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ग़ज़ल- ज़ार ज़ार रोते हैं

212 1222

1

ज़ार ज़ार रोते हैं

जब वो होश ख़ोते हैं

2

ख़्वान ए इश्क वाले ही

तो फ़कीर होते हैं

3

लोग क्यों अदावत में

हाथ खूँ से धोते हैं

4

डोरी में वो सांसों की

आरज़ू पिरोते हैं

5

चाहतों की गठरी सब

उम्र भर सँजोते हैं

6

क्यों अज़ीज़ अपने ही

अश्कों में डुबोते हैं

7

ख़्वाब देखने वाले

रात भर न सोते हैं

मौलिक व अप्रकाशित

रचना निर्मल

दिल्ली

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Comment

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Comment by Rachna Bhatia on April 3, 2021 at 10:06pm

आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार। सर्, ग़ज़ल तक आने तथा इस्लाह देने के लिए आपकी आभारी हूँ। सर्, शायद फिर ग़लत अर्थ लिया है मैंने..

ख़्वान-ए-इश्क़

KHvaan-e-ishq خوان عشق

spread of love

अगर ठीक नहीं तो ऊला बदलने की कोशिश करती हूँ। सादर।

Comment by Samar kabeer on April 3, 2021 at 7:46pm

मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'ख़्वान ए इश्क वाले ही'

ये मिसरा समझ नहीं आया ।

कृपया ध्यान दे...

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