वहाँ मैं भी पहुंचा मगर धीरे धीरे
१२२ १२२ १२२ १२२
बढी भी तो थी ये उमर धीरे धीरे
तो फिर क्यूँ न आये हुनर धीरे धीरे
चमत्कार पर तुम भरोसा करो मत
बदलती है दुनिया मगर धीरे धीरे
हक़ीक़त पचाना न था इतना आसां
हुआ सब पे सच का असर धीरे धीरे
ज़बाँ की लड़ाई अना का है क़िस्सा
ये समझोगे तुम भी मगर धीरे धीरे
ग़मे ज़िंदगी ने यूँ ग़फ़लत में डाला
हुये इल्मो फन बे असर धीरे धीरे
जिधर रोशनी की झलक मिल रही है
चलो ना, चलें हम उधर धीरे धीरे
मुहब्बत इनायत शिकायत या नफरत
करेंगे ये सारे असर धीरे धीरे
अँधेरा किसी दिन उजाला बनेगा
उफ़क पर दिखेगा सहर धीरे धीरे
दुकाने बजारें थियेटर खुले जब
हुआ गाँव मेरा नगर धीरे धीरे
सभी हड़बड़ी में गये गिरते पड़ते
वहाँ मैं भी पहुंचा मगर धीरे धीरे
वो अब तेज़ रौ के अलम ना उठायें
जो चलते रहे उम्र भर धीरे धीरे
**********************************
मौलिक एवं अप्रकाशित
सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh
सभी अशआर बहुत अच्छे हुए हैं
बहुत सुंदर ग़ज़ल
Jul 16
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीया प्राची जी , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार
Jul 18
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। बहुत खूबसूरत गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
Jul 24
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
वाह वाह
आदरणीय, आपकी प्रस्तुति पर पुन: आता हूँ।
करूँगा मैं चर्चा सबुर आप रक्खें
पुन: आ रहा हूँ मगर धीरे-धीरे
Jul 25
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय लक्ष्मण भाई ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार
Jul 29