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श्रद्धेय सुधीजनो !

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-64, जोकि दिनांक 13 फरवरी 2016 को समाप्त हुआ, के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है. इस बार के आयोजन का शीर्षक था – “कोहरा/कुहरा”.

 

पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.

 

सादर

मिथिलेश वामनकर

(सदस्य कार्यकारिणी)

 

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1. आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा ‘वात्सायन’ जी

ग़ज़ल

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मनस पर छाया है सबके, वो कुहरा कैसे छँट पाये।

निगाहों को जो भरमाये, वो कुहरा कैसे छँट पाये।।

 

है हावी सोच पर सबकी, जो कुंदन और जो खनखन।

जो पर्दे सा पड़ा मन पे, वो कुहरा कैसे छँट पाये।।

 

जलाया जा रहा झण्डा, कलम पैसे का मुंह देखे।

विचारों से भला कहिये, वो कुहरा कैसे छँट पाये।।

 

सियासत में सुखनवर भी, करम पथ भूल बैठे हैं।

जो छाया सच की राहों मे, वो कुहरा कैसे छँट पाये।।

 

चलो तुम भी किसी मुद्दे पे, अपनी रोटियां सेंकों।

भला मतलब क्या "पंकज" से, वो कुहरा कैसे छँट पाये।।

 

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2. आदरणीय समर कबीर जी

छन्न पकैया (सार छंद)

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छन्न पकैया छन्न पकैया , कुहरा ऐसा छाया

सूरज भी तो अपने घर से , देखो निकल न पाया

 

छन्न पकैया छन्न पकैया , निकल न घर से बाहर

तनी हुई है चारों जानिब , कुहरे की इक चादर

 

छन्न पकैया छन्न पकैया , सफ़र बड़ा है मुश्किल

दिन में भी कुहरे के कारण , नज़र न आये मंज़िल

 

छन्न पकैया छन्न पकैया , कुहरे की ये ठंडक

सुकड़ सिमट कर बैठे हैं सब , जैसे कोई बंधक

 

छन्न पकैया छन्न पकैया , ख़तरा कम है हमदम

फोग लाइट लगी है देखो , अब गाड़ी में जानम

 

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3. आदरणीय सतविंदर कुमार जी

कुण्डलिया छंद

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कुहरा जब है फैलता,दिखे न कोई छौर

बिल्कुल जैसी रात ही,लगती सबको भौर

लगती सबको भौर,कुछ भी नज़र ना आए

रौशनी हो कैदी,कोहरा जब छा जाए

भ्रमित हो सब ज्ञान,मन हो जात है दुहरा

मिलता न कहीं ठौर,फैलता है जब कुहरा

 

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4. आदरणीय डॉ विजय प्रकाश शर्मा जी

अतुकांत

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कोहरे की चादर नें

ढँक दिया है

हमारा आसमान.

पहले हम क्षितिज

तक देख पाते थे

अपनी मंज़िल.

अब तो हमारे हाथ

नहीं देख पा रहे

एक दूसरे को,

हम नहीं पहचान पा रहे

अपने आप को,

अपने समय को,

समाज को.

अब कोहरा घना हो रहा है,

हुमारे हाथ से

फिसल गई है

सूरज की रोशनी.

शायद

निस्तेज हो गया है

हमारे भविष्य का

सूरज.

 

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5. आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी

“कुहरा अभी घना है माना” (गीत)

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क्यों प्रकाश की राह तकूँ अब

तम लगता जाना पहचाना

धूप यहाँ फिर खिल जायेगी ,कुहरा अभी घना है माना.

 

साथी बनकर तुमने मेरे

जीवन का राग चुराया क्यों

हो गए बेसुरे सुर सारे

वो निष्ठुर साज बजाया क्यों

अपनी धुन पर गाना है अब, तुम मत जीवन ताल सिखाना

धूप यहाँ फिर खिल जायेगी, कुहरा अभी घना है माना .

 

आडम्बर का पिंजरा था वो

सारे सपने क़ैद हो गये

लंबे बोझिल पतझड़ में फिर

मन बसंत के रंग खो गये

पतझड़ अपना जी लूंगी मैं, तुम बसंत बनकर मत आना

धूप यहाँ फिर खिल जायेगी,कुहरा अभी घना है माना.

 

जिस पथ पर तुमने पाँव रखे

चुन लिए वहाँ सारे काँटें

तुम दिल पर रखकर हाथ कहो

कब मेरे गम तुमने बाँटे

अब ज़ख्मों को लज्जित करने ,तुम मरहम कोई मत लाना

धूप यहाँ फिर खिल जायेगी, कुहरा अभी घना है माना.

 

था सही कहा तुमने उस दिन

भावुक मन से ही मै हारी

काश कभी आ पाती मुझमे

तुम जैसी वो दुनियादारी

मन तो अब भी गाता है पर, वर्जित है वो राग पुराना

धूप यहाँ फिर खिल जायेगी ,कुहरा अभी घना है माना

 

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6. मिथिलेश वामनकर  

कुहरा (अतुकांत मुक्त छन्द)

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फिर निगोड़ी ओस,

गिरती ही रही जब रोजो-शब....

बिन रुके,

बस दम-ब-दम जैसे पनीली आँख से

दर्द उतरा तो सरापा फिर पसरने लग गया।

 

आसमां के कुछ फ़रिश्ते बेझिझक ही आ गए,

बादलों की तान चादर इस जमीं पर।

और फिर,

पौ फटे ही छा गया-

कुहरा घना बिलकुल घना।

आज मौसम की नजर फिर खा गई धोका कोई।

फिर तो बाहर और भीतर इक बराबर धुंधलका।

फिर भला क्या हम,

हमारा दिल भी क्या?

 

ऐ फिज़ा !

अहसान हम पर कर जरा,

इतना बता-

इस घने कुहरे के पीछे कुछ छिपा है या नहीं?

दास्ताँ सदियों पुरानी या कोई अनजान शै?

कुछ नहीं है पार इसके,

ये यकीं हमको दिला।

कम-से-कम इस जगमगाती जिंदगी को छेड़ मत।

 

जेह्न की टेढ़ी सड़क पर,

दौड़ती है बस ख़याली गाड़ियाँ....

