनकी आसानी के लिए दी गयी प्रारंभिक छूट हो.
आपको नवगीत लेखन में किन धारणाओं द्वारा यह सुझाव मिला कि लयबद्धता मात्रिकता का निर्वहन करा देती है, मुझे आजतक समझ में नहीं आया कि ऐसी धारणा आपके साथ न्याय कर पायी है या आपको उसने भ्रम में डाल दिया है.
यों, इस तथ्य का हमने भी अनुमोदन किया है कि लयबद्ध पंक्तियाँ मात्रिकता का स्वयं ही निर्वहन करती हैं, लेकिन आदरणीय वह बहुत बाद की चीज़ है. पहले तो मात्रिकता का प्रयास करना ही करना होता है.
जहाँ तक इस प्रसंग पर किसी आलेख की बात है तो आपका सादर धन्यवाद कि आपने मेरे कतिपय आलेखों की प्रशंसा की है. समयाभाव बहुत कुछ चाह कर नहीं होने देता. यह अवश्य है कि, ऐसी कोशिश भले मैं न कर पाऊँ, इस मंच पर अवश्य होगी.
लेकिन प्रस्तुत हुई रचनाओं पर टिप्पणियों के माध्यम से या आयोजनों में टिप्पणियों के माध्यम से होते संवाद बहुत कुछ स्पष्ट करते हुए हैं. इन्हीं विन्दुओं पर आपकी रचनाओं पर भी पाठकों ने आपसे अक्सर बहुत कुछ कहा है जो स्पष्ट सुझाव ही तो हैं.
//आपको नवगीत लेखन में किन धारणाओं द्वारा यह सुझाव मिला कि लयबद्धता मात्रिकता का निर्वहन करा देती है, मुझे आजतक समझ में नहीं आया कि ऐसी धारणा आपके साथ न्याय कर पायी है या आपको उसने भ्रम में डाल दिया है//
आदरणीय, मैं किसी भी भ्रम में नहीं हूं,हां शायद मैं अपनी बात स्पष्ट नहीं कर पाया । आपको जैसा कि ज्ञात ही है कि छंदबद्ध कोई भी रचना गायी जा सकती है पर उसे हम गीत नहीं कह सकते हैं । गीत में लय, गति एवं ताल होना सबसे आवश्यक चीज है एवं इनकी मौलिक नवीनता के साथ प्रस्तुति ही नवगीत है । यह मौलिक नवीनता केवल बिंब के स्तर पर ही नहीं छंद, मात्रा के स्तर पर भी होती है अगर ना हो तो वह नवगीत ना होकर केवल छंदबद्ध कविता हो जाएगी ना कि नवगीत । नवगीत का आयाम काफी विस्तृत है जिसमें अधोलिखित बिंदु मुख्य हैं 1. इसमें छंद को मूल रूप में रख सकते हैं 2. यौगिक छंदों का सहारा ले सकते हैं 3. छंदों की चरण संख्या घटा या बढ़ा सकते हैं 4. चरणों को तोड़ कर लिख सकते हैं 5. वृहत खंड योजना में पूरे नवगीत को लिख सकते हैं और 6. यहां तक कि छंदहीनता का भी सहारा ले सकते हैं । किंतु इन सबमें केवल और केवल एक ही बात मायने रखती है कि वह गीत की कसौटी पर खरी उतरे यानि उसमें लय, गति एवं ताल जरूर हो । नव गति, नव लय, ताल, छंद नव --- नवगीत इसी से बनता है ।
मात्रिकता भी इसी लिहाज से यहां परखी जाएगी कि रचनाकार किस योजना के तहत लिख रहा है । मात्रिकता को परखने का जो नियम छांदसिक रचनाओं पर लागू होता है नवगीत उससे आजाद है । नवगीत में पंक्ति दर पंक्ति मात्रिकता को परखना एक रूढ़ विचार है, नवगीत इससे बहुत आगे है ।
स्पष्ट है, मात्रिकता नवगीत में लय के पीछे ही चलेगी क्योंकि गीत लयमूलक ही होते हैं, सादर
आपने सभी बातें वही कहीं हैं जो वस्तुतः अभी तक कहा जाता रहा है. वस्तुतः मात्रिकता कोई बन्धन नहीं बल्कि शास्त्रीयता है. यही शास्त्रीयता साहित्य है और रचना के संदर्भ में वर्ण्य लय उसका लालित्य. शास्त्रीयता और लालित्य के सुखद संयोग को ही नवगीत की विधा संतुष्ट करती है. भाईजी, आपकी ही रचना ये सच है माँ मेरे मंतव्य को संतुष्ट करती हुई एक सधी हुई रचना बन पड़ी है. आप अपने विचारों को उसी रचना के परिप्रेक्ष्य में देखें.
