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विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी's Blog – March 2012 Archive (7)

जब तुम रहते हो पास मेरे

जब तुम रहते हो पास मेरे,

जग भरा भरा सा लगता है।

व्याकुल करती गर्मी के ऋतु में,

मलय समीर बहा लगता है।



चिलचिल करती कड़क धूप में,

बरगद का छांव मिला लगता है।

बारिस के मौसम में सिर पर,

मजबूत एक छत टिका लगता है।



कई दिनों से प्यासे मुख में,

शीतल नीर पड़ा लगता है।

कई दिनों से भूखे जन को,

मधुर भोज्य मिला लगता है।



एक अंधेरी अंजान गुफा में,

प्रकाश पुंज खिला लगता है।

कई जन्म से बिछड़ा प्रेमी,

इस जन्म में मिला लगता… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 16, 2012 at 10:29pm — 11 Comments

जरा देखें

खामोश इन निगाहों का इश्तिहार जरा देखें।
टूटे हुए दिलों के पुकार जरा देखें॥
जरूरी नहीं जरूरतमंद की जरूरत पुरी हो।
जरूरत से ज्यादा लम्बी कतार जरा देखें॥
घनानन्द यहां मरता है हरवक्त प्यार में।
मगर सुजान का मौसमी प्यार जरा देखें॥
हर सूं यहां कुबेर का दबदबा बना हुआ है।
और दवताओं के पुरअसरार जरा देखें॥
इस दुनिया में जीने से मर जाना भला है।
पटे मौत की खबर से अखबार जरा देखें॥
दोस्त गर जीने की चाहत अभी बची है।
इकबार चलो चांद के उस पार जरा देखें॥

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 16, 2012 at 9:30pm — 8 Comments

वो आंखें

खिला धूप चेहरा मदमाती वो आंखें।

सुर्ख से अधर, पर शर्माती वो आंखें॥

.

देखूं जो नजर भर चुराती वो आंखें।

हटे जो नजर तो बल खाती वो आंखें॥

.

लगे दर्द दिल में छुपाती वो आंखें।

छुपे राजे दिल को बताती वो आंखे॥

.

क्यों ही न जाने दिल जलाती वो आंखें।

बहा अश्क फिर से बुझाती वो आंखें॥

.

सब्र के अब्र को छेद जाती वो आंखें।

अब्र से आब ले बरसाती वो आंखें॥

.

सुनो दोस्त मेरे मदमाती वो…

Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 16, 2012 at 9:30pm — 9 Comments

जीवन का सत्य

(१)

सुख औ दु:ख

प्रकृत या प्रारब्ध

मधु औ डंक।

(२)

आग औ धूम

प्रकाश संग तम

शराब गम।

(३)

आशा निराशा

कुछ पाने की आशा

पर हताशा।

(४)

मन है प्यासा

उत्कट अभिलाषा

जीत की आशा।

(५)

हार में जीत

हर जन से प्रीत

रहो निर्भीत।

(६)

पाने की चाह

उमंग औ उत्साह

सरल राह।

(७)

एकाग्र दृष्टि

सफलता की वृष्टि

मन की तुष्टि।

(८)

धैर्य औ ध्यान

उत्साह का उफान

लक्ष्य… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2012 at 9:00pm — 6 Comments

कल्पद्रुम

मेरा नीड़ जिस पेड़ पर है

लोग उसे कल्पद्रुम कहते हैं

जनविश्रुत है-

वह सब कुछ देता है

जो उससे मांगा जाता है

क्या यह सच है?

मेरे देखने में तो नहीं।

क्यों?

क्योंकि

वह कल्पद्रुम खामोश सा

खड़ा रहता है

अहर्निश!!!

उसके पत्ते गिर रहे हैं

सड़-सड़ कर

टहनियां सूख रही हैं

जड़ें धीरे-धीरे

ऊपर आ रहीं हैं

वह प्यासा मर रहा है

एक घूंट पानी बिन

कार्बन डाई ऑक्साइड के बजाय

ऑक्सीजन ले रहा है

अब वह खामोश… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2012 at 7:45pm — 6 Comments

प्यार का आल्हा

चढ़ल जवानी कै उदल जब,देहिया गढ़ के ऊपर नाय।

नैना यकटक देखन लागे,पुरवा चले देह घहराय॥

चन्द्रमुखी जब तिरछा ताकै,तन के आरपार होइ जाय।

मारै मुस्की जब धीरे से,दिल कै टूक-टूक उड़ि जाय॥

उड़ै दुप्ट्टा जब कान्हे से,मानौ दुइ गिरिवर बिलगाय।

देख के गोरिक भरी जवानी,लरिके मंद-मंद मुस्काय॥

आओ पंचो प्यार कै आल्हा,सुनि लौ आपन कान लगाय।

अइसन मौका फिर जिन्गी में,शायद मिलै न कब्भो आय॥

जेका यह जिन्गी में कब्भो,प्यार के रोग लगा है नाय।

मानों वै मानो कै जोनी,आपन विरथा दिहिन… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 13, 2012 at 7:01am — 25 Comments

जुदाई (गजल)

अपनों से जुदा अपने,होते हैं कहां प्रियवर।

अनमोल रतन धन,खोते हैं कहां प्रियवर॥



नजरों से दूरी तो,दूरी ही नहीं होती।

दिल से अलग अपने,होते हैं कहां प्रियवर॥



आंखों में आंसू हैं,अपनों के लिए ही हैं।

गैरों के लिए हम,रोते हैं कहां प्रियवर॥…



Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 3, 2012 at 9:30pm — 15 Comments

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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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