वहाँ मैं भी पहुंचा मगर धीरे धीरे
१२२ १२२ १२२ १२२
बढी भी तो थी ये उमर धीरे धीरे
तो फिर क्यूँ न आये हुनर धीरे धीरे
चमत्कार पर तुम भरोसा करो मत
बदलती है दुनिया मगर धीरे धीरे
हक़ीक़त पचाना न था इतना आसां
हुआ सब पे सच का असर धीरे धीरे
ज़बाँ की लड़ाई अना का है क़िस्सा
ये समझोगे तुम भी मगर धीरे धीरे
ग़मे ज़िंदगी ने यूँ ग़फ़लत में डाला
हुये इल्मो फन बे असर धीरे धीरे
जिधर रोशनी की झलक मिल रही है
चलो ना, चलें हम उधर धीरे धीरे
मुहब्बत इनायत शिकायत या नफरत
करेंगे ये सारे असर धीरे धीरे
अँधेरा किसी दिन उजाला बनेगा
उफ़क पर दिखेगा सहर धीरे धीरे
दुकाने बजारें थियेटर खुले जब
हुआ गाँव मेरा नगर धीरे धीरे
सभी हड़बड़ी में गये गिरते पड़ते
वहाँ मैं भी पहुंचा मगर धीरे धीरे
वो अब तेज़ रौ के अलम ना उठायें
जो चलते रहे उम्र भर धीरे धीरे
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मौलिक एवं अप्रकाशित
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार , आपके पुनः आगमन की प्रतीक्षा में हूँ
Jul 29
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
इस प्रस्तुति के अश’आर हमने बार-बार देखे और पढ़े. जो वाकई इस वक्त सोच के करीब लगे उन्हें रख रह हूँ~ -
हक़ीक़त पचाना न था इतना आसां
हुआ सब पे सच का असर धीरे धीरे ... उस्तादाना
ज़बाँ की लड़ाई अना का है क़िस्सा
ये समझोगे तुम भी मगर धीरे धीरे ........ सिम्पली कमाल
जिधर रोशनी की झलक मिल रही है
चलो ना, चलें हम उधर धीरे धीरे ... फलसफा खूबसूरती से जाहिर हुआ है
मुहब्बत इनायत शिकायत या नफरत
करेंगे ये सारे असर धीरे धीरे ......... सही बात
इशारों को अगर समझो राज को राज रहने दो ..
बधाइयाँ बधाइयाँ
on Wednesday
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय सौरभ भाई , दिल से से कही ग़ज़ल को आपने उतनी ही गहराई से समझ कर और अपना कर मेरी मेनहत सफल कर दी आपका हार्दिक आभार |
on Wednesday