वस्तुतः नवगीत की उदार धारा रचनाकारों द्वारा स्वयं ही तय मात्रिकता से लेकर पूर्व से ही उपलब्ध सूत्रों और मात्रिकता के नियमों से अपने अनुसार मात्रिकता को चयनित कर लेने जैसे दो पाटों के बीच से बहती है. यही विन्दु इस विधा के रचनाकार के प्रयास को अभिनव बना देता है.
पुनः निवेदन करूँगा, कि जहाँ कुअँर बेचैन, शेरजंग आदि-आदि ग़ज़लों के बह्र को अपने हिसाब से रूप दे कर नवगीत को बहाव दे रहे थे, वहीं नईम, रमानाथ अवस्थी, माहेश्वर तिवारी आदि-आदि उपलबध मात्रिकता को स्वेच्छा से नियत कर या अपने ढंग से मात्रिकता तय कर नवगीत की लहरों को आवेग दे रहे थे. प्रयोग भी तो कैसे-कैसे ?! दोहे के मात्र विषम चरण को लेकर या हरिगीतिका छंद के पद का प्रथम भाग या किसी सवैया को तोड़ कर या कुछ इसी तरह की मात्रिकता का निर्वहन होता था. फिर, मात्रिकता के नाम पर किसी का असहज होना आश्चर्य में भी डालता है कि कहीं मात्रिकता गणितीय आरोपण तो नहीं लग रही है !
//वस्तुतः नवगीत की उदार धारा रचनाकारों द्वारा स्वयं ही तय मात्रिकता से लेकर पूर्व से ही उपलब्ध सूत्रों और मात्रिकता के नियमों से अपने अनुसार मात्रिकता को चयनित कर लेने जैसे दो पाटों के बीच से बहती है. यही विन्दु इस विधा के रचनाकार के प्रयास को अभिनव बना देता है//
आदरणीय, आपका यह मंतव्य ''उदित भानु जिमि शिशिर निपाता'' को पूरी तरह चरितार्थ कर रही है । मुझे लगता है कि इस मार्गदर्शी सिद्वांत के बाद नवगीत में मात्रिकता को लेकर कोई संशय नहीं होना चाहिए । चौबीस कैरेट सोने सी खरी बात आपने कह दी है, सादर
रचनाकारों द्वारा स्वयं ही तय मात्रिकता.. यानि मुखड़े और अंतरे को नियत कर लयबद्ध करलें ताकि आगे की पंक्तियों में असहजता न बने.. जैसे कि आपने ये सच है माँ में किया है.. .
आपकी रचना ये सच है माँ कथ्य, तथ्य, मात्रिक-शिल्प, प्रभाव, गेयता, शब्द-संयोजन हर तरह से समृद्ध रचना है. इसकी बधाई यहाँ भी स्वीकारें, आदरणीय
आदरणीय सौरभ जी,
//हर अंतरा दूसरे अंतरे व मुखड़े से सम्तुकान्ताता अनिवार्य रूप से रखता है//
लेख में नवगीत के शिल्प के संबंध में इस निर्देश के परिप्रेक्ष्य में आप द्वारा उल्लिखित रचना की स्थिति के संबंध में मार्गदर्शन चाहूंगा।
आपका उद्धरण कहाँ से है यदि उसका मूल मिल पाया तो और स्पष्ट हो सकूँगा, भाईबृजेशजी.
आदरणीय सौरभ जी यह नियम उपर्युक्त लेख में 'नवगीत का शिल्प' के तहत चौथे पैराग्राफ की दूसरी पंक्ति में दिया हुआ है।
आदरणीय प्राची जी , लेख से बहुत कुछ समझा , कुछ शंका बाकी भी है , मात्रा विधान क्या कडाई से पालना ज़रूरी है , ऊपर के उदाहर्णो मे मात्राओं मे फर्क दिख रहा है , खास कर आदरणीय अटल जी की रचनाओं मे !!
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी,
इस आलेख पर आपका स्वागत है..
आपके संशय का स्वागत है..
//मात्रा विधान क्या कढाई से पालन करना ज़रूरी है//
आदरणीय, इस प्रश्न का उत्तर समझने से पहले मात्रिकता के महत्व को समझा जाना ज़रूरी है.. तब इस प्रश्न का उत्तर स्वतः ही मिल जाता है..
जहाँ तक आधुनिक समय में प्रचलित हो चुकी स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता की बात है तो इस बिंदु पर दो धाराएं विपरीत धुर पर दिखती ही हैं, और दोनों की ही मान्यता व्याप्त हैं.. अब सही गलत को तय करना तो बहुत मुश्किल है..
और यदि मेरी निजी मान्यता की बात है..तो मैं तो गीत-नवगीत में मात्रिकता का कढ़ाई से पालन करने की ही पक्षधर हूँ.
सादर!
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