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राज़ नवादवी's Blog (199)

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५६

ग़ज़ल- २२१ २१२१ १२२१ २१२ 

(फैज़ अहमद फैज़ की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल) 



हारा नहीं हूँ, हौसला बस ख़ाम ही तो है

गिरना भी घुड़सवार का इक़दाम ही तो है

बोली लगाएँ, जो लुटा फिर से खरीद लें 

हिम्मत अभी बिकी नहीं नीलाम ही तो है



साबित अभी हुए नहीं मुज़रिम किसी भी तौर

सर पर हमारे इश्क़ का इल्ज़ाम ही तो है



ये दिल किसी का है नहीं तो फिर हसीनों को

छुप छुप के यारो देखना भी काम ही तो है



उम्मीद क्या…

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Added by राज़ नवादवी on October 6, 2017 at 8:00pm — 19 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- 55

ग़ज़ल- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

 

लिखा है गर जो किस्मत में तो फिर बदनाम ही होलें

न बाइज़्ज़त तो बेइज़्ज़त तुम्हारे नाम ही होलें

 

न कुछ करने से अच्छा है तू वादा तोड़ ही डाले 

न हों कामिल वफ़ा में तो दिले नाकाम ही होलें

 

न हो महफ़िल तुम्हारी तो किसी महफ़िल में रोलें हम

चलो हम आज कूचा ए दिले बदनाम ही होलें

 

मुझे रिज़वान रख लें वो बहिश्ते ख़ूब रूई का

घड़ी भर को कभी मेरे वो हमआराम ही होलें

 

जो हों जन्नतनशीं…

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Added by राज़ नवादवी on October 5, 2017 at 6:30pm — 14 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५४

ग़ज़ल-  १२२२ १२२२ १२२२ १२२२२

मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन

 

मुनासिब है ज़रूरत सब ख़ुदा से ही रजा करना

कि है कुफ़्रे अक़ीदा हर किसी से भी दुआ करना

 

ग़मों के कोह के एवज़ मुहब्बत ही अदा करना

नहीं है आपके वश में किसी से यूँ वफ़ा करना

 

नई क्या बात है इसमें, शिकायत क्यों करे कोई

शग़ल है ख़ूबरूओं का गिला करना जफ़ा करना

 

अगर खुशियाँ नहीं ठहरीं तो ग़म भी जाएँगे इकदिन

ज़रा सी बात पे क्योंकर ख़ुदी को…

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Added by राज़ नवादवी on October 3, 2017 at 12:32am — 17 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५3

ग़ज़ल-  १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

 

किसी ने क्यों कतर डाले हैं परवाज़ों के पर मेरे

फ़रिश्ते भी हैं उक़बा में अज़ल से मुंतज़र मेरे

 

हुजूमे ग़ैर से कोई तवक़्क़ो क्या करूँगा मैं

मेरी क़ीमत न कुछ  समझें ज़माने में अगर मेरे

 

फ़क़ीरी में गुज़ारी है ये हस्ती भी तुम्हारी है  

तेरी ज़र्रा नवाज़ी है कभी आये जो घर मेरे

 

कहूँ क्या हाय शर्मों में छुपी उसकी मुहब्बत को

वो घबरा के जो देखे है इधर मेरे उधर मेरे

 

कहाँ तुझको…

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Added by राज़ नवादवी on October 3, 2017 at 12:21am — 6 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-७०

विश्वास के सतूने जब कमज़ोर होते हैं तो आस्था का शामियाना गिर ही जाता

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हमारे घर का एक कोना फिर से पूजा स्थल के रूप में तब्दील हो गया और मेरी पत्नी ने एक निस्सहाय धर्म-केन्द्रित याचिका का रूप ले लिया. घर की मुश्किलात जैसे जैसे बढ़ती गईं, वैसे वैसे पत्नी की आध्यात्मिकता ने धार्मिक आचरणों, अर्चनाओं, उपवासों इत्यादि का रुख कर लिया. भविष्य वाचकों की भविष्यवानियाँ सुनी जाने लगीं और ग्रह…

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Added by राज़ नवादवी on September 23, 2017 at 5:30pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५२

