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ओ बी ओ महोत्सव २९ - विषय - रंग पर यह कुछ लिख डाला था पर सुबह देखा  कि वह तो सिर्फ १० तारीख तक ही के लिए था जबकि आज तो ११ तारीख है| अब सोचा क्यूँ ना उस विषय की इस पोस्ट को यहाँ ओ बी ओ के ब्लॉग में ही डाला जाए,  तो अब उस आड़ी तिरछी रचना को अपने पन्ने पर रख रही हूँ ...

रंगों की दुनियाँ

इस बीच

मैंने पाया है खुद को

अकेला एक ऐसी दुनिया में

जहाँ रौशनी न थी

क्यूंकि आखों में ज्योति न थी |

तब जाना रंगों का खिलना

और बिखरना

सुंदरता का रंगों में संवरना

यूँ न होता संभव

जो रौशनी न होती|

तब दिमाग का वैज्ञानिक

लगाता है दौड

देखता है कि रौशनी में

बासंती सुर्खाब परियां

नीलिमा और हरितिमा

श्यामा और धवला

सभी सखियाँ  

और सुनहरी परियां.

हाथों में रजत कलश लिए

छलकाती हैं रंगों की गगरिया |

तितलियों के पंखों में

चटख् रंग

टेसू अनार का लाल रंग

हरी नदिया का दुधिया फेनिल हो जाना

आसमा का नीला और

समुद्र में हरा नीला उतर जाना

जुगनू का चमकना, पानी अरंग   

फूलों के खिलखिल मुस्कुराते रंग

इन्द्रधनुष में बिखरते चटख सतरंग

केंनवासों पर चढते उतरते रहते है रंग|

 

सुरमई सांझ अरुणिम सवेरा

सागर में रंगीली सीपियों का डेरा  

चम्पा चमेली का श्वेत वसन

काले बिगड़ते मेघ धवल

पंखों के रंग पर इतराना  

मोरों का नाच नाच होना मगन ...  

गालों की सुर्खी, अंखिया कजरारी

फ्युली पीली लहराता बसंत,

कुहुकती लगाती कोयलिया काली,

पीले पके आमों पर तोते धानी  |

हीरे से चमचम हिम शिखर ....

चाँद की चांदनी और

सितारों की चुनर ..

यूँ न होता मुमकिन

रंगों की दुनियां  

जो रौशनी में बैठी

किरणों की परियां

भर भर गागर न  

रंग बिखेरती|

रौशनी का मूल्य

और आँखों की ज्योति

एक दुनिया की कीमत है

जग की ज्योति है |

फिर भी मुझे सीखना है

रंगों के उस गणित को,

जिसे आजन्म

बिन ज्योति की आँखें  

देखती हैं 
सोचती हैं

समझती हैं  
वो कैसे परिभाषित करतीं है 
रंगों के इस अद्भुत संसार को

हरेक रंग को ?

परियों तुम आओ

और ढुलका दो  

उन प्यारी आँखों में

ज्योति कलश |

  •  नूतन 

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Comment

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Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on March 12, 2013 at 10:03am

आदरणीय सौरभ जी ... आपने रंगों की दुनिया नाम की इस कविता पर अपनी नजर से देख जो विचार लिखे ... वे भी कविता कैसी होनी चाहिए ... बताते है... आपकी बातें मनन करने लायक है और आगे भी अच्छा लिखने के लिए प्रोत्साहित करती हैं.... आपका सादर आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 12, 2013 at 12:13am

अजस्र प्रवाह से अग्रसरित मनोभावों को आपने सुन्दर कोण दिये हैं डॉ. नूतन .. 

संज्ञान और प्रतीति की चादर के तले उसकी हामी.. कि,

यूँ न होता मुमकिन

रंगों की दुनियां  

जो रौशनी में बैठी

किरणों की परियां

भर भर गागर न  

रंग बिखेरती... . .   वाह !

परन्तु, कवि की अपेक्षाएँ यहीं तक सीमित रहें तो उसका मानसिक विस्तार कैसा ! उसकी सार्वभौमिक सोच रंगों को बिम्ब मात्र न समझ कर उसे उस उत्स की तरह देखना चहाती है जो रंगों के होन का कारण बने.. बहुतखूब..!

फिर भी मुझे सीखना है

रंगों के उस गणित को,

जिसे आजन्म

बिन ज्योति की आँखें  

देखती हैं 
सोचती हैं

समझती हैं  
वो कैसे परिभाषित करतीं है 
रंगों के इस अद्भुत संसार को

हरेक रंग को ?

परियों तुम आओ

और ढुलका दो  

उन प्यारी आँखों में

ज्योति कलश..

अद्भुत ..अद्भुत .. अद्भुत !!

हृदय से बधाई आदरणीया.. .

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