हेडलाइट चमचमाना छोड़कर, क्या देखती-

हर तरफ है धुंधलका बस धुंधलका।

 

आसमां के दोस्तों ने,

क्यों निभाई धूप से यूं दुश्मनी?

सूर्य की किरणें भी पल-पल ढूंढती है रास्ता,

किस तरह आये ज़मीं पर, कोई तो तदबीर हो।

इंकलाबी ना सही पर अम्न की तस्वीर हो।

 

दूर कितनी दूर लेकिन                       (संशोधित)

चुप खड़ा वह सूर्य देखो रो रहा है,

हर तरफ कुहरा ही कुहरा देखकर।

 

वादियाँ ख़ामोश है या खो गई उनकी सदा ?

सब शज़र,

सारे परिन्दें

और दरिया में यही / बेकरारी

ये फिज़ा की तीरगी पिघले जरा।

जिंदगी कुहरे में जैसे बेबसी के रात दिन,

फ़िक्र लेकिन है कहाँ इसकी किसी को ?

 

कुछ समझ आता नहीं अब क्या गलत औ क्या सही?

काँप जाता दिल कभी तो कांप जाते हम कभी।

लाख दिल को दे दिलासा ये सबा...

बेकार है।

 

इस घने कुहरे से जाना पार,

कब आसान है,

जो फिज़ा की सांस बनकर

जम गया सीने में तो?

फिर तो नस-नस में उतरकर सब हवा ले जाएगा।

सर्दियाँ मल्हार गाती बस यहीं रह जायेंगी।

इक सबब वो मर्सिया का फिर हमें दे जाएगा।

 

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7. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी

ग़ज़ल

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सिर्फ़ उल्फ़त निभाओ कुहरा है

आज मत आज़माओ कुहरा है

 

आप घर आज जा न पाएंगे

शब यहीं पर बिताओ कुहरा है

 

कब से हसरत है तुमको छूनेकी

मेरे नज़दीक आओ कुहरा है

 

जो है कहना कहो निगाहों से

मत लबों को हिलाओ कुहरा है

 

हादसा कोई हो न जाये कहीं

कार धीरे चलाओ कुहरा है

 

हो गए ख़त्म सब गिले शिकवे

चाय अबतो पिलाओ कुहरा है

 

शम्श निकला नहीं फलक पे अभी

घर से बाहर न जाओ कुहरा है

 

आज स्कूल बंद हैं बच्चों

घर पे छुट्टी मनाओ कुहरा है

 

ख़ुश न हो देख कर चना गेहूं

फसले आलू बचाओ कुहरा है

 

ठण्ड में कुछ तो मिल सके गर्मी

हाथ कसकर मिलाओ कुहरा है

 

रात तस्दीक़ है अभी बाक़ी

आग को मत बुझाओ कुहरा है

 

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8. आदरणीय शेख़ शहजाद उस्मानी जी

“घना कोहरा छंट जायेगा”  (अतुकांत)

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हाँ, मैं तो छा गया

सोते हुओं को उलझा गया

मत कीजिए

अलंकृत या कलंकित

घिसे-पिटे, घोर नकारात्मक,

ओछे शब्दों से मुझे

बंद कीजिए करना

प्रभावहीन टिप्पणियाँ

या फिर कीजिए

कुछ सकारात्मक!

उलझ गए न!

सब सुलझ जायेगा

जनता जब जागेगी

घना कोहरा छंट जायेगा!

 

हाँ, मैं हूँ भ्रष्टाचारी

अफ़सरों, अवसरों का आभारी

वे भी खायें, हम भी खायें

भीतर, बाहर तर जायें!

छोड़िये यह शोर-शराबा

या फिर कीजिए

कुछ सकारात्मक!

उलझ गए न!

सब सुलझ जायेगा

जनता जब जागेगी

घना कोहरा छंट जायेगा!

 

हाँ, मैं हूँ न

दुराचारी, बलात्कारी , व्याभिचारी!

अश्लीलता परोसते

लोभी मीडिया, इन्टरनेट का आभारी

वे कमायें, हम मिट जायें

दूषित मानसिकता अपनायें

बंद करिये यह देह- प्रदर्शन

या फिर कीजिए

कुछ सकारात्मक!

.......................

घना कोहरा छंट जायेगा!

 

हाँ, मैं हूँ शिक्षा का व्यापारी

शिक्षाविदों का आभारी

शिक्षा नीति वे बनायें

छात्रों के बस्ते भरवायें

पालक, शिक्षकों की लाचारी

बंद कीजिए यह पश्चिमीकरण

लगता है जो अंधानुकरण

या फिर कीजिए

कुछ सकारात्मक

.........................

घना कोहरा छंट जायेगा!

 

हाँ, मैं भी हूँ असहिष्णु

जो कल तक था

अद्वितीय सहिष्णु

नकारात्मक राजनीति का आभारी

ज़िद्दी कूटनीति की लाचारी

रोकिये बड़बोले वचन

या फिर कीजिए

कुछ सकारात्मक

.........................

घना कोहरा छंट जायेगा!

 

हाँ, मैं हूँ अब एक आतंकवादी

दिग्भ्रमित धर्म-गुरुओं का आभारी

गई मेरी ग़रीबी, लाचारी

बनकर आत्म-अत्याचारी

फैलाइये सार्थक शिक्षा

और सच्चा धर्म-ज्ञान

या फिर कीजिए

कुछ सकारात्मक

.........................

घना कोहरा छंट जायेगा!

 

हाँ, सच है , मैं हूँ कोहरा सा

सब पर भारी दोहरा सा

रखिये सोच-विचार

नीति और सियासत कल्याणकारी

या फिर कीजिए

कुछ सकारात्मक!

उलझ गए न!

सब सुलझ जायेगा

जनता जब जागेगी

घना कोहरा छंट जायेगा!

 

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9. आदरणीय डॉo विजय शंकर जी

“कोहरा मन को भाता है”  (अतुकांत)

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कोहरा

मन को भाता है।

पहाड़ पर

दिन के दूसरे पहर

घिर आये कोहरे में

जब साँसे थोड़ी थोड़ी

भारी-भारी सी लगें

बात करें और शब्द

सुनने से पहले

तैरते से दिखें तो

कितना अच्छा लगता है......

