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Nilesh Shevgaonkar's Blog (182)

ग़ज़ल नूर की - याद आया है गुज़रा पल कोई

याद आया है गुज़रा पल कोई
लेगी अँगड़ाई फिर ग़ज़ल कोई.
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कोशिशें और कोई करता है
और हो जाता है सफल कोई.
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ज़िन्दगी एक ऐसी उलझन है
जिस का चारा नहीं न हल कोई.
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इश्क़ में हम तो हो चुके रुसवा
वो करें तो करें पहल कोई.
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हिज्र में आँसुओं का काम नहीं   
ये इबादत में है ख़लल कोई.
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इक सिकंदर था और इक हिटलर
आज तू है तो होगा कल कोई.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित  

Added by Nilesh Shevgaonkar on May 9, 2018 at 7:54am — 11 Comments

ग़ज़ल नूर की -तू जहाँ कह रहा है वहीं देखना

तू जहाँ कह रहा है वहीं देखना

शर्त ये है तो फिर.. जा नहीं देखना.

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जीतना हो अगर जंग तो सीखिये

हो निशाना कहीं औ कहीं देखना.

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खो दिया गर मुझे तो झटक लेना दिल

धडकनों में मिलूँगा..... वहीँ देखना.

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देखता ही रहा... इश्क़ भी ढीठ है

हुस्न कहता रहा अब नहीं देखना.

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कितना आसाँ है कहना किया कुछ नहीं

मुश्किलें हमने क्या क्या सहीं देखना.

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एक पल जा मिली “नूर” से जब नज़र

मुझ को आया नहीं फिर कहीं देखना.

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निलेश…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2018 at 8:30pm — 11 Comments

तस्वीर (लघुकथा)

छोटे के मन में यह बात घर कर गयी थी कि अम्माँ और बाबूजी उसका नहीं बड़े का अधिक ख़याल रखते हैं.

दोनों भाइयों की शादी होने के बाद यह भावना और बलवती हो गयी क्यूँ कि छोटे की बीवी को अपने तरीक़े से जीवन जीने की चाह थी. ऐसे में घर का बँटवारा अवश्यम्भावी था. बाबूजी ने छोटे को समझाने की बहुत कोशिश की , बड़े का हक़ मारकर भी वो दोनों को एक देखने पर राज़ी थे. बड़ा भी कुछ कुर्बानियों के लिए तैयार था अपने भाई के लिये लेकिन छोटे की ज़िद के आगे सब बेकार रहा.

आख़िरकार घर दो हिस्सों में बँट गया और एक हिस्से…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2018 at 7:30am — 18 Comments

ग़ज़ल नूर की- पड़ गयी जब से आपकी आदत

पड़ गयी जब से आपकी आदत,

फिर लगी कब मुझे नई आदत. 

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ज़ाया कर दी गयीं कई क़समें

ज्यूँ की त्यूं ही मगर रही आदत.

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मुझ को तन्हा जो छोड़ जाती है

शाम की है बहुत बुरी आदत.

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पैरहन और कितने बदलेगी? 

रूह को जिस्म की पड़ी आदत.   

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चन्द साथी जो बेवफ़ा न हुए,  

अश्क, ग़म, याद, बेबसी, आदत.

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ज़िन्दगी यूँ न तू लिपट मुझ से

पड़ न जाए तुझे मेरी आदत.

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आदतन याद जब तेरी आई

रात भर आँखों से बही आदत.

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ये…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 4, 2018 at 3:19pm — 16 Comments

ग़ज़ल नूर की - आपने भी तो कहाँ ठीक से जाना मुझ को

आपने भी तो कहाँ ठीक से जाना मुझ को

खैर जो भी हो, मुहब्बत से निभाना मुझ को.

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जीत कर मुझ से, मुझे जीत नहीं पाओगे

हार कर ख़ुद को है आसान हराना मुझ को.

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मैं भी लुट जाने को तैयार मिलूँगा हर दम

शर्त इतनी है कि समझें वो ख़ज़ाना मुझ को.

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आप मिलियेगा नए ढब से मुझे रोज़ अगर

मेरा वादा है न पाओगे पुराना मुझ को.

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ओढ़ लेना मुझे सर्दी हो अगर रातों में

हो गुलाबी सी अगर ठण्ड, बिछाना मुझ को.

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मुख़्तसर है ये तमन्ना कि अगर जाँ निकले…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 30, 2018 at 10:42am — 26 Comments

ग़ज़ल नूर की- बहुत आसाँ है दुनिया में किसी का प्यार पा लेना,

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२ 

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बहुत आसाँ है दुनिया में किसी का प्यार पा लेना,

बहुत मुश्किल है ऐबों को मगर उस के निभा लेना.

