Comments - (ग़ज़ल - इस्लाह के लिए) अक्सर तन्हाई में रोया करता हूँ -(गुरप्रीत सिंह) - Open Books Online2024-03-29T05:32:01Zhttps://openbooks.ning.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A895051&xn_auth=noशुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण जीtag:openbooks.ning.com,2017-11-09:5170231:Comment:8957242017-11-09T05:58:11.940ZGurpreet Singh jammuhttps://openbooks.ning.com/profile/GurpreetSingh624
शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण जी
शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण जी शुक्रिया आदरणीय अजय तिवारी जीtag:openbooks.ning.com,2017-11-09:5170231:Comment:8956542017-11-09T05:57:42.620ZGurpreet Singh jammuhttps://openbooks.ning.com/profile/GurpreetSingh624
शुक्रिया आदरणीय अजय तिवारी जी
शुक्रिया आदरणीय अजय तिवारी जी बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर…tag:openbooks.ning.com,2017-11-09:5170231:Comment:8957232017-11-09T05:57:17.391ZGurpreet Singh jammuhttps://openbooks.ning.com/profile/GurpreetSingh624
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर जी ..आपकी इस्लाह के मुताबिक ग़ज़ल में बदलाव कर रहा हूँ जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर जी ..आपकी इस्लाह के मुताबिक ग़ज़ल में बदलाव कर रहा हूँ जी हार्दिक बधाई ।tag:openbooks.ning.com,2017-11-06:5170231:Comment:8954632017-11-06T17:45:19.650Zलक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'https://openbooks.ning.com/profile/laxmandhami
हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई । आदरणीय गुरप्रीत जी,
अच्छी ग़ज़…tag:openbooks.ning.com,2017-11-06:5170231:Comment:8955112017-11-06T06:53:42.891ZAjay Tiwarihttps://openbooks.ning.com/profile/AjayTiwari
<p>आदरणीय गुरप्रीत जी, </p>
<p>अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक शुभकामनाएं.</p>
<p>बाकी आदरणीय समर साहब सब कह चुके हैं.</p>
<p>सादर </p>
<p>आदरणीय गुरप्रीत जी, </p>
<p>अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक शुभकामनाएं.</p>
<p>बाकी आदरणीय समर साहब सब कह चुके हैं.</p>
<p>सादर </p> जनाब गुरप्रीत सिंह जी आदाब,ग़ज़…tag:openbooks.ning.com,2017-11-05:5170231:Comment:8950062017-11-05T16:16:18.660ZSamar kabeerhttps://openbooks.ning.com/profile/Samarkabeer
जनाब गुरप्रीत सिंह जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीजर करें ।<br />
'पत्थर इक ना इक दिन पिघलेगा पगले'<br />
इस मिसरे को यूँ करें तो गेयता बहतर हो जाएगी:-<br />
'एक न इक दिन पत्थर पिघलेगा पगले'<br />
'क्यों करता हूँ हुस्न से वफ़ा की उम्मीदें'<br />
इस मिसरे की लय ठीक नहीं,इसे यूँ कर सकते हैं :-<br />
'हुस्न से क्यों करता हूँ वफ़ा की उम्मीदें'<br />
आख़री शैर के दोनों मिसरों में 'रोज़'शब्द खटकता है, इस शैर को यूँ कर सकते हैं :-<br />
'शाम ढले वो तोड़ दिया करता हूँ मैं<br />
सुब्ह जो अक्सर ख़ुद से वादा करता हूँ'
जनाब गुरप्रीत सिंह जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीजर करें ।<br />
'पत्थर इक ना इक दिन पिघलेगा पगले'<br />