दूरररर तक कहीं

टहलते हुए जाना

मन भावन , सुहाना सा लगता है..........

 

धुंध में मौसम

कुछ और सुहाना लगता है ,

दूर कहीं बजता हुआ हो संगीत

तो वो भी पास , कितना नजदीक

बजता हुआ सा लगता है..........

भीनी भीनी सी खुश्बुओं में

दूरररर तक चलते जाना

कितना अच्छा लगता है............

 

उसी कोहरे और धुंध में

गर छोटे-छोटे धूल

और मिट्टी के कण

मिल जाएँ तो कोहरा

बदरंग हो जाता है ,

धुंध गहरा जाता है ,

साँसे मुश्किल ,

चलना भारी ,

आँखें मुंदती ,

रास्ता भी नहीं सुहाता है ,

जीवन थका ,बोझिल ,

रुक - रुक सा जाता है।

यूँ साफ़ हो धरती तो

कोहरा मन को भाता है।

क्या खूब सुहाता है।

 

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10. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

“कोहरा”  (दोहा छन्द)

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छाया है कुहरा घना, प्रकृति करे खिलवाड़।

राह दिखे ना पेड़ ही, ना खाई न पहाड़॥

 

सूरज में साहस नहीं, कुहरे को दे काट।

धरा चूमने के लिए, वो भी जोहे बाट॥

 

युग बीते दर्शन बिना, आँख गई पथराय।

कुहरा मन का जब छटे, प्रभु दर्शन मिल जाय॥

 

सुबह सुहानी तब लगे, जब कुहरा छा जाय।

हाथ पकड़ प्रियतम चले, रुक रुक कर लिपटाय॥ 

कुहरा भ्रम में डाल दें, दुर्घटना बढ़ जाय।

स्वर्ग धाम लाखों गये, लाखों विकल बनाय॥

धूल धुँआ भूकम्प धुँध, सूर्य आग बरसाय।

दूषित जल मिट्टी हवा, धरा नरक बन जाय॥                  संशोधित 

 

 

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11. आदरणीय डॉo टी आर शुक्ल जी

“कुहरा" (अतुकान्त)

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इस ‘बनक ठनक‘ का कनक पुष्प कलुषित न कर दे....

उस, दिव्य सुधा के प्रवाह को....।

अपनी, उन्मत्तता के उत्तम चलन से

निकली यह गंध-धुंध

कुहरा बन,

कहीं ढंक न ले उस पवित्र मार्ग को ,

जिसके अनुसंधान में ....

यह समस्त जीवन व्यतीत हो गया।।

 

ए मन!

ऐसा उपाय कर,

कि उस ‘दिव्य अखंड मिलन‘ का क्षण

समीप आ जाये। और,

उसकी धरोहर, उसी को समर्पित करके.....

चरमशाँति में विलीन कर दिया जाय,

इस सापेक्षिक सत्य को।।

 

क्यों कि,

इस अवनि पर अब तेरा जीवन व्यर्थ है,

तथाकथित सौंदर्य का यह  विषाक्त विकिरण,

मस्तिष्क को भ्रष्ट कर देगा।

अर्धनग्नता और वाह्याडंबर का यह प्रसार तुझको नियंत्रित नहीं होने देगा।

कामुकता के तीक्ष्ण त्रिशूल  तुझे सहन नहीं होंगे,

स्वार्थपरता और झूठ के वातावरण में तू ---

साँस कैसे लेगा??

 

कहीं ऐसा हो जाये....

कि,

मेरे जीवन के अंतिम क्षण तक संभावित 

सभी परिक्रमायें,

यह धरा,

एक ही बार में,

आज ही पूरी करले.... और

...और, मेरी साध पूरी हो जाये..!!

 

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12. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी

“तब जीवन का सार”  (दोहा छन्द)

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लेत विदाई कोहरा, आता देख बसंत,

पतझर कैसे ठहरता, करे स्वयं ही अंत |

 

मन से कुहरा हठ रहा, चलती मधुर बयार,

पतझड़ हो मन से विदा, तब जीवन का सार |

 

पीली सरसों उग रही, छटा निराली धार,

सुरमय कोयल कूकती, महक उठे कचनार |

 

भीनी खुशबू आ रही, हुई सुगन्धित भोर,

सूर्य घूमता बैठ रथ, सूर्य किरण चहुँ ओर |

 

अधिष्ठात्री सरस्वती, देती हमको ज्ञान

सुखद बने वातावरण, लेवे हम संज्ञान |

 

कुहरा मन से हठ गया, बहे कलम की धार

प्रथम पुष्प माँ शारदा, करों भेंट स्वीकार |

 

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13. आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी

नवगीत

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भारी-भारी साँसें लेती

और पहल क्या करती धरती ?

अब हासिल सब..

कुहा-कुहा-सा !

 

जितनी बीती, कौंध रही है,

आँखों में हर बात.. रात-भर..

भोर हुई तो हो जाती हैं

वो ही हरसिंगार टपक कर !

 

पर आँचल में धरती आखिर

कैसे ओड़े मान चुआ-सा ?

अब हासिल सब.. कुहा-कुहा-सा !

 

पीट कलाई आपसदारी

श्वेत वसन में पड़ी हुई है

माँग-चूड़ियाँ धोकर बेसुध

जमी ठण्ड-सी गड़ी हुई है

 

आडम्बर की ओट बना कर

घर भर खेले खेल जुआ-सा !

अब हासिल सब.. कुहा-कुहा-सा !

 

सुने हुए सब मनहर किस्से

अक्षर-अक्षर बिखर रहे हैं

मौन पसरता लील रहा है

बचे बोल तक सिहर रहे हैं

 

सध जाये तो.. सुध ले लेगी..

अभी तर्क है चुका हुआ-सा !

अब हासिल सब.. कुहा-कुहा-सा !

