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Sushil Sarna's Blog – November 2015 Archive (5)

न जग तेरा है .....

न  जग  तेरा  है .....

न  जग  तेरा  है  न  मेरा है

बस  दो  साँसों  का  डेरा  है 

है पल भर की बस भोर यहां 

पल  अगला  घोर  अँधेरा है 

न जग तेरा है ....

मैं पथ  का  कोई  शूल कहूँ 

या  जीवन  कोई  भूल कहूँ  

इक पल यहाँ पर है उत्सव  

पल  दूजा  दुख का  डेरा  है 

न जग तेरा है ....

स्वर  प्रेम नीड को ढूंढ रहे 

दृग पीर  नीर  में  मूँद रहे 

है नीरवता  हर  ओर यहां 

विष सेज पे सुप्त उजेरा है 

न जग तेरा है ....

अभिलाष हृदय की…

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Added by Sushil Sarna on November 24, 2015 at 9:35pm — 4 Comments

कुछ एक बातें …

कुछ एक बातें …

कुछ  एक  बातें  ऐसी  हैं

कुछ   एक   बातें वैसी है

होठों पर  लज्जा   वाली

भीगी   रातों   जैसी   हैं

कुछ एक बातें …

हृदय के सागर पर लिखी

अमर प्रीत की बात  कोई

शब्द नीड़ में जागी  सोई

अलसायी  बातों जैसी  हैं

कुछ एक बातें …

मन के अम्बर  पर कोई

दीप प्रीत के जला  गया

मधुपलों की सिमटी सी

कुछ यादें मेघों जैसी  हैं

कुछ एक बातें …

इक शीत बूँद  अंगारों  पर

तृप्ति पूर्व  ही  झुलस गयी

हार जीत की नैनझील पर…

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Added by Sushil Sarna on November 17, 2015 at 7:21pm — 4 Comments

तुम निष्ठुर हो …

तुम निष्ठुर हो …

तुम निष्ठुर हो तुम निर्मम हो

तुम बे-देह हो तुम बे-मन हो

तुम पुष्प नहीं तुम शूल नहीं

तुम मधुबन हो या निर्जन हो

तुम निष्ठुर हो …

तुम विरह पंथ का क्रंदन हो

तुम सृष्टि भाल का चंदन हो

तुम आदि-अंत के साक्षी हो

तुम वक्र दृष्टि की कंपन्न हो

तुम निष्ठुर हो …

तुम  नीर  नहीं समीर नहीं

तुम हर्ष नहीं तुम पीर नहीं

तुम हर दृष्टि  से ओझल हो

तुम रखते कोई शरीर नहीं

तुम निष्ठुर हो …

तुम चलो तो सांसें चलती…

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Added by Sushil Sarna on November 14, 2015 at 8:13pm — 13 Comments

अमर गंध …

अमर गंध …

पी के संग सो गयी

पी के  रंग हो गयी

प्रीत  की  डोर  की

मैं  पतंग  हो गयी

दीप   जलता  रहा

सांस  चलती  रही

पी की  बाहों में  मैं

इक उमंग हो गयी

हर  स्पर्श  देह  में

गीत  भरता   रहा

नैनों की झील की

मैं  तरंग  हो गयी

निशा  ढलती  रही

आँखें  मलती  रही

होठों  की  होठों से

एक  जंग  हो गयी

कुछ  खबर  न हुई

कब सहर हो गयी

साँसों में पी की मैं

अमर गंध हो गयी

सुशील सरना

मौलिक एवं…

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Added by Sushil Sarna on November 5, 2015 at 4:18pm — 6 Comments

कैसे अपने मधु पलों को .... (१००वी रचना )

कैसे अपने मधु पलों को शूल शैय्या पे छोड़   आऊँ

स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊं

विगत पलों के अवगुंठन में

इक दीप अधूरा जलता रहा

अधरों पर   लज्जा शेष रही

नैनों में स्वप्न मचलता रहा

एकांत पलों में तृप्ति भाव को किस आँगन मैं छोड़ आऊँ

प्रिय स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊँ

अधरों से मिलना अधरों का

तिमिर का मौन शृंगार हुआ

तृषित देह का देह मिलन से

अंगार पलों  का संचार हुआ

किस पल को मैं बना के जुगनू तिमिर…

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Added by Sushil Sarna on November 4, 2015 at 7:30pm — 27 Comments

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