इस मिसरे को यूँ करें तो गेयता बहतर हो जाएगी:-<br />
'एक न इक दिन पत्थर पिघलेगा पगले'<br />
'क्यों करता हूँ हुस्न से वफ़ा की उम्मीदें'<br />
इस मिसरे की लय ठीक नहीं,इसे यूँ कर सकते हैं :-<br />
'हुस्न से क्यों करता हूँ वफ़ा की उम्मीदें'<br />
आख़री शैर के दोनों मिसरों में 'रोज़'शब्द खटकता है, इस शैर को यूँ कर सकते हैं :-<br />
'शाम ढले वो तोड़ दिया करता हूँ मैं<br />
सुब्ह जो अक्सर ख़ुद से वादा करता हूँ' शुक्रिया आदरणीय राम अवध जी ..…tag:openbooks.ning.com,2017-11-05:5170231:Comment:8950932017-11-05T11:21:27.328ZGurpreet Singh jammuhttps://openbooks.ning.com/profile/GurpreetSingh624
शुक्रिया आदरणीय राम अवध जी ..<br />
"क्यों करता हूँ हुस्न से वफ़ा की उम्मीदें?"<br />
इस मिसरे में क्या बह्र के लिहाज़ के कुछ कमी है या कुछ और , मैं समझ नहीं पा रहा ..क्रुप्या इस पर कुछ क्लियर करें ...धन्यवाद
शुक्रिया आदरणीय राम अवध जी ..<br />
"क्यों करता हूँ हुस्न से वफ़ा की उम्मीदें?"<br />
इस मिसरे में क्या बह्र के लिहाज़ के कुछ कमी है या कुछ और , मैं समझ नहीं पा रहा ..क्रुप्या इस पर कुछ क्लियर करें ...धन्यवाद शुक्रिया आदरणीय मोहम्मद आरिफ…tag:openbooks.ning.com,2017-11-05:5170231:Comment:8950922017-11-05T11:16:40.077ZGurpreet Singh jammuhttps://openbooks.ning.com/profile/GurpreetSingh624
शुक्रिया आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी ....जी गुणीजनो कि राय का इँतज़ार है
शुक्रिया आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी ....जी गुणीजनो कि राय का इँतज़ार है बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सली…tag:openbooks.ning.com,2017-11-05:5170231:Comment:8952162017-11-05T11:15:17.744ZGurpreet Singh jammuhttps://openbooks.ning.com/profile/GurpreetSingh624
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सलीम जी ..<br />
"शाम ढले मैं तोड़ दिया करता हूँ रोज़<br />
सुब्ह को जो भी ख़ुद से वादा करता हूँ"<br />
आख़िरी शिअर अगर ऐसे कहूँ ती क्या ठीक रहेगा? क्रुप्या बताएं<br />
और अगर ग़ज़ल की बाकी कमियों के बारे में भी थोड़ा विस्तार से बताएं तो मेहरबानी होगी ता कि उन्हें सुधारने कि कोशिश कर सकूँ .. अगर कोई सुझाव हो तो ज़रूर दें । शुक्रिया
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सलीम जी ..<br />
"शाम ढले मैं तोड़ दिया करता हूँ रोज़<br />
सुब्ह को जो भी ख़ुद से वादा करता हूँ"<br />
आख़िरी शिअर अगर ऐसे कहूँ ती क्या ठीक रहेगा? क्रुप्या बताएं<br />
और अगर ग़ज़ल की बाकी कमियों के बारे में भी थोड़ा विस्तार से बताएं तो मेहरबानी होगी ता कि उन्हें सुधारने कि कोशिश कर सकूँ .. अगर कोई सुझाव हो तो ज़रूर दें । शुक्रिया जनाब ग़ज़ल के लिए बधाई
अभी ग़…tag:openbooks.ning.com,2017-11-05:5170231:Comment:8950882017-11-05T11:03:55.519ZSALIM RAZA REWAhttps://openbooks.ning.com/profile/SALIMRAZA
जनाब ग़ज़ल के लिए बधाई<br />
अभी ग़ज़ल और मेहनत मांग रही है.<br />
अखिर शेर के दोनों मिसरे बे बहर हो रहे हैं..
जनाब ग़ज़ल के लिए बधाई<br />
अभी ग़ज़ल और मेहनत मांग रही है.<br />
अखिर शेर के दोनों मिसरे बे बहर हो रहे हैं..