 

 

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14. आदरणीया नयना (आरती) कानिटकर जी

 कुहासा (अतुकान्त)

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मैं ढुंढती हूँ तुम्हें

टेबल पर, फाइलों में

किताबों से अटी

अलमारी के खानो में भी

कभी गाड़ी मे बैठे-बैठे

पास की सीट पर,तो कभी

बाजार मे हाथ मे लटकाए झोले संग

कभी-कभी तो

अमरुद की फाँक मे भी कि

खाएंगे संग

चटपटे मसाले के साथ और

झुमेंगे पेड़ो के झुरमुट मे,

पक्षियों के कलरव के बीच

फिर भिगेंगे प्यार की ओंंस मे

छुपते-छुपाते नज़रों से और

धो डालेंगे रिश्तों पर छाया कोहरा

नदी किनारे के कुहांसे में,

एकसार होकर

 

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15. आदरणीय सचिन देव जी

 कोहरा (दोहा छन्द)

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कुहरे की चादर कभी, जब कुदरत दे तान

तनिक धूप गायब दिखे, सूरज अंतरध्यान             (संशोधित)

 

कड़क ठण्ड पर कोहरा, जब-जब बोलें आप      

मुख बन जाये केतली, पल-पल छोड़े भाप

 

प्लेटफ़ॉर्म पे कर रहे, ढेर मुसाफिर वेट

कुहरे के कारण सभी, ट्रेन चल रहीं लेट

 

जले आग है हाथ में, अदरक वाली चाय  

आज बड़ा कुहरा घना, दिन ऐसे ही जाय  

  

दुख हो चाहे कोहरा, कितना भी बढ़ जाय

जब सूरज हो ताप में, क्षण भर मै मिट जाय

 

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16. आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी

 (सार छंद)

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आतंकी और देशद्रोही, कुहरा बनकर छाये ।

घर के विभिषण लंका भेदी, अपने घर को ढाये ।।

 

जेएनयू में दिखे कैसे, पाकिस्तानी पिल्ले ।

जुड़े प्रेस क्लब में भी कैसे, ओ कुलद्रोही बिल्ले ।।

 

किये देशद्रोही को नायक, बैरी बन बौराये ।

बैठ हमारी छाती पर वह, हमको आंख दिखाये ।।

 

जिस थाली पर खाना खाये, छेद उसी पर करते ।

कौन बने बैरी के साथी, उनकी झोली भरते ।।

 

अजब बोलने की आजादी, कौन समझ है पाये ।

उनकी गाली सुनकर सुनकर, कौन यहां बौराये ।।

 

लंगड़ा लगे तंत्र हमारा, अंधे बहरे नेता ।

मूक बधिर मानव अधिकारी, बनते क्यो अभिनेता ।।

 

वोट बैंक के लालच फसकर, जाति धरम बतलाये ।

राजनीति के गंधारी बन, सेक्यूलर कहलाये ।।

 

छप्पन इंची छाती जिसकी, छः इंची कर बैठे ।

म्याऊं-म्याऊं कर ना पाये, जो रहते थे ऐठे ।।

 

जिस शक्ति से एक दूजे को, नेतागण है झटके ।

उस बल से देशद्रोहियों को, क्यों ना कोई पटके ।।

 

सबसे पहले देश हमारा, फिर राजनीति प्यारी ।

सबसे पहले राजधर्म है, फिर ये दुनियादारी ।।

 

राजनीति के खेल छोड़ कर, जुरमिल देश बचाओ ।

देश गगन पर छाये कुहरा, रवि बन इसे मिटाओ ।।

 

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17. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

 (अतुकांत)

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अवरोध

बस एक यही तो नहीं है

जो सामने है

एक दर्शक और दृश्य के बीच

सत्य और अनुसंधान कर्ता के बीच

साधना और सिद्धि के बीच

जो फैला हुआ है

सारे वातावरण में

अल्प या अपारदर्शी चादर की तरह

 

और ये ,

स्वयँ हट भी तो जाता है

छिन्न भिन्न हो जाता है , सूरज के आते ही

दरकने लग जाती है बीच की अपारदर्शी  चादर , स्वयँ 

ज़िद छोड़ कर

कभी देर से ही सही

रास्ता दे ही देती है ,कोहरे की चादर

 

मुश्किल तो पैदा करता है

छाया हुआ वो कोहरा

जो फैल जाता है ,

दिलो दिमाग के सारे विस्तार में

पूरी तरह अपारदर्शी

आत्म मुग्धता का कोहरा

 

साधना और सिद्धि के बीच एक दीवार की तरह

ऐसी दीवार

जिसे कोई सूर्य हटा या गिरा नहीं पाता

और ये दीवार ,

स्वयँ कभी गिरती भी तो नहीं

बड़ी चालाक होती है ये दीवार

अंतर्ध्यान हो जाती है,

उनके सामने

जो सक्षम होता है इस दीवार को गिराने में

आत्म मुग्धता हमेशा सफल हो जाती है ,

खुद को बचाने में

 

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18. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी

 (हाइकू)

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चेहरा हरा-भरा

मिली सूचना

फ़ैल गया कोहरा

 

पंथी साफ-सुथरा

सूझता नही

धुंध और कोहरा

 

सूर्य आक्रोश भरा

शर्माया शीत

भाग रहा कोहरा

 

हुआ लाज दोहरा

संकोच मौन

अमूर्त्त है कोहरा

 

गेहूं का बाल हरा

दाने विरस 

जोह रहा कोहरा

 

कुचल कर मरा

पंथ का मध्य

शान तेरी कोहरा

 

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19. आदरणीया कान्ता रॉय जी

छन्न पकैया (सार छंद)

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छन्न पकैया छन्न पकैया , सर्द रात ये काटी

बर्फ -बर्फ हुई रक्त - रक्तिम , हिन्दुस्तानी माटी

 

छन्न पकैया छन्न पकैया , विपदा कैसी आई

वीर लडैया घर में हारे , कुहसा छँट ना पाई

 

छन्न पकैया छन्न पकैया, कैसा गोरखधंधा

नेता बनिया बने कसाई , जनतंत्र चढ़े कंधा

 

छन्न पकैया छन्न पकैया, गली में दंगल छाई

बात - बात में खड़ी हुई है , पहाड़ जैसी राई

 

छन्न पकैया छन्न पकैया, धुँध प्रीत पर छाई

शांत नदी में कंकड़ फेका , किसकी ये चतुराई

 

छन्न पकैया छन्न पकैया , सपनों का यह आना

मीठे सपनों का सिरहाना , कितना अब अनजाना

 