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नज़र मिलते ही उस का झेंप कर नज़रें चुरा लेना,

मचलती मौज का जैसे किसी साहिल को पा लेना.

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बहुत वादे वो करता है मगर सब तोड़ देता है,

ये दावा भी उसी का है कि मुझ को आज़मा लेना.

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मलंगों सी तबीयत है सो अपनी धुन में रहता हूँ   

पिये हैं रौशनी के जाम फिर ग़ैरों से क्या लेना.

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मिलन होगा मुकम्मल जब मिलेगी बूँद सागर से…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2018 at 12:09pm — 14 Comments

ग़ज़ल नूर की-2-ऐ ख़ुदा! रूतबा इबादत-गाहों का अपनी जगह

२१२२/२१२२/२१२२/२१२ 

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ज़ाहिदो! रूतबा इबादत-गाहों का अपनी जगह

पर सुकूँ की राह में है मैकदा अपनी जगह.

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इश्क़ में मजबूरियों को बेवफ़ाई क्यूँ कहें   

चाहना अपनी जगह था भूलना अपनी जगह.

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सादा-दिल होने के दुनिया में कई नुक्सान हैं

पर किसी के काम आने का मज़ा अपनी जगह.

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आपने जब दिल लगाया ही नहीं, समझेंगे क्या?  

जीतना हो शौक़ कोई, हारना अपनी जगह.

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इम्तिहाँ कब “नूर” का है इम्तिहाँ आँधी का है

रात भर जलता रहेगा यह दीया…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 21, 2018 at 12:30pm — 11 Comments

ग़ज़ल नूर की -जो किताबों ने दिया वो फ़लसफ़ा अपनी जगह.

२१२२/२१२२/२१२२/२१२ 

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जो किताबों ने दिया वो फ़लसफ़ा अपनी जगह.

लोग जिस पर चल पड़े वो रास्ता अपनी जगह.

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फिर लिपटकर रो सकूँ मैं ये दुआ अपनी जगह

लौट कर आए न तुम मैं भी रहा अपनी जगह.

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हक़ बयानी का सभी को हौसला होता नहीं  

संग हैं बेताब फिर भी आईना अपनी जगह.   

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छोड़ कर मुझ को तेरा क्या हाल है यह तो बता

तेरे पीछे हश्र मेरा जो हुआ अपनी जगह.

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ये वो मंजिल तो नहीं है आज पहुँचे हैं जहाँ

गो तुम्हारे साथ चलने का मज़ा अपनी…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 18, 2018 at 8:30pm — 19 Comments

ग़ज़ल नूर की-जिस्म है मिट्टी इसे पतवार कैसे मैं करूँ

२१२२ / २१२२ / २१२२ / २१२

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जिस्म है मिट्टी इसे पतवार कैसे मैं करूँ

कागज़ी कश्ती से दरिया पार कैसे मैं करूँ.

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ऐ अदू तेरी तरह गुफ़्तार कैसे मैं करूँ,

फूल बरसाती ज़बां को ख़ार कैसे मैं करूँ.



चाबियाँ मैंने ही दिल की सौंप दी थीं यादों को

आ धमकती हैं जो अब, इन्कार कैसे मैं करूँ.

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रेत का घर है ये दुनिया तिफ़्ल सी उलझन मेरी  

ख़ुद बना कर ख़ुद इसे मिस्मार कैसे मैं करूँ.

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रूह बुलबुल है जिसे ये क़ैद रास आती नहीं  

है क़फ़स…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 16, 2018 at 7:15pm — 18 Comments

लघुकथा-बेटी बचाओ

उस दिन जन सामान्य का उत्साह देखते ही बनता था. टीवी, रेडियो, अखबार ..सब जगह नेता जी की पहल का चर्चा था. आख़िर किसी ने तो बेटी के महत्व को समझ कर बेटी बचाओ जैसा महान नारा दिया था समाज को ...

आज जब दो बेटियों के बलात्कार की और एक आठ साल की बेटी की नृशंस हत्या की ख़बर पढ़ी तो पहले पहल यह रोज़मर्रा की ख़बर ही लगी ... फिर ख़बर की डिटेल्स में पढने को मिला कि नेताजी के दल के लोग बलात्कारियों के समर्थन में सड़क पर तिरंगा लेकर वन्दे मातरम का घोष कर रहे हैं तो अचानक मन…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 14, 2018 at 11:30am — 14 Comments

एक ग़ज़ल -कठुआ की आसिफ़ा में नाम

२१२२/ २१२२/ २१२२/ २१२

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तेरी ख़ातिर कुछ न हम कर पाए प्यारी आसिफ़ा

क्या ये तेरी मौत है या फिर हमारी आसिफ़ा?   

