Comments - ग़ज़ल -:- ख़ुद ही ख़ुद को निहारते हैं हम - Open Books Online2024-03-29T12:11:04Zhttps://openbooks.ning.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A1002381&xn_auth=noSamar kabeer,ji आपकी विस्तृत…tag:openbooks.ning.com,2020-03-24:5170231:Comment:10024042020-03-24T14:05:41.708Zसूबे सिंह सुजानhttps://openbooks.ning.com/profile/2fvsz8v20bb3q
<p>Samar kabeer,ji आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया का बहुत बहुत आभार ।</p>
<p>आपने कंई शेर ठीक किये हैं आपकी विशाल हृदयता का मैं बहुत आभारी हूँ ।</p>
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<p>Samar kabeer,ji आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया का बहुत बहुत आभार ।</p>
<p>आपने कंई शेर ठीक किये हैं आपकी विशाल हृदयता का मैं बहुत आभारी हूँ ।</p>
<p></p> जनाब सूबे सिंह सुजान जी आदाब,…tag:openbooks.ning.com,2020-03-24:5170231:Comment:10026392020-03-24T13:49:07.689ZSamar kabeerhttps://openbooks.ning.com/profile/Samarkabeer
<p>जनाब सूबे सिंह सुजान जी आदाब,बहुत समय बाद पटल पर आपकी रचना देख कर अच्छा लगा ।</p>
<p>ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन कुछ मिसरे सुधार चाहते हैं,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।</p>
<p></p>
<p><span>'ख़ुद को कितना सँवारते हैं हम'</span></p>
<p><span>इस मिसरे में 'कितना' की जगह "जितना" शब्द उचित होगा ।</span></p>
<p><span>'दूसरों का मजाक करते हैं <br></br>ख़ुद की शेखी बघारते हैं हम'</span></p>
<p><span>इस शैर को यूँ कहना उचित होगा:-</span></p>
<p><span>'दूसरों का मज़ाक़ उड़ाते…</span></p>
<p>जनाब सूबे सिंह सुजान जी आदाब,बहुत समय बाद पटल पर आपकी रचना देख कर अच्छा लगा ।</p>
<p>ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन कुछ मिसरे सुधार चाहते हैं,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।</p>
<p></p>
<p><span>'ख़ुद को कितना सँवारते हैं हम'</span></p>
<p><span>इस मिसरे में 'कितना' की जगह "जितना" शब्द उचित होगा ।</span></p>
<p><span>'दूसरों का मजाक करते हैं <br/>ख़ुद की शेखी बघारते हैं हम'</span></p>
<p><span>इस शैर को यूँ कहना उचित होगा:-</span></p>
<p><span>'दूसरों का मज़ाक़ उड़ाते हुए</span></p>
<p><span>रोज़ शेख़ी बघारते हैं हम'</span></p>
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<p><span>'सिर्फ़ अपनी किसी जरूरत में'</span></p>
<p><span>इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-</span></p>
<p><span>'जब ज़रूरत पड़े हमें कोई'</span></p>
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<p><span>'इस खुशी का कहीं ठिकाना नहीं <br/>स्वर्ग जब भी सिधारते हैं हम'</span></p>
<p><span>इस शैर का भाव समझ नहीं आया,आख़िर आदमी कितनी बार स्वर्ग सीधारता है?</span></p>
<p></p> रवि भसीन शाहिद जी, बहुत बहुत…tag:openbooks.ning.com,2020-03-23:5170231:Comment:10024652020-03-23T09:54:37.702Zसूबे सिंह सुजानhttps://openbooks.ning.com/profile/2fvsz8v20bb3q
<p>रवि भसीन शाहिद जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब । आपकी सहृदयता को नमन है </p>
<p>रवि भसीन शाहिद जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब । आपकी सहृदयता को नमन है </p> *बहुत ख़ूबtag:openbooks.ning.com,2020-03-23:5170231:Comment:10025552020-03-23T05:58:44.885Zरवि भसीन 'शाहिद'https://openbooks.ning.com/profile/RaviBhasin
<p>*बहुत ख़ूब</p>
<p>*बहुत ख़ूब</p> आदरणीय सूबे सिंह सुजान साहिब,…tag:openbooks.ning.com,2020-03-23:5170231:Comment:10024622020-03-23T03:53:10.511Zरवि भसीन 'शाहिद'https://openbooks.ning.com/profile/RaviBhasin
<p>आदरणीय सूबे सिंह सुजान साहिब, भय ख़ूब। इस रचना पर आपको हार्दिक बधाई। इस ग़ज़ल में स्वयं का जो विश्लेषण करने का प्रयत्न है, वो बहुत अच्छा लगा। वाक़ई हम अपने अंदर झाँकने का प्रयास बहुत कम करते हैं, और आपकी ग़ज़ल ऐसा करने की प्रेरणा देती है।</p>
<p>आदरणीय सूबे सिंह सुजान साहिब, भय ख़ूब। इस रचना पर आपको हार्दिक बधाई। इस ग़ज़ल में स्वयं का जो विश्लेषण करने का प्रयत्न है, वो बहुत अच्छा लगा। वाक़ई हम अपने अंदर झाँकने का प्रयास बहुत कम करते हैं, और आपकी ग़ज़ल ऐसा करने की प्रेरणा देती है।</p> बहुत दिनों बाद आप सबके बीच ग़…tag:openbooks.ning.com,2020-03-22:5170231:Comment:10024462020-03-22T08:38:31.496Zसूबे सिंह सुजानhttps://openbooks.ning.com/profile/2fvsz8v20bb3q
<p>बहुत दिनों बाद आप सबके बीच ग़ज़ल लेकर हाज़िर हूँ </p>
<p>बहुत दिनों बाद आप सबके बीच ग़ज़ल लेकर हाज़िर हूँ </p>