छन्न पकैया छन्न पकैया , दिल मेरा है बच्चा

मंद गति पर तंज ना कसियो , ख्याल रखियो चच्चा

 

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20. आदरणीय सुशील सरना जी

कोहरा (अतुकांत)

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कितना कोहरा है

फिर भी तुम मुझे

साफ़ नज़र आती हो

मेरी रातों की तुम

अनबुझ प्यास नज़र आती हो

करीब होने का अहसास

कितना हसीं ख्वाब होता है

लगता है कोई शबाब

जैसे पलक में कहीं सोता है

छुअन के लम्हे

तेरी करीबी को ज़िंदा रखते हैं

साथ साथ चलने के हसीं पल

मेरे ज़हन में जूही से महकते हैं

बर्फीली हवाओं में

मुहब्बत के अलाव दहकते हैं

कोहरे की चादर लपेटे

जब सहर

ज़मीं पे उतरती है

तो शब में गुज़रे

हया में लिपटे

इक दूजे में गुंथे

नर्म अहसासों के

मखमली जज़्बात

तेरी याद में पिघलते हैं

जब दूर से

दिल को तेरे आने की

सदा आती है

रूह जिस्म में ठहर जाती है

और फिर

कोहरे में ग़ुम होती पगडंडी में

अज़ल भी लौट जाती है

 

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21. आदरणीय मनन कुमार सिंह जी

(ग़ज़ल)

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भेदना लगता कठिन है कोहरा

धूम उठता लग रहा अब है जरा।1

 

राह भटका है मुसाफिर बावरा

ढूँढता उसको जहाँ पर है खड़ा।2

 

गुम हुआ प्रतिमान कबसे प्यार का

मंजिलें हैं दूर अबतक है पड़ा।3

 

तज अँधेरा फेरता मनका अगर

भागता मन का अँधेरा जो अड़ा।4

 

तू भगाने है चला तन का तमस

है तमस मन का कहूँ सबसे बड़ा।5

 

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22. आदरणीय प्रदीप कुमार पाण्डेय जी

(दोहा छन्द)

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ये पश्चिम का कोहरा ,दिखे न कोई अंत

वेलेंटाइन फेर में ,भूले सभी बसंत

 

बसा हुआ परदेश में ,बेटा कितनी दूर

छाया गम का कोहरा ,हैं आँखें बेनूर

 

दिखता कुहरे में छिपा ,सच का सूरज आज

इक  दिन मुहँ की खायगा ,झूठों का ये राज

 

आडम्बर का कोहरा ,प्रेम रहा है हार

बिना गिफ्ट होता नहीं ,आज प्रेम इज़हार

 

सच्चे जन सहमे दिखें ,फूले दिखें दबंग

स्वार्थ की इस धुंध में ,मन की गलियाँ तंग

 

माना छाया कोहरा, मन मत खोना धीर

अपना सूरज आयगा, इस कुहरे को चीर

 

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23. आदरणीय नादिर खान जी

कोहरा (अतुकांत)

==============================

 

मेरी आँखों के सामने कोहरा है

घना कोहरा

जो डरावनी शक्ल लिए

रोकता है, मुझे आगे जाने से

निकालता है, खौफनाक आवाज़ें

दिखाता है, नए नए डर

हर रोज़ ।

 

मै आस का दीप लिए

चल पड़ता हूँ हर रोज़

कोहरे के अंदर

तलाश में ज़िंदगी की,

ऐसी ज़िंदगी

जहाँ साजिशें न हों, गिरने और गिराने की

जहाँ सिर्फ मै – मै का स्वार्थ न हो

सब साथ – साथ हों

जहाँ लोग अपनी गलतियों पर शर्मिंदा होते हों

जहाँ लोग ईश्वर से डरते हों

जहाँ धर्म और अधर्म में फर्क हो।

 

मै आस का दीप लिए

ज्यों ज्यों पास जाता हूँ कोहरे के

वो मुझसे दूर होने लगता है

पर लौट आता है, मेरे पलटते ही 

जमाने लगता है, अपने पैर

फैलाने लगता है, अपनी बाहें

बढ़ाने लगता है, अपनी ताकत।

 

मै आस का दीप लिए

तलाशता हूँ अपनी ज़मीन

सबके बीच 

तलाशता हूँ अपना वजूद

सबके साथ

कोहरे के उसपार हर रोज़  ...

 

*****************************************************************

24. आदरणीय अरुण कान्त शुक्ला जी

घुप्प, शुभ्र घना कोहरा (अतुकांत)

==============================

 

घुप्प, कारी अमावस की रात के अँधेरे को

परास्त कर देता है

एक छोटे से टिमटिमाते दिए का प्रकाश

पर घुप्प, शुभ्र घने कोहरे को

कहाँ भेद पाता है अग्नि पिंड सूर्य का प्रकाश

 

प्रकाश का अँधेरे को परास्त करना है

अज्ञान पर ज्ञान की जीत

पर, कोहरे को परास्त नहीं कर पाता प्रकाश

क्योंकि, कोहरा अज्ञान नहीं

ज्ञान पर पड़ा अंधेरा है

 

समय आ गया है, पहचाने उन्हें

फैला रहे हैं जो ज्ञान पर

घुप्प, शुभ्र घना कोहरा

समय रहते यदि रोका न इनको

धिक्कारेंगी आने वाली पीढ़ियाँ

सदियों तक हमको 

 

 

 

 

*****************************************************************

25. आदरणीया ममता जी

कोहरा (द्विपदियाँ)

==============================

 

दूर -दूर तक पटी है कोहरे की चादर

फैले सौंदर्य का कर रही अनादर।

 

मन हो रहा हटा के कर दूँ हरेक दृश्य साफ,

सर्दी है हो गई खतम् लो रख दिए लिहाफ।

 

अल्हड़ सी धूप निकल आई , छाई हरेक ओर,

हरियाली झाँक सी रही, कोहरे का ढला दौर।

 

लो पुष्प भी खिले हैं कई रंग में गढ़े देह,

हम ठगे से खड़े हैं, हो कर के बस विदेह।

 

तन मन पे पड़ीं किरणें हैं ,साँसों में है महक

बटुए में धर कोहरे का धन, धरती रही चहक।

 

अब नग आवाज़े दे रहा ,हो कर हरा भरा ,

कई रोज़ से खड़ा था , यूँ ही मरा मरा।

 

पीली सी साड़ी पहन के, धरा हुई नई,

पल्लू में भरे रंग, इन्द्रधनुष के कई।

 

हो बावरे गए दिन, शुक-पिक करें हैं शोर,

लो आ गया वसन्त , मन में छाई नव सी भोर

 

 

*****************************************************************

26. आदरणीया डॉ वर्षा चौबे जी

कोहरा (अतुकांत)

==============================

 

कुहरे तुम हट जाओ

छटने दो इस धुंध को

और सूरज का प्रकाश

सबमें बिखरने दो|

देखो न कोहरे

तुममें छिपकर

सब अस्पष्ट-सा है

खुद को खुद का चेहरा

नजर नहीं आता

औरों का क्या आयेगा?