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एक हम हैं जो लड़ाई देख कर घबरा गए

एक तू जो सब से लड़ कर भी न हारी आसिफ़ा.

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ऐ मेरी बच्ची, ज़मीं तेरे लिए थी ही नहीं

सो ख़ुदा भी कह पड़ा वापस तू आ री आसिफ़ा.

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हुक्मराँ इन्साफ़ देगा ये तवक़्क़ो है किसे

क़ातिलों की भी मगर आएगी बारी आसिफ़ा.

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इतनी लाशों से घिरा मैं लाश क्यूँ होता नहीं  

सोच कर क्यूँ तुझ को मेरा दिल है भारी…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 12, 2018 at 5:28pm — 16 Comments

ग़ज़ल नूर की- ख़ुद को क़िस्सा-गो समझे है हर क़िरदार कहानी में

२२/२२/२२/२२/२२/२२/२२/२

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ख़ुद को क़िस्सा-गो समझे है हर क़िरदार कहानी में

क़तरा ख़ुद को माने समुन्दर  जाने किस नादानी में.  

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कैसा हिटलर कौन हलाकू, साहिब गर्मी काहे की

इक दिन सब को जाना है इतिहास की कूड़े दानी में.

.

तैर नहीं सकते थे माना लेकिन चल तो सकते थे

डूब मरे हैं कुछ बेचारे टखनों से कम पानी में.  

.

जादू का इक झूठा कपड़ा पहने फिरते हैं साहिब

और ठगों की पौ-बारह है उनकी इस उर्यानी में.

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पहले जिस के लफ्ज़ लबों के पार न…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 9, 2018 at 12:30pm — 35 Comments

ग़ज़ल नूर की -पार करने हैं समुन्दर ये दिलो-जाँ वाले

२१२२ /११२२ /११२२ /२२

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पार करने हैं समुन्दर ये दिलो-जाँ वाले

और आसार नज़र आते हैं तूफाँ वाले.

.   

फ़ितरतन मुश्किलें; मुश्किल मुझे लगती हीं नहीं     

पर डराते हैं सवाल आप के आसाँ वाले.

.

तितलियाँ फूल चमन सारे कशाकश में हैं

एक ही रँग के गुल चाहें गुलिस्ताँ वाले.

.

ये न कहते कि रखो एक ही रब पर ईमाँ

इश्क़ करते जो अगर गीता-ओ-कुरआँ वाले.  

.

जानवर हैं कई, इंसान की सूरत में यहाँ

शह्र में रह के भी हैं तौर बयाबाँ वाले.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 7, 2018 at 1:02pm — 20 Comments

ग़ज़ल नूर की- हाँ! सराब का धोखा तिश्नगी में होता है,

२१२/ १२२२// २१२/ १२२२ 

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हाँ! सराब का धोखा तिश्नगी में होता है,

ग़लतियों पे पछतावा आख़िरी में होता है.

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तितलियों के पंखों पर चढ़ते हैं गुलों के रँग

ज़िक्र जब मुहब्बत का शाइरी में होता है.

.

शम्स ख़ुद भी छुपता है देख कर अँधेरे को,

इम्तिहान जुगनू का तीरगी में होता है.

.

बीज यादों के बो कर सींचता है अश्कों से

दिल ख़याल उगाता है जब नमी में होता है.

.

जिस ख़ुदा की ख़ातिर तुम लड़ रहे हो सदियों से

काश ये समझ पाते वो सभी में…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 3, 2018 at 9:00pm — 12 Comments

ग़ज़ल नूर की - जिसका मैं मुन्तज़िर रहा पल में वो पल गुज़र गया,

२११२/ १२१२ // २११२/ १२१२ 

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जिसका मैं मुन्तज़िर रहा पल में वो पल गुज़र गया,

और वो लम्हा बीत कर अपनी ही मौत मर गया.

.

मेरा सफ़र तवील है दूर हैं मंज़िलें मेरी

दुनिया फ़क़त सराय है रात हुई ठहर गया.

.

कोई छुअन थी मलमली कोई महक थी संदली

ख़ुद में जो उस को पा लिया मुझ में जो मैं था मर गया.

.

सारे तिलिस्म तोड़ कर अपनी अना को छोड़ कर

तेरे हवाले हो के मैं अपने ही पार उतर गया.   

.

