Comments - झाँको - Open Books Online2024-03-28T22:44:15Zhttps://openbooks.ning.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A284304&xn_auth=noआज कल अनैतिकता का रूप विकराल…tag:openbooks.ning.com,2012-10-25:5170231:Comment:2848482012-10-25T06:04:18.491Zrajesh kumarihttps://openbooks.ning.com/profile/rajeshkumari
<p><span>आज कल अनैतिकता का रूप विकराल हो चूका है या कहिये स्टेंडर्ड बढ़ गया है जिसे देख रावण इस सांचे में फिट नहीं बैठता उसकी गलती इस पहाड़ के सामने राई जैसी दिखती है ---आज ना तो वो रावण रहा ना वो राम हैं तो बस उच्च दर्जे के राक्षस जो इंसानियत को खाए जा रहे हैं ना जाने इनका अंत कैसे होगा ---बहुत बढ़िया प्रस्तुति हार्दिक बधाई आपको </span></p>
<p><span>आज कल अनैतिकता का रूप विकराल हो चूका है या कहिये स्टेंडर्ड बढ़ गया है जिसे देख रावण इस सांचे में फिट नहीं बैठता उसकी गलती इस पहाड़ के सामने राई जैसी दिखती है ---आज ना तो वो रावण रहा ना वो राम हैं तो बस उच्च दर्जे के राक्षस जो इंसानियत को खाए जा रहे हैं ना जाने इनका अंत कैसे होगा ---बहुत बढ़िया प्रस्तुति हार्दिक बधाई आपको </span></p> वो ज़माना कुछ और था जब नैतिकता…tag:openbooks.ning.com,2012-10-24:5170231:Comment:2845852012-10-24T13:59:06.660ZSaurabh Pandeyhttps://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>वो ज़माना कुछ और था जब नैतिकता का तकाज़ा सिर चढ़ कर बोलता था. नृप भले कोई हो उसका असंयमित होना तक समाज स्वीकार नहीं कर पाता था. परिणति ? एक सीमा के बाद दशानन का प्रतिरूप रावण आजतक बुराइयों का प्रतिनिधित्व करता हुआ हर साल अग्नि को समर्पित होता है. आज ज़माना कुछ और है. क्या नहीं करता आज ’सहस्रानन’, मुखौटों में जीता हुआ ! फिर भी, वह उसी समाज का प्रतिनिधित्व करता है जिसे स्वयं पीड़ित रखता है.</p>
<p>भाई दीपक शर्माजी, आपकी प्रस्तुत कविता बहुत कुछ बोलती है. बहुत कुछ पूछती भी है. वह भी जिनके शब्द नहीं…</p>
<p>वो ज़माना कुछ और था जब नैतिकता का तकाज़ा सिर चढ़ कर बोलता था. नृप भले कोई हो उसका असंयमित होना तक समाज स्वीकार नहीं कर पाता था. परिणति ? एक सीमा के बाद दशानन का प्रतिरूप रावण आजतक बुराइयों का प्रतिनिधित्व करता हुआ हर साल अग्नि को समर्पित होता है. आज ज़माना कुछ और है. क्या नहीं करता आज ’सहस्रानन’, मुखौटों में जीता हुआ ! फिर भी, वह उसी समाज का प्रतिनिधित्व करता है जिसे स्वयं पीड़ित रखता है.</p>
<p>भाई दीपक शर्माजी, आपकी प्रस्तुत कविता बहुत कुछ बोलती है. बहुत कुछ पूछती भी है. वह भी जिनके शब्द नहीं बने हैं.. .</p>
<p>बहुत-बहुत बधाई व विजया की शुभकामनाएँ.</p>
<p></p> //अपनें कुकर्म भी आँको उन्नीस…tag:openbooks.ning.com,2012-10-24:5170231:Comment:2845832012-10-24T13:35:04.214ZEr. Ganesh Jee "Bagi"https://openbooks.ning.com/profile/GaneshJee
<p>//अपनें कुकर्म भी आँको<br/> उन्नीस बीस का फर्क दिखेगा<br/> उसके ज्यादा कुछ न मिलेगा//</p>
<p>आदरणीय दीपक कुल्लवी जी, इस बार तो आपने कहर ढ़ा दिया, बहुत ही सुन्दर संदेशों का सम्प्रेषण और वो भी तीखे अंदाज में | बहुत कम रचनाएँ इस कलेवर की मिलती हैं, इस अभिव्यक्ति पर बहुत बधाई और दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार हो |</p>
<p>//अपनें कुकर्म भी आँको<br/> उन्नीस बीस का फर्क दिखेगा<br/> उसके ज्यादा कुछ न मिलेगा//</p>
<p>आदरणीय दीपक कुल्लवी जी, इस बार तो आपने कहर ढ़ा दिया, बहुत ही सुन्दर संदेशों का सम्प्रेषण और वो भी तीखे अंदाज में | बहुत कम रचनाएँ इस कलेवर की मिलती हैं, इस अभिव्यक्ति पर बहुत बधाई और दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार हो |</p>