तुम उन रिश्तों पर से हटो

जहाँ तुम कभी लोभ,कभी अंह

कभी द्वेष बनकर छाए हो|

मैं अपनों को पहचान नहीं पाती|

कोहरे तुम देश पर से हटो

जहाँ तुम कभी भ्रष्टाचार,कभी राजनीति

तो कहीं अपराध बनके छाए हो|

मैं सोन चिरैया को पहचान नहीं पाती|

कोहरे तुम मन की

हर उस दीवारसे हट जाओ

जो हमें पिघलने से रोकती है|

तुम्हारी सर्द बूंदे गला रही हैं,

तन को मन को,देश को

और सम्पूर्ण मानव जाति को|

 

*****************************************************************

27. आदरणीय ब्रजेन्द्र नाथ मिश्रा जी

कोहरे का नहीं ओर-छोर (छन्द मुक्त)

==============================

 

सुबह कर रही साँय - साँय,

सूरज  कहीं छुपा लगता है।

सारा दृश्य, अदृश्य  हो रहा,

अँधेरा अभी पसरा लगता है।

 

अरुनचूड़ भी चुप बैठा है,

अलसाई - सी लगती भोर।

कोहरे का नहीं ओर- छोर।

 

सात घोड़ों पर सवार सूर्य भी,

कहाँ भटक गया गगन में?

हरी दूब पर पड़े तुषार हैं,

फूल झूम नहीं रहे चमन में।

 

नमी  फैला रही, सर्द हवाएँ,

पगडंडी भींग,  हुई सराबोर।

कोहरे का नहीं ओर- छोर।

 

थी स्याह रात उतरी धरा पर,

कँपकँपाती बदन बेध रही।

रजाई भी ठंढ से हार रही थी,

ठंडी हवाएँ हड्डियां छेद रहीं।

 

फूस का छप्पर भींग गया ओस से,

टीस भर गई पोर- पोर।

कोहरे का नहीं ओर- छोर।

 

आसमान, ज्यों तनी  है चादर,

धरती जिनकी बनी बिछौना।

कौन करे है उनकी चिंता,

फूटपाथ पर जिन्हें है सोना।

 

भाग्य का सूरज अस्त हो रहा,

अँधेरे छा रहे घनघोर।

कोहरे का नहीं ओर - छोर।

 

*****************************************************************

समाप्त

 

 

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महा उत्सव अंक ६४ के सफल आयोजन एवं संकलन के लिए हार्दिक बधाई।  27रचनाकारों की भागीदारी उत्साह वर्धक है। अच्छी रचनायें पढ़ने मेंआई।अंतिम दो संशोधित दोहे संकलन में प्रतिस्थापित करने की कृपा करें। ...सादर

छाया है कुहरा घना, प्रकृति करे खिलवाड़।

राह दिखे ना पेड़ ही, ना खाई न पहाड़॥

 

सूरज में साहस नहीं, कुहरे को दे काट।

धरा चूमने के लिए, वो भी जोहे बाट॥

 

युग बीते दर्शन बिना, आँख गई पथराय।

कुहरा मन का जब छटे, प्रभु दर्शन मिल जाय॥

 

सुबह सुहानी तब लगे, जब कुहरा छा जाय।

हाथ पकड़ प्रियतम चले, रुक रुक कर लिपटाय॥

 

कुहरा भ्रम में डाल दें, दुर्घटना बढ़ जाय।

स्वर्ग धाम लाखों गये, लाखों विकल बनाय॥

धूल धुँआ भूकम्प धुँध, सूर्य आग बरसाय।

दूषित जल मिट्टी हवा, धरा नरक बन जाय॥  

आदरणीय अखिलेश सर, मेरे प्रयास को अनुमोदित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका.सादर  

यथा संशोधित तथा प्रतिस्थापित 

आदरणीय मंच संचालक मिथिलेश जी सादर, ओबीओ लाइव महा उत्सव अंक ६४ के सफल आयोजन हेतु हार्दिक बधाई ।  मैं अपनी रचना में निम्न संशोधन का निवेदन करता हूॅ, यदि संशोधन के उपरांत भी त्रुटि हो तो मार्गदर्शन करने की कृपा करेंगे -

सार छंद

आतंकी और देशद्रोही, कुहरा बनकर छाये ।
घर के विभिषण लंका भेदी, अपने घर को ढाये ।।

जेएनयू में दिखे कैसे, बैरी दल के पिल्ले ।
जुड़े प्रेस क्लब में भी कैसे, ओ कुलद्रोही बिल्ले ।।

किये देशद्रोही को नायक, बैरी बन बौराये ।
बैठ हमारी छाती पर वह, हमको आंख दिखाये ।।

जिस थाली पर खाना खाये, छेद उसी पर करते ।
कौन बने बैरी के साथी, उनकी झोली भरते ।।

अजब बोलने की आजादी, कौन समझ है पाये ।
उनकी गाली  को सुन सुनकर, कौन यहां बौराये ।।

लंगड़ा लगे तंत्र हमारा, अंधे बहरे नेता ।
मूक बधिर मानव अधिकारी, बनते क्यो अभिनेता ।।

वोट बैंक के लालच फसकर, जाति धरम बतलाये ।
राजनीति के गंधारी बन, सेक्यूलर कहलाये ।।

छप्पन इंची छाती जिसकी, छः इंची कर बैठे ।
म्याऊं-म्याऊं कर ना पाये, जो रहते थे ऐठे ।।