बहरे रमल मुसम्मन सालिम

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन: 2122 2122 2122 2122

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है जिगर में कुछ पहाड़ों सा, पिघलना चाहता है

मौसम-ए-दिल हो चुका कुहना बदलना चाहता है

 

छोड़कर सब ही गये ख़ाली है दिल का आशियाना 

अश्क़ बन कर तू भी आँखों से निकलना चाहता है

 

चोट खाकर दर्द सह कर बेदर-ओ-दीवार होकर

दिल तेरी नज़र-ए-तग़ाफ़ुल में ही जलना…

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Added by राज़ नवादवी on September 7, 2017 at 5:30pm — 19 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५१

बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़: फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन 

२१२२ २१२२ २१२२ २१२ 

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देख लो यारो नज़र भर अब नया मंज़र मेरा

आ गया हूँ मैं सड़क पर रास्ता है घर मेरा

 

लड़खड़ाने से लगे हैं अब तो बूढ़े पैर भी

है ख़ुदी का पीठ पर भारी बहुत पत्थर मेरा

 

जानता हूँ दिल है काहिल नफ़्स की तासीर में 

बात मेरी मानता है कब मगर नौकर मेरा

 

आसमाँ से आएगा कोई हबीब-ए-शाम-ए-ग़म

यूँ नज़र भर देखता है…

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Added by राज़ नवादवी on August 29, 2017 at 4:30pm — 6 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५०

२१२२/२१२२/२१२२/२१२

बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़:

फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन 

 

क्या फ़सादात-ए-शिकस्ता प्यार से आगे लिखूँ

मुद्दआ है क्या दिल-ए-ग़मख़्वार से आगे लिखूँ

आरज़ूएं, दिल बिरिश्ता, ज़ख्म या हैरानियाँ

क्या लिखूं गर मैं विसाल-ए-यार से आगे लिखूं 

 

दर्द टूटे फूल का तो बाग़वाँ ही जानता

सोज़िश-ए-गुल रौनक-ए-गुलज़ार से आगे लिखूँ

 

हक़ बयानी ऐ ज़माँ दे हौसला बातिल न हो

जो लिखूँ मैं ख़ारिजी इज़हार…

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Added by राज़ नवादवी on August 28, 2017 at 1:30pm — 12 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४९

बहरे रमल मुसद्दस सालिम;

फ़ाएलातुन/ फ़ाएलातुन/फ़ाएलातुन;

2122/2122/2122)

.

झाँक कर वो देख ले अपनी ख़ुदी में

ऐब दिखता है जिसे हर आदमी में 

 

पास आकर दूरियों का अक्स देखा

ग़ैर जब होने लगा तू दोस्ती में

 

यूँ नहीं मरते हैं हम सादासिफ़त पे

रंग सातों मुन्शइब हैं सादगी में

 

इक पसेमंज़र-ए-ज़ुल्मत है ज़रूरी

यूँ नहीं दिखती हैं चीज़ें रौशनी में

 

आ तुझे भी इस्तिआरों से सवारूँ

लफ्ज़ के…

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Added by राज़ नवादवी on August 18, 2017 at 2:30pm — 14 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४८

मेरा खूने-क़ल्ब कबतक यूँ ही बार-बार होगा

कभी वो घड़ी भी आए जो तुझे भी प्यार होगा

 

दिलेसरनिगूं में कब तक पशेमानियाँ रहेंगी

तेरी हाँ का मुझको कब तक यूँ ही इंतेज़ार होगा

 

मेरी आशिक़ी पे कब तक यूँ ही तुहमतें लगेंगी

तेरे हाथ इश्क़ कब तक यूँ ही दाग़दार होगा

 

करूँ भी तो मैं करूँ क्या कोई दाफ़िया नहीं है

तेरा ज़िक्र जब भी होगा दिल बेक़रार होगा

 

पसेशाम अपने घर को जो मैं जाऊं फिरसे वापिस

वही इन्दिहाम होगा वही…

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Added by राज़ नवादवी on October 10, 2016 at 10:08pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४७

जो है दिल को शिकायत न हो ज़ेरेफुगाँ क्यों

न हो कहने का हक़ कुछ तो देते हो जुबां क्यों  

 

