Comments - जंगल और शहर - Open Books Online2024-03-28T09:05:05Zhttps://openbooks.ning.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A738042&xn_auth=noआपका बहुत आभार अदरणीय मिथिलेश…tag:openbooks.ning.com,2016-02-07:5170231:Comment:7385772016-02-07T02:20:10.307ZNeeraj Neerhttps://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>आपका बहुत आभार अदरणीय मिथिलेश जी ॥ </p>
<p>आपका बहुत आभार अदरणीय मिथिलेश जी ॥ </p> आदरणीय नीरज जी, इस गंभीर और स…tag:openbooks.ning.com,2016-02-06:5170231:Comment:7386232016-02-06T17:54:59.290Zमिथिलेश वामनकरhttps://openbooks.ning.com/profile/mw
<p>आदरणीय नीरज जी, इस गंभीर और संवेदनशील प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई </p>
<p>आदरणीय नीरज जी, इस गंभीर और संवेदनशील प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई </p> आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani …tag:openbooks.ning.com,2016-02-06:5170231:Comment:7384662016-02-06T14:36:00.351ZNeeraj Neerhttps://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>आदरणीय <a href="http://www.openbooksonline.com/profile/SheikhShahzadUsmani" class="fn url">Sheikh Shahzad Usmani</a> साहब आपका बहुत बहुत आभार ..... </p>
<p>आदरणीय <a href="http://www.openbooksonline.com/profile/SheikhShahzadUsmani" class="fn url">Sheikh Shahzad Usmani</a> साहब आपका बहुत बहुत आभार ..... </p> जी आपकी बातें पूर्णतः सत्य है…tag:openbooks.ning.com,2016-02-06:5170231:Comment:7384622016-02-06T14:08:27.763ZNeeraj Neerhttps://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>जी आपकी बातें पूर्णतः सत्य हैं आदरणीय सौरभ जी ..... आपका बहुत आभार इस रचना को इतना मान देने के लिए .... </p>
<p>जी आपकी बातें पूर्णतः सत्य हैं आदरणीय सौरभ जी ..... आपका बहुत आभार इस रचना को इतना मान देने के लिए .... </p> आदिवासियों के हितार्थ आम आदमी…tag:openbooks.ning.com,2016-02-06:5170231:Comment:7385502016-02-06T13:22:54.812ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
आदिवासियों के हितार्थ आम आदमी के पास कोई चिंतन ही नहीं है, ऐसे में अंतिम संदर्भ का औचित्य समझ में आया है। इस बेबाक बेहतरीन अनुपम तीखी कृति के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको नीरज कुमार नीर जी। पहली बार आपकी रचना पढ़कर धन्य हुआ। अब आपकी अन्य सभी रचनाएँ पढ़ने की प्रबल इच्छा है।
आदिवासियों के हितार्थ आम आदमी के पास कोई चिंतन ही नहीं है, ऐसे में अंतिम संदर्भ का औचित्य समझ में आया है। इस बेबाक बेहतरीन अनुपम तीखी कृति के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको नीरज कुमार नीर जी। पहली बार आपकी रचना पढ़कर धन्य हुआ। अब आपकी अन्य सभी रचनाएँ पढ़ने की प्रबल इच्छा है। कविता में प्रतीक के तौर पर इं…tag:openbooks.ning.com,2016-02-05:5170231:Comment:7382842016-02-05T19:01:47.432ZSaurabh Pandeyhttps://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>कविता में प्रतीक के तौर पर इंगित बन्दरों को पाठक यदि भौतिक रूप से ढूँढने लगे और कवि इसके प्रति संवेदनशील होने लगे तो कवि या पाठक कितना गिरेंगे ये तो बहस का विषय है. लेकिन कविता जरूर मर जायेगी. कविता को ऐसे पाठकों के बीच आने से बचना चाहिए.. अन्यथा ऐसे पाठक कवि को तो नहीं, मगर कविता की जरूर हत्या कर देंगे. कवि की हत्या इसलिए नहीं कि कवि किसी न किसी रूप में जी ही लेता है. आज के तथाकथित ’कवि-सम्मेलन’ इसके मुखर उदाहरण हैं, जहाँ कविता के अलावा सब कुछ होता है. वहाँ प्रतीकों के बन्दरों को सचमुच का…</p>
<p>कविता में प्रतीक के तौर पर इंगित बन्दरों को पाठक यदि भौतिक रूप से ढूँढने लगे और कवि इसके प्रति संवेदनशील होने लगे तो कवि या पाठक कितना गिरेंगे ये तो बहस का विषय है. लेकिन कविता जरूर मर जायेगी. कविता को ऐसे पाठकों के बीच आने से बचना चाहिए.. अन्यथा ऐसे पाठक कवि को तो नहीं, मगर कविता की जरूर हत्या कर देंगे. कवि की हत्या इसलिए नहीं कि कवि किसी न किसी रूप में जी ही लेता है. आज के तथाकथित ’कवि-सम्मेलन’ इसके मुखर उदाहरण हैं, जहाँ कविता के अलावा सब कुछ होता है. वहाँ प्रतीकों के बन्दरों को सचमुच का जान कर श्रोता उन्हें पकड़ने दौड़ भी पड़ते हैं और कई बार दंगा हो जाता है. </p> आपका आभार सतविंदर कुमार जीtag:openbooks.ning.com,2016-02-05:5170231:Comment:7385222016-02-05T17:20:12.294ZNeeraj Neerhttps://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>आपका आभार सतविंदर कुमार जी</p>