जिस शक्ति से एक दूजे को, नेतागण है झटके ।
उस बल से देशद्रोहियों को, क्यों ना कोई पटके ।।

सबसे पहले देश हमारा, फिर राजनीति प्यारी ।
सबसे पहले राजधर्म है, फिर ये दुनियादारी ।।

राजनीति के खेल छोड़ कर, मिलजुल देश बचाओ ।
देश गगन पर छाये कुहरा, रवि बन इसे मिटाओ ।।

आदरणीय रमेश चौहानजी, आपके छन्द अभिधात्मक अर्थात सपाटबयानी का शिकार हो गये हैं. रचनाओं में तुकान्तता या मात्रिकता या वर्णिकता के साथ-साथ कवितापन भी होना चाहिए. है न ? कहन में सपाटबयानी से कविताओं का कवितापन न केवल कम होता है बल्कि रचनाओं का स्तर भी कमतर होता जाता है. विश्वास है, आप मेरे कहे का अर्थ समझ रहे हैं आदरणीय.

शुभेच्छाएँ

आदरणीय, सादर नमस्कार
आपका यह मार्गदर्शन मै सदा याद रखंगा ‘कविता में कवितापन होना चाहीये‘ आपके इस आशीष के लिये सादर अभिनंदन

आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी,  मेरे प्रयास को अनुमोदित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका.सादर  

आदरणीय सौरभ सर के मार्गदर्शन पर अवश्य ध्यान दीजियेगा. उनके मागदर्शन अनुसार संशोधन की गुंजाइश है. तत्पश्चात एक साथ संशोधन प्रतिस्थापित कर दूंगा. सादर 

आदरणीय मिथिलेश भाईजी, आयोजन की सभी मान्य रचनाओं के संकलन को इतनी शीघ्रता से प्रस्तुत करने केलिए हार्दिक धन्यवाद.

रचनाओं पर पाठकों की यथोचित प्रतिक्रिया कई रचनाकारों के लिए आवश्यक भी है. लेकिन इसी के साथ आवश्यक यह भी है कि रचनाकार-पाठक अन्य रचनाकारों की रचनाओं पर यथोचित अमय दें. उन्हें समझने का प्रयास करें तथा किसी विन्दु पर कुछ तथ्य साझा करना आवश्यक लगे तो अवश्य साझा करें. इस बार ही नहीं कई बार से यह् अलग रहा है कि कुछ पाठक पाठकधर्मिता का निर्वहन नहीं करते चाहे इसके लिए उनके पास जो भी तर्क हों. यह किसी मंच केलिए, विशेष कर ओबीओ जैसे साहित्यिक मंच केलिए, शुभकारी नहीं है. इस मंच पर अधिकांश पाठक रचनाकार ही हैं. अतः वाचन के क्रम में चलताऊपन हर तरह से रचनाकर्म को प्रभावित करेगा.

कोई रचना चाहे जिस विधा में हो, उसका मूल स्वर पाठक से संवाद बनाना ही है. चाहे वह पाठक उस रचना का स्वयं रचनाकार ही क्यों न हो. इस तथ्य की गरिमा का निर्वहन रचना मात्र की ओर से नहीं हो सकता. इसके प्रति हम सदस्यों को सचेत और जागरुक ही नहीं संवेदनशील भी रहना चाहिए. 

शुभ-शुभ

आदरणीय सौरभ सर,  मेरे प्रयास को अनुमोदित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका. पारिवारिक महत्वपूर्ण दायित्व के कारण ओबीओ पर सक्रीय नहीं रह सका. आपका हार्दिक आभार कि आपने नव अभ्यासियों के प्रश्नों का समाधान एवं मार्गदर्शन प्रदान किया. 

आदरणीय आपने सही कहा कि रचनाओं पर पाठकों द्वारा पाठकधर्मिता का निर्वहन नहीं किया जा रहा है. किसी भी रचना या कविता को गंभीरता से पढ़कर उसके मूल भाव को पकड़ना और विंदुवार कविता को खोलते जाना कम से कम एक पाठक जो रचनाकार भी है, के लिए अनिवार्य है. एक रचनाकार जो रचना में लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग करते हुए संश्लिष्ट अर्थयुक्त रचनाकर्म करता है तो वह अपने पाठक से अपेक्षा करता है कि रचना से पाठक का संवाद भी हो सके. हर रचना को सरसरी तौर पर पढ़कर चलताऊ टिप्पणी करना साहित्यकर्म को प्रभावित करेगा. यह भी अवश्य है कि मंच पर नव अभ्यासी अधिक है. लेकिन जहाँ रचना या कविता का मूल भाव पकड़ में नहीं आ रहा हो, जहाँ कविता खोलना मुश्किल लग रहा हो वहां मंच पर अपनी बात रखकर गुणीजनों से मार्गदर्शन भी लिया जा सकता है. इससे न केवल नव अभ्यासियों को कविता समझने में आसानी होगी बल्कि कविता समझने की समझ भी विकसित होगी. 

कविता समझ न आये तो अपनी बात स्पष्ट कह देना उचित है और इससे मंच की सीखने सिखाने की परंपरा भी पुष्ट होगी. सादर 

आदरणीय मिथिलेश भाई, आपके दादाजी की मृत्यु के रूप में आपके परिवार में हुई अपूरणीय क्षति के प्रति हम सभी का हृदय नम है. इसके बावज़ूद आपका मंच पर तत्काल सक्रिय हो जाना आपकी उत्तरदायी भावना और आनुशासिक आचरण का ही परिचायक है. 

// जहाँ रचना या कविता का मूल भाव पकड़ में नहीं आ रहा हो, जहाँ कविता खोलना मुश्किल लग रहा हो वहां मंच पर अपनी बात रखकर गुणीजनों से मार्गदर्शन भी लिया जा सकता है. इससे न केवल नव अभ्यासियों को कविता समझने में आसानी होगी बल्कि कविता समझने की समझ भी विकसित होगी. .. कविता समझ न आये तो अपनी बात स्पष्ट कह देना उचित है और इससे मंच की सीखने सिखाने की परंपरा भी पुष्ट होगी. //

आप द्वारा मेरे कहे के निहितार्थ को समझने और अपने स्पष्ट मंतव्य देने के लिए हार्दिक धन्यवाद.