पीठ थी रौशनी की ओर साये को देखते रहे

“नूर” से जब नज़र…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 29, 2018 at 10:04pm — 12 Comments

ग़ज़ल नूर की- दूर से इक शख्स जलती बस्तियाँ गिनता रहा

२१२२/ २१२२/ २१२२/ २१२ 

.

दूर से इक शख्स जलती बस्तियाँ गिनता रहा

रह गई थीं कुछ जो बाकी तीलियाँ गिनता रहा.

.

यादों के बिल से निकलती चींटियाँ गिनता रहा

था कोई दीवाना टूटी चूड़ियाँ गिनता रहा.

.

मुझ से मिलता-जुलता लड़का आईने से झाँक-कर

मेरे चेहरे पर उभरती झुर्रियाँ गिनता रहा.

.

होश मेरे गुम थे मैंने जब किया इज़हार-ए-इश्क़   

और वो नादान कच्ची इमलियाँ गिनता रहा.     

.

एक दिन पूछा किसी ने कौन है तेरा यहाँ  

दिल हुआ रुसवा…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 26, 2018 at 4:46pm — 40 Comments

ग़ज़ल नूर की -जलने लगे जो ख्व़ाब सब नैन धुआँ धुआँ रहे

अरकान: नामालूम 

लय: दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त ... या ...आप को भूल जाएं हम इतने तो बेवाफ़ा नहीं ...की तरह 

.

 

जलने लगे जो ख्व़ाब सब नैन धुआँ धुआँ रहे

दिल से तेरे निकल के हम जानें कहाँ कहाँ रहे.

.

रब से दुआ है ये मेरी दिल की सदा है आख़िरी

लब पे उसी का नाम हो जिस्म में गर ये जाँ रहे.   

.

लगते हों आलिशान हम कहने को क़ामयाब हों

खो के तुझे तेरी कसम अस्ल में रायगाँ रहे.

.

तेरी तलब में जाने जाँ ख़ाक हुए वगर्ना हम  …

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 24, 2018 at 9:37pm — 24 Comments

नज़्म: आत्मबोध

सुझाव / इस्लाह आमंत्रित 

.

जब क़लम उठाता हूँ यह सवाल उठता है

क्यूँ ग़ज़ल कही जाए कब ग़ज़ल कही जाए?

.

क्या अगर कोई तितली फूल पर जो मंडराए

टूट कर कोई पत्ता शाख़ से बिछड़ जाए

तोड़ कर सभी बन्धन पार कर हदों को जब

इक नदी उफ़न जाए, दौडकर समुन्दर की

बाँहों में समा जाए तब ग़ज़ल कही जाए?

.

इक  पुराने अल्बम से झाँक कर कोई चेहरा

तह के रक्खी यादों के ढेर को झंझोड़े और

इक किताब में बरसों से सहेजी पंखुड़ियाँ

यकबयक बिखर…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 16, 2018 at 8:30am — 11 Comments

ग़ज़ल नूर की -. माँ भारती की शान में,

२२१२/२२१२

.

माँ भारती की शान में,

वो रोज़ नव परिधान में.

.

क्यूँ राष्ट्रभक्ति खो गयी

समवेत गर्दभ गान में.

.

सब हो गए कितने पतित

सोचो कथित उत्थान में.

.

हर बैंक कर देंगे सफा

वो स्वच्छता अभियान में.

.

इन्सानियत बाक़ी कहाँ 

अब है बची इन्सान में.  

.

वो माफ़िनामे लिख गये

अपना यकीं बलिदान में.

.

कैसे मसीहा देख लूँ

उस इक निरे नादान में.

.

करते दहन है खूँ फ़िशां

कत्था लगा कर…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 14, 2018 at 8:12pm — 14 Comments

ग़ज़ल नूर की- ग़लत को गर ग़लत कहना ग़लत है

१२२२/१२२२/१२२

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ग़लत को गर ग़लत कहना ग़लत है   

मेरा दावा है ये दुनिया ग़लत है.

.

अगर मर कर मिले जन्नत तो फिर सुन

तेरा इक पल यहाँ जीना ग़लत है.

.

हमारी बात का मतलब अलग था,

अगरचे आप ने समझा ग़लत है.

.

मुझे है तज़्रबा तुम से ज़ियादा

मेरी मानों तो ये रस्ता ग़लत है.

.

कहानी में तो मिल जाते हैं दोनों

हक़ीक़त में जुदा होना ग़लत है.

.

कहे नंगे को नंगा एक बच्चा

कहे दरबार वह बच्चा ग़लत है.  

.

ग़लत साबित मुझे…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 10, 2018 at 10:25pm — 16 Comments

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