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डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव's Blog – December 2014 Archive (8)

श्रेष्ठ कौन !

कौन जाने ?

बद्दुआओ में होता है असर 

वाणी के जहर 

ये काटते तो है

पर देते नहीं लहर

 

पुरा काल में

इन्हें कहते थे शाप

ऋषियों-मुनियों के पाप

दुर्वासा इसके

पर्याय थे आप

 

भोगता था

अभिशप्त वाणी की मार 

कभी शकुन्तला

या अहल्या सुकुमार

आह !आह ! ऋषि के

वे…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2014 at 9:30pm — 19 Comments

औकात

‘कवियों से मुझे नफरत है

घिन आती है उनके वजूद से

जैसे सच्चे मुसलमान को 

मूलधन के सूद से’

मुझसे कुबेर ने कहा

मैंने आघात को सहा

 

‘कवि तो मै भी हूँ

अँधेरे का रवि मै ही हूँ

जहाँ नहीं जाता रवि

वहां पहुँच जाता कवि 

फिर आपको घिन क्यों है ?’

 

‘वो बात जरा यों है,

कवि को गरीब ही दिखते है

उन पर ही लिखते हैं

उन्हें दिखता है –काली रात,…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 28, 2014 at 3:20pm — 19 Comments

उद्धार (लघु कथा )

नर्मदा के एक ऊंचे कगार पर खड़ा मै प्रकृति के अप्रतिम सौन्दर्य का अवलोकन कर रहा था कि एक ग्यारह वर्ष का बालक मेरे पास आया और बोला –‘बाबू जी मै इस कगार से नर्मदा मैया में छलांग लगाऊंगा तो तुम मुझे पांच रुपये दोगे ?’

‘क्यों, तुम इतना खतरा क्यों उठाओगे ?’

‘कल से खाना नहीं खाया, बाबू जी ‘

मैंने उसे दस रुपये दे दिए I वह मेरे पैरो मे लोट गया I तभी मुझे एक जोरदार ‘छपाक’ की आवाज सुनायी दी और उसके साथ ही एक ह्रदय विदारक चीख I मैंने घबरा कर नीचे देखा I एक दूसरा लड़का कगार से कूदा था पर…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 25, 2014 at 2:30pm — 16 Comments

नववर्ष दोहे

विभु से मांगो मित्र तुम, अब ऐसा वरदान

नये  वर्ष में शांत हो, मानव का शैतान

 

हो न धरा अब लाल फिर, महके मनस प्रसून

किसी अबोध अजान का, नाहक बहे न खून

 

सबके जीवन में खुशी, छा जाए भरपूर

अच्छे  दिन ज्यादा नहीं, भारत से अब दूर

 

कवि गाओ वह गीत अब, जिससे सदा विकास

तन में हो उत्साह प्रिय, मन में हो उल्लास

 

आपस में सद्भाव हो, सभी बने मन-मीत

ओज भरे स्वर में कवे, महकाओ कुछ गीत 

 

ऐसा जिससे नग…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 22, 2014 at 3:00pm — 44 Comments

बाबू जी मेरी माँ -लघु कथा

                  

     वह चालीस वर्ष का हट्टा –कट्टा जवान था I बस में मेरी खिड़की के करीब आया I डबडबायी आँखों से मेरी ओर देखा –‘बाबू जी मेरी माँ अस्पताल में दम तोड़ रही है, उसकी दवा लेने गया था, फकत इक्कीस रुपये कम पड़ गए है I बाबू जी आप मेहरबानी कर दे तो मेरा माँ शायद बच जाय I अल्लाह आपको नेमते देगा I’

      उसकी आँखों से आंसू  छलक पड़े I मुझे तरस आ गया I मैंने उसे रुपये दे दिए I वह दुआ देता आँखों से ओझल हो गया I  

      किसी कारण से मेरी बस वही रुकी रही I इतने में…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 19, 2014 at 7:04pm — 16 Comments

यात्रा

 हाँ

किसी अज्ञात यात्रा से

लोग यहाँ  आते है

कोई आता है चुपके से दुबक कर

कोई आता है सीने से चिपककर

कोई आता इन्तेजार ख़त्म करने

किसी के आने पर बजते है नगाड़े

ढोल-ताशे   

 

यहाँ आकर

फिर शुरू होती है एक नयी यात्रा

गंतव्य तक जाने की मंजिल पाने की

परिश्रम गंवाने की कुछ सुस्ताने की

जी भर रोने की मन-मैल धोने की

शांति से सोने की खुद अपने होने की

 

जो अभी…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 16, 2014 at 12:15pm — 22 Comments

आदमी

कुछ लिखना चाहता हूँ

पर सोचता हूँ क्या लिखूं 

कलम जब होती है हाथ में

दिल करता है कुछ सांय-सांय

सोचता हूँ

पुण्य लिखूं

सेवा लिखूं, सम्मान लिखू

हाथ से फिसलता आसमान लिखूं

सत्य लिखूं , प्रेम लिखूं

ममता लिखूं , मौन-व्यापार लिखूं

किसी उजड़ी बस्ती का हाहाकार लिखूं

पाप लिखूं, शाप लिखूं

मन का परिमाप लिखूं

भूख लिखूं , स्वार्थ लिखूं

टी वी से झांकता

आधुनिक परमार्थ लिखूं 

थाना लिखूं, जेल…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 11, 2014 at 12:30pm — 17 Comments

अलि, आज छू गया प्रिय से दुकूल !

अलि, आज छू गया प्रिय से दुकूल !

 

पुलक गया मन महक उठा तन

हंस  रहा  अंतर  का  वृन्दावन

भाव के मेघ उठे सागर की छोर

मन में बरस गए सावन के घन

अम्बर से तारों के फूल गए झूल I

 

बसी नस-नस में पीड़ा की पीर

सुप्त उर हो उठा सहसा अधीर

पाटल से छिल रहा सांवला तन

मन को बेध गया नैनो का तीर

फूलो सा फूल गया अंतस का फूल I

 

मुकुलित…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 5, 2014 at 1:00pm — 18 Comments

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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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