Comments - प्रवाह - Open Books Online2024-03-29T07:43:33Zhttps://openbooks.ning.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A362380&xn_auth=noसुन्दर रचना आदरणीय राजेश जी स…tag:openbooks.ning.com,2013-05-20:5170231:Comment:3648552013-05-20T02:59:00.726ZAshok Kumar Raktalehttps://openbooks.ning.com/profile/AshokKumarRaktale
<p>सुन्दर रचना आदरणीय राजेश जी सादर बधाई स्वीकारें.</p>
<p>सुन्दर रचना आदरणीय राजेश जी सादर बधाई स्वीकारें.</p> आप सभी का हार्दिक आभारtag:openbooks.ning.com,2013-05-17:5170231:Comment:3638462013-05-17T09:29:49.798Zराजेश 'मृदु'https://openbooks.ning.com/profile/RajeshKumarJha
<p>आप सभी का हार्दिक आभार</p>
<p>आप सभी का हार्दिक आभार</p> आदरणीय वृजेश जी, आपका हार्दिक…tag:openbooks.ning.com,2013-05-17:5170231:Comment:3635932013-05-17T09:28:43.787Zराजेश 'मृदु'https://openbooks.ning.com/profile/RajeshKumarJha
<p>आदरणीय वृजेश जी, आपका हार्दिक आभार कि आपने रचना को इतनी तन्मयता से पढ़ा । जहां तक लावे के जीवंत होने का प्रश्न है तो तप्त तरलता में दाह के वाहक ही जीवंत रह सकते हैं पर मानव को जिस तरलता की आवश्यकता होती है वह मृदुता का पोषक है, उसं ऊष्मा तो चाहिए पर दाहकता नहीं । नदी में ऊष्मा तो होती है पर दाहकता नहीं होती, इसी कारण मैंने नदी के निर्मल धार से उसके जीवंत होने की बात रखी है । दूसरे, थके डैने थाम पंछी/सुस्ताते भी तो नहीं - ऐसा करने सिर्फ पंछी तक आकर बात खत्म हो जाती है जबकि वहां अन्य…</p>
<p>आदरणीय वृजेश जी, आपका हार्दिक आभार कि आपने रचना को इतनी तन्मयता से पढ़ा । जहां तक लावे के जीवंत होने का प्रश्न है तो तप्त तरलता में दाह के वाहक ही जीवंत रह सकते हैं पर मानव को जिस तरलता की आवश्यकता होती है वह मृदुता का पोषक है, उसं ऊष्मा तो चाहिए पर दाहकता नहीं । नदी में ऊष्मा तो होती है पर दाहकता नहीं होती, इसी कारण मैंने नदी के निर्मल धार से उसके जीवंत होने की बात रखी है । दूसरे, थके डैने थाम पंछी/सुस्ताते भी तो नहीं - ऐसा करने सिर्फ पंछी तक आकर बात खत्म हो जाती है जबकि वहां अन्य भी कोई है जो सुस्ता नहीं रहा, उस अन्य को प्रकट करने के लिए ही 'पंछी भी तो' रखा गया है । सादर</p> बहुत ही सुन्दर रचना है आदरणीय…tag:openbooks.ning.com,2013-05-16:5170231:Comment:3634882013-05-16T18:19:07.098Zबृजेश नीरजhttps://openbooks.ning.com/profile/BrijeshKumarSingh
<p>बहुत ही सुन्दर रचना है आदरणीय। मन बहता ही चला गया कविता के प्रवाह के साथ।</p>
<p>आपकी रचना की कुछ पंक्तियों से कुछ शंका उपजी है जिसके संदर्भ में आपसे मार्गदर्शन चाहूंगा।</p>
<p>//नसों में बहते लावे</p>
<p>जिसके घने स्पर्श से</p>
<p>जीवंत हो उठते हैं//</p>
<p>मेरे विचार से लावे जीवंत ही होते हैं मरे हुए नहीं। आपका इस विषय में क्या सोचना है यह मेरे लिए उत्सुकता का विषय होगा।</p>
<p>//भी तो सुस्ताते नहीं//</p>
<p>यह पंक्ति यदि कुछ इस तरह होती तो शायद मेरे विचार से अधिक उपयुक्त…</p>
<p>बहुत ही सुन्दर रचना है आदरणीय। मन बहता ही चला गया कविता के प्रवाह के साथ।</p>
<p>आपकी रचना की कुछ पंक्तियों से कुछ शंका उपजी है जिसके संदर्भ में आपसे मार्गदर्शन चाहूंगा।</p>
<p>//नसों में बहते लावे</p>
<p>जिसके घने स्पर्श से</p>
<p>जीवंत हो उठते हैं//</p>
<p>मेरे विचार से लावे जीवंत ही होते हैं मरे हुए नहीं। आपका इस विषय में क्या सोचना है यह मेरे लिए उत्सुकता का विषय होगा।</p>
<p>//भी तो सुस्ताते नहीं//</p>
<p>यह पंक्ति यदि कुछ इस तरह होती तो शायद मेरे विचार से अधिक उपयुक्त होती।</p>
<p>‘सुस्ताते भी तो नहीं’</p>
<p>आशा है आप इन्हें मेरी आपत्तियां न मानकर अपने ज्ञान से मुझे भी सिंचित करने का कष्ट करेंगे।</p>
<p>सादर!</p> बड़ा प्रवाह है इस स्वपन सरिता…tag:openbooks.ning.com,2013-05-16:5170231:Comment:3633282013-05-16T09:38:19.686ZSANDEEP KUMAR PATELhttps://openbooks.ning.com/profile/SANDEEPKUMARPATEL
<p>बड़ा प्रवाह है इस स्वपन सरिता में <br/>सादर बधाई हो आदरणीय</p>
<p>बड़ा प्रवाह है इस स्वपन सरिता में <br/>सादर बधाई हो आदरणीय</p> पर आंख खुलते ही घबरा जाता हूं…tag:openbooks.ning.com,2013-05-15:5170231:Comment:3627542013-05-15T09:56:51.859Zलक्ष्मण रामानुज लडीवालाhttps://openbooks.ning.com/profile/LaxmanPrasadLadiwala
<p>पर आंख खुलते ही घबरा जाता हूं</p>
<p><strong>जब देखता हूं जलती रेत पर</strong></p>
<p><strong>फड़फड़ाते अंश को</strong></p>
<p>और देह भी तब भिनभिनाने लगती है</p>
<p>थके डैने थाम पंछी भी तो सुस्ताते नहीं - <strong>बहुत खूब सुन्दर भाव प्रवाह के लिए बधाई भाई श्री राजेश कुमार झा </strong></p>
<p>पर आंख खुलते ही घबरा जाता हूं</p>
<p><strong>जब देखता हूं जलती रेत पर</strong></p>
<p><strong>फड़फड़ाते अंश को</strong></p>
<p>और देह भी तब भिनभिनाने लगती है</p>
<p>थके डैने थाम पंछी भी तो सुस्ताते नहीं - <strong>बहुत खूब सुन्दर भाव प्रवाह के लिए बधाई भाई श्री राजेश कुमार झा </strong></p> अति सुन्दर
सादर बधाई tag:openbooks.ning.com,2013-05-15:5170231:Comment:3628452013-05-15T08:06:21.644ZPRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHAhttps://openbooks.ning.com/profile/PRADEEPKUMARSINGHKUSHWAHA
<p>अति सुन्दर </p>
<p>सादर बधाई </p>
<p>अति सुन्दर </p>
<p>सादर बधाई </p> बहुत सुन्दर tag:openbooks.ning.com,2013-05-14:5170231:Comment:3630142013-05-14T20:27:11.989Zshalini kaushikhttps://openbooks.ning.com/profile/shalinikaushik
<p>बहुत सुन्दर </p>
<p>बहुत सुन्दर </p> जिंदगी में सच और सपने का तफरक…tag:openbooks.ning.com,2013-05-14:5170231:Comment:3625942013-05-14T13:21:21.017Zविजय मिश्रhttps://openbooks.ning.com/profile/37jicf27kggmy
जिंदगी में सच और सपने का तफरका इतना सही बना है और फिर संघर्ष करता यह छोटा सा मन . सत्य ही बहुत सुंदर रचना राजेशजी .
जिंदगी में सच और सपने का तफरका इतना सही बना है और फिर संघर्ष करता यह छोटा सा मन . सत्य ही बहुत सुंदर रचना राजेशजी . सादर आभार आदरणीय श्याम नाराय…tag:openbooks.ning.com,2013-05-14:5170231:Comment:3626772013-05-14T13:21:10.995Zराजेश 'मृदु'https://openbooks.ning.com/profile/RajeshKumarJha
<p>सादर आभार आदरणीय श्याम नारायण जी एवं विजय निकोर जी</p>
<p>सादर आभार आदरणीय श्याम नारायण जी एवं विजय निकोर जी</p>