आदरणीय मिथिलेश भाई, रचनाकार सतत अभ्यास करें यह तो आवश्यक है ही, यह भी आवश्यक है कि रचनाकार यह भी साझा किया करें कि उन्होंने किसी सार्थक रचना से क्या संप्रेषित होता हुआ महसूस किया. यह किसी रचना को ’पढ़ने’ का सबसे उत्तम तरीका है. कम से कम ओबीओ जैसे किसी साहित्यिक मंच पर किसी सार्थक रचना को पढ़ने का सबसे सही तरीका यही है. यही होना चाहिए.  अनावाश्यक ’बहुत अच्छा’, ’लाज़वाब’ आदि की कोई आवश्यकता नहीं है.

लेकिन.. लेकिन, सबसे आवश्यक यह है कि अभ्यास कर्म के क्रम में रचनाकारों के मन में यह प्रश्न अवश्य कौंधे कि उनकी किसी ’रचना’ को कोई पाठक क्यों पढ़े ?  उक्त रचना से क्या कोई तथ्य, कथ्य, शिल्प के संयोजन से कुछ भी निस्सृत हो रहा है ? हमने एक रचनाकार के तौर पर ऐसा क्या कहा या रचा है कि कोई उस पर समय दे ?

अभ्यासकर्म जब समर्पण भाव से होंगा, तो एक जिम्मेदार पाठक उक्त रचना को सुधारात्मक दृष्टि से पढ़ता है. वह अपनी समझ भर अपने विन्दु रखता है. कई पाठकों के ऐसे ही कई विन्दु मिल कर ही किसी रचना को भावनात्मक, तार्किक, साहित्यिक दृष्टि से ’शुद्ध’ करती है. ’शुद्ध’ कर सकती है.

अभ्यास कर्म की कसौटी यह होनी चाहिए. 

सादर

आदरणीय मिथिलेश जी ! सभी मित्रों की तरह मैं भी इस महोत्सव के सफल आयोजन और त्वरित संकलन के लिए बधाई देना चाहता हूँ कृपया स्वीकारें। आज एक साथ सभी विद्वानों की रचनाओं को पढ़ डाला , सचमुच आनंद आया। इससे भी अधिक आनन्द आया आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी और आपके द्वारा दिए गए उन प्रश्नों के उत्तरों को पढ़कर जो जिज्ञासु मित्रों द्वारा पूंछे गए थे।
मेरे मन में भी एक जिज्ञासा उमड़ रही है डरता हूँ कि उसे यहाँ पूंछू या नहीं , पर सहस कर पूंछना चाहता हूँ कि क्या -
१- लघुकथा और कविता का मेल हो सकता है ?
२ - कभी उपरोक्त क्र १ पर किसी ने नया प्रयोग किया है ?
३ - यदि हाँ , तो कोई उदाहरण ?
सादर।

आदरणीय टी आर शुक्ल जी, मेरे इस प्रयास पर आपका अनुमोदन आश्वस्तकारी है. इस हेतु हार्दिक आभार आपका. प्रस्तुत हुए संकलन में सभी प्रस्तुतियों का एक साथ वाचन आपके लिए आनंददायक रहा, यह जानकर गदगद हूँ. आदरणीय सौरभ पाण्डेय सर और मेरे द्वारा साझा किये गए तथ्यों एवं विचारों से आप लाभान्वित एवं आनंदित अनुभव कर रहें हैं यह जानना मेरे लिए भी तुष्टकारी है. सादर

 

१. लघुकथा और कविता का मेल हो सकता है ?

>लघुकथा एवं कविता दोनों ही साहित्य की विशिष्ट और अलग अलग विधाएं है जिनकी अपनी अपनी विशिष्टता, विशेषता एवं विधान है. कोई भी विधा किसी दूसरी विधा का स्थापन्न नहीं हो सकती है. अतः आप लघुकथा एवं कविता में कैसा मेल जानना चाह रहें हैं मैं स्पष्ट नहीं हूँ. क्योकिं अगर कोई रचना लघुकथा है तो वह कविता नहीं हो सकती और यदि कविता है तो लघुकथा नहीं हो सकती. यह अवश्य है कि आंशिक कथ्य और मूल भाव में समानता पाई जा सकती है. सादर


२ - कभी उपरोक्त क्र १ पर किसी ने नया प्रयोग किया है ?

  >ऐसा कोई प्रयोग कम से कम मेरी जानकारी में नहीं है.


३ - यदि हाँ , तो कोई उदाहरण ?

   >उपरोक्तानुसार

सादर.

आदरणीय मिथिलेश भाई, आपकी बातें पूरी तरह दुरुस्त हैं. साथ ही, आप यह भी जोड़ दें कि मात्र आकार के कारण किसी एक विधा को दूसरी के समकक्ष रखना भी नहीं चाहिए. पद्य में भी लघु आकार की कई  विधाएँ हैं. नयी कविताओं में क्षणिकाएँ, शाब्दिका, भाव-चित्र, शब्द-चित्र आदि. हम सब भी ऐसी रचनाएँ इसी मंच पर पोस्ट करते रहे हैं. लेकिन लघुकथा का पूरा का पूरा विधान ही विशिष्ट श्रेणी का है. अतः उसके विधान से कोई घालमेल विधागत घालमेल के समकक्ष कहलायेगा. 

हाँ, गद्य और पद्य के मिलान पर अवलम्बित भी रचनाकर्म होते हैं. अर्थात, गद्य में ही पद्य की पंक्तियाँ. साहित्यांगन में इसके कई उदाहरण हैं. हाल में ही, त्रैमासिक पत्रिका ’विश्वगाथा’ के सम्पादक भाई पंकज त्रिवेदी का एक रोचक कथा-संग्रह आया है, ’मत्स्यकन्या और मैं’. संकलित कई कहानियों में से मुख्य कहानी, जो वाकई एक लम्बी कहानी है, ’मत्स्यकन्या और मैं’, इसी तरह की विधा का सार्थक उदाहरण है. इसे ’चम्पू’ साहित्य कहते हैं. 

शुभेच्छाएँ. 

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