मेरी खानाख़राबी सुबूतेआशिक़ी है

जो हो मजनूं तुम्हारा हो उसका आशियाँ क्यों

 

यूँ कारेआशिक़ी से है आती बू-ए-साज़िश

अदू जो हैं हमारे वो तेरे पासबाँ क्यों

 

मकीनेदिलबिरिश्ता-ओ-दश्तेगमनशीं था

वफ़ातेकैस पे फिर न हो ख़ुश गुलसितां क्यों

 

जो मुझसे निस्बतों की सभी बातें हैं झूठीं

सुनाते हो मुझे तुम तुम्हारी दास्ताँ…

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Added by राज़ नवादवी on October 7, 2016 at 10:09pm — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४५

है ख़ुदी जब तक बनी खुद्दारियाँ जातीं नहीं 

हो अना जब सामने दुश्वारियां जातीं नहीं

मुश्किलें हैं कोह की मानिंद गिर्दोपेश में 

ज़िंदगी की ज़िल्लतोलाचारियाँ जातीं नहीं

हूँ फसां मैं रोज़गारी फ़िक्र के गिर्दाब में 

सख्त हैं हालात जिम्मेदारियाँ जातीं नहीं

दिल हुआ मजरूह जिसकी इक नज़र से उम्र भर 

उस फ़ुसूनेनाज़ की आजारियाँ जातीं नहीं

वो नहीं मुझको मिला सौगात लेकिन दे गया 

खू-ए-सोज़िश हो गई गमख्वारियाँ जातीं…

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Added by राज़ नवादवी on October 4, 2016 at 5:50pm — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४४

गैर ही तू सही तेरा असर तो बाक़ी है 

लज्ज़तेयाद का वीराना घर तो बाक़ी है

माना मंजिल नहीं इश्बाह की हासिल मुझको 

पैरों के वास्ते इक रहगुज़र तो बाक़ी है

तेरे सीने की आग बुझ गई तो क्या कीजे 

मेरे सीने में धड़कता जिगर तो बाक़ी है

सोज़िशें रोज़ की जीने नहीं देतीं मुझको 

क्या करें साँसों का लंबा सफ़र तो बाक़ी है

तेरी साँसें भी हैं मलबूस मेरी साँसों से 

मेरे भी सीने में तेरा ज़हर तो बाक़ी…

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Added by राज़ नवादवी on September 28, 2016 at 12:26pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४3

रोज़मर्रा की ज़रुरत बद से बदतर हो गई 

दाल-रोटी ही हमारा अब मुक़द्दर हो गई

फ़िक्र में आलूदगी ही हर घड़ी का काम है 

रात को दो गज ज़मीं ही मेरा बिस्तर हो गई

सूखी कलियों की तरह हर ख़्वाब ही कुम्हला गया 

धूप यूँ हालातेनौ की नोकेनश्तर हो गई

जिस्म भी अब थक गया है सांस भी अब बोझ है 

मेरे कदमों की गराँबारी ही ठोकर हो गई

यास की तारीकियों से यूँ हुई रौशन हयात 

ज़ुल्मतेवीराँ से मेरी जाँ मुनव्वर हो…

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Added by राज़ नवादवी on September 28, 2016 at 12:00pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४२

रुख्सत/विदाई/ Departure

----------------------------------

 

साथ रहते हैं मेरे गम मैं जहां जाता हूँ

अब दरीचे पे ही रहता हूँ कहाँ जाता हूँ

 

हाय रे ये ज़िल्लतें जीने नहीं देतीं मुझे

मैं ज़मीं को छोड़कर अब आसमाँ जाता हूँ

 

अलविदा ऐ दोस्तोअहबाब हैं जिनके करम

ऐ मेरे प्यारे वतन हिन्दोस्ताँ जाता हूँ

 

दुःख न करना मेरा कोई पैकरेअल्ताफ़ में

मैं फ़लक के पार सू-ए-गुलसिताँ जाता हूँ

 

कुछ अधूरे ख़्वाब हैं…

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Added by राज़ नवादवी on September 27, 2016 at 5:30pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ४४ (वक़्त गुज़रता है गुज़र जाता है)

वक़्त गुज़रता है गुज़र जाता है

जैसे धूप की सीढ़ियों से दिन 

पहाड़ों की रेल पकड़े-पकड़े 

हर रोज़ उतर जाता है 

जैसे शाम से आगे 

रात के अँधेरे में सूरज 

किसी अपरास्त सैनिक की मानिंद

भरे-भरे कदमों घर जाता है

बच्चे स्कूल और कॉलेज चले जाते हैं 

घर के कुत्ते भी खाना खाकर सो जाते हैं 

तोता पिंजरे में टांय टांय करके

झूले से उतर जाता है 

और घर के आँगन में 

पीपल का…

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Added by राज़ नवादवी on February 9, 2016 at 6:00pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ४५ (हाँ, कुछ महीनों से घर बैठा हूँ)

हाँ, कुछ महीनों से घर बैठा हूँ

और इसलिए 

आजकल कविता ही लिखता हूँ

मगर तुम तो जानती हो 

कविता लिखने से काम तो नहीं चलता

बाजारों में कड़कते नोट चलते हैं 

और खनकते सिक्के 

रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए 

शायर का नाम तो नहीं चलता

हाँ, वाहवाहियाँ मिलती हैं

और शाबाशियाँ भी खूब

इरशाद इरशाद कहके चिल्लाते हैं 

और देते है तालियाँ भी खूब

लाइक्स भी मिलते हैं और…

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Added by राज़ नवादवी on February 9, 2016 at 6:00pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ४3 (दिल रेल की पटरी है और तुम एक आती-जाती ट्रेन)

दिल रेल की पटरी है 

और तुम एक आती-जाती ट्रेन 

तुम सीने को रौंद के जाते हो 

तभी अच्छे लगते हो 

जब मुफ़स्सिल बियाबानों से 

कोहसारों की खुशबू लाते हो 

तभी अच्छे लगते हो 

कभी चलते-चलते सीटी बजाते, 

कभी पहियों से गुनगुनाते हो 

तभी अच्छे लगते हो 

कभी सुबह की किरणों के संग जगाते 

कभी रातों को झुरमुटों में सुलाते हो 

तभी अच्छे लगते हो 

कभी रुकने वाले स्टेशनों पर न रुक कर 

किसी अनजान से मोहल्ले में…

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Added by राज़ नवादवी on February 9, 2016 at 6:00pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-६९ (तरुणावस्था-१६)

(आज से करीब ३१ साल पहले: साहित्य और आध्यात्म)

 

मैट्रिक की परीक्षा शेष होने के बाद के खालीपन में मैं अक्सरहा या तो हिंदी साहित्य की किताबे पढ़ने लगा हूँ या अध्यात्म की. दोनों ही तरह की किताबों की कोई कमी नहीं है हमारे घर में. ये मुझे मेरे नाना, मेरे पिता, मेरे मंझले चाचा, एवं मेरे बड़े भाई जो मुझसे उम्र में करीब १३-१४ साल बड़े हैं, से विरासत में मिली हैं. साहित्य में जहां टैगोर, शरतचंद्र, प्रेमचंद्र, टॉमस हार्डी जैसे कथाकारों की किताबें भरी पडी हैं वहीं अध्यात्म एवं दर्शन में…

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Added by राज़ नवादवी on September 15, 2013 at 10:00pm — 8 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-६८ (तरुणावस्था-१५): रेल से आंध्रा का सफ़र

(आज से करीब ३१ साल पहले)

किसी उदास दिन, किसी खामोश शाम, और किसी नीरव रात सा ये सफ़र मुझे बेचैन कर गया. रेल सरपट भागी जा रही थी और नज़ारे, खेत और खलिहान पीछे. दोपहर की वीरानगी में स्त्री-पुरुषों के साथ बच्चों को खेतों पे काम करते देख मन अजीब पीड़ा से भरता जा रहा था. गाड़ी भागती जा रही थी मगर बंजर दिखते खेत और पठारी एवं असमतल भूमि का कहीं अंत नहीं दिख रहा था. बैल हल का जुआ कंधे पे थामे, किसान अरउआ हाथ में पकड़े, औरतें और बालाएं हाथ में हंसिया लिए झुकी कमर, खामोशी, और निस्तब्धता…

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Added by राज़ नवादवी on September 11, 2013 at 4:51pm — 6 Comments

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