<p>आपका आभार सतविंदर कुमार जी</p> आदरणीय सौरभ जी इस उत्साहवर्द्…tag:openbooks.ning.com,2016-02-05:5170231:Comment:7385212016-02-05T17:17:21.228ZNeeraj Neerhttps://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p><span>आदरणीय सौरभ जी इस उत्साहवर्द्धन हेतू आपका बहुत बहुत आभार ..... जी मैं अपने अपने वातावरण में जो देखता हूँ जीता हूँ वही अभिव्यक्त करने की कोशिश करता हूँ ..... झारखंड जैसे प्रदेश (जहां से दिल्ली बहुत दूर है) में वहाँ के आदिवासियों पर हो रहे चौतरफा हमले को देख कर मन व्यथित रहता है ...... उन्हीं आदिवासियों में से कुछ लोग नक्सली नामधारी गुट बना कर अब लूट मार भी कर रहे हैं..... इसमें भी अंततः नुकसान निर्दोष आदिवासियों का होता है जो पुलिस और अपराधी दोनों के निशाने पर आ जाते हैं ...... आपका…</span></p>
<p><span>आदरणीय सौरभ जी इस उत्साहवर्द्धन हेतू आपका बहुत बहुत आभार ..... जी मैं अपने अपने वातावरण में जो देखता हूँ जीता हूँ वही अभिव्यक्त करने की कोशिश करता हूँ ..... झारखंड जैसे प्रदेश (जहां से दिल्ली बहुत दूर है) में वहाँ के आदिवासियों पर हो रहे चौतरफा हमले को देख कर मन व्यथित रहता है ...... उन्हीं आदिवासियों में से कुछ लोग नक्सली नामधारी गुट बना कर अब लूट मार भी कर रहे हैं..... इसमें भी अंततः नुकसान निर्दोष आदिवासियों का होता है जो पुलिस और अपराधी दोनों के निशाने पर आ जाते हैं ...... आपका पुनः बहुत आभार इस समर्थन हेतू ..... और अंतिम पंक्ति इसलिए लिख दी थी कि कई बार ऐसी कविताओं में सही के बंदर ढूँढने लग जाते है ...... मेरी इच्छा नहीं थी कि लिखूँ लेकिन सच यही है कि इसी डर से लिख दिया था ..... शायद भरोसा कम था..... </span></p> बहुत ख़ूब।सन्दर्भ न देते तो बह…tag:openbooks.ning.com,2016-02-05:5170231:Comment:7382802016-02-05T17:11:14.312Zसतविन्द्र कुमार राणाhttps://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
बहुत ख़ूब।सन्दर्भ न देते तो बहुत बहुत प्रभाव छौड़ रहे थे प्रतीक।हार्दिक बधाई आदरणीय
बहुत ख़ूब।सन्दर्भ न देते तो बहुत बहुत प्रभाव छौड़ रहे थे प्रतीक।हार्दिक बधाई आदरणीय भाई नीरज नीर जी, आपकी रचनाओं…tag:openbooks.ning.com,2016-02-05:5170231:Comment:7385092016-02-05T16:05:02.554ZSaurabh Pandeyhttps://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>भाई नीरज नीर जी, आपकी रचनाओं से आपका क्षेत्र अपने वातावरण में बोलता है. उसको सुनने के लोभ में मैं आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा करता हूँ. कहना न होगा, आपकी प्रस्तुत रचना के प्रतीक भले ही अभिधात्मक दिखते हों, उनका व्यंजनात्मक असर देर तक बना रहता है. आपकी संवेदनशीलता से यह कविता भी प्राणवान हो गयी है. </p>
<p>हार्दिक शुभकामनाएँ </p>
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<p>यह अवश्य है कि तनिक संशोधन इस कविता के और कसावट का कारण बन जायेगा. जैसे जहाँ आपने ’सरकार’ कहा है उसे ’व्यवस्था’ कर दें तो यह सार्वकालिक, बहुउद्देशीय…</p>
<p>भाई नीरज नीर जी, आपकी रचनाओं से आपका क्षेत्र अपने वातावरण में बोलता है. उसको सुनने के लोभ में मैं आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा करता हूँ. कहना न होगा, आपकी प्रस्तुत रचना के प्रतीक भले ही अभिधात्मक दिखते हों, उनका व्यंजनात्मक असर देर तक बना रहता है. आपकी संवेदनशीलता से यह कविता भी प्राणवान हो गयी है. </p>
<p>हार्दिक शुभकामनाएँ </p>
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<p>यह अवश्य है कि तनिक संशोधन इस कविता के और कसावट का कारण बन जायेगा. जैसे जहाँ आपने ’सरकार’ कहा है उसे ’व्यवस्था’ कर दें तो यह सार्वकालिक, बहुउद्देशीय विन्दु बन जायेगा. इसी तरह की कुछेक बातें .. </p>
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<p>//(गाँव के सीधे सादे आदिवासियों के लिए जो नक्सली बन रहे हैं ) //</p>
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<p>ऐसा आप क्यों बोल रहे हैं ? कविता को ही बोलने दीजिये न ! भाईजी, आपकी कविता के पास इतनी ताकत है कि वह अपनी बातें कायदे से कर ले. आपको अब कुछ भी कहने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती. </p>
<p>शुभ-